शिक्षक वे होते हैं जिन्हें देखकर स्टूडेंट्स सीखते हैं, उनके संपर्क में रहते हैं। उनसे प्रभावित होकर उन जैसा बनना चाहते हैं। उसकी खूबियों को आत्मसात करने के साथ ही कई बार उसकी खामियों को भी अपनाने लगते हैं।
एक तरह से शिक्षक का प्रतिबिंब उनके स्टूडेंट्स को कहा जा सकता है। शिक्षक अपने व्यवहार, अनुभवों और वक्तव्यों से अपने ज्ञान के साथ ही स्टूडेंट्स को अपने भावी जीवन में उसे अपनाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
स्कूलों-कॉलेजों में समानता के मायने
स्कूलों-कालेजों में समानता का मतलब केवल प्रशासनिक समानता व अवसरों से ही नहीं, बल्कि उसकी व्यावहार्यता के साथ ही रोज़मर्रा के जीवन में औरों के साथ-साथ अपने से कनिष्ठ लोगों, कर्मचारियों और सहपाठियों आदि के साथ किए जाने वाले व्यवहार से भी है।
आप अपनी उम्र, कद और पद में बड़े लोगों के साथ आदर से बात करें और उम्र, पद आदि में छोटे लोगों, सहकर्मियों, कर्मचारियों तथा स्टूडेंट्स या सहपाठियों के साथ अनादर करें, छात्र-छात्राओं के बीत अंतर करें तो यह भी उचित नहीं है।
अगर एक शिक्षक अमीर-गरीब तबके के स्टूडेंट्स के साथ-साथ औसत, उच्च व निम्न आई. क्यू. वाले स्टूडेंट्स के बीच भेदभाव करते हैं, तो यह भेद की रेखा ही है।
उनके स्टूडेंट्स में भी शनैः-शनैः असमानता बढ़ती जाती है। अगर स्टूडेंट्स के मध्य एक अनदेखी सी खाई बन जाए अथवा उनके मध्य हीनता का भाव आ जाए तो यह हमारे भावी समाज के लिए अच्छा नहीं है।
कुछ विशिष्ट स्टूडेंट्स के प्रति शिक्षकों का झुकाव होना
यह समान्य बात है मगर अक्सर एक शिक्षक का व्यवहार और झुकाव कुछ विशिष्ट स्टूडेंट्स की ओर अधिक होता जाता है, जो नहीं होना चाहिए। ऐसी स्थिति शिक्षकों के साथ-साथ स्टूडेंट्स और समाज सभी के लिए अत्यंत घातक है।
इस वजह से अन्य स्टूडेंट्स की रुचि ना केवल पठन-पाठन में कम होने लगती है, बल्कि उनके हृदय में उन स्टूडेंट्स के साथ ही अन्य शिक्षकों के प्रति भी दुर्भाव औचक ही घर करने लगता है।
ऐसे में शिक्षको को अपने व्यवहार के साथ ही कार्य में तठस्थता व पारदर्शिता के साथ सम्भाव लाने की आवश्यकता है। तभी वे भावी समाज की स्थापना का एक माध्यम बन सकते हैं। शिक्षक अपने स्टूडेंट्स के मध्य भेद की लकीर मिटाकर प्रेम, समानता और विश्वास पर आधारित आधुनिक समाज की नींव मज़बूत भी कर सकते हैं और खोखला भी!
बाकी आरक्षण, जाति, धर्म, राज्य, भाषा आदि के आधार पर असमानता इनके पश्चात आती है, क्योंकि यदि शारीरिक, सामाजिक और मानसिक के साथ ही शैक्षणिक और आध्यात्मिक रूप से मनुष्य स्वस्थ होगा तो सम समाज की संकल्पना भी मूर्त रूप धारण कर सकती है।