कागज़ों में लिखे जाने वाले, फर्स्ट वर्ल्ड देशों की एक बात मुझे बहुत खास लगती है। वहां धर्म को पर्सनल चॉइस के रूप में देखा जाता है। इंसान का धर्म कुछ भी हो, वह अपने धर्म को माने या ना माने या फिर कट्टर हो लेकिन उसे उसके धर्म से नहीं जाना जाता, बल्कि धर्म के नाम पर अगर वह किसी दूसरी इंसान या समुदाय को ठेस पहुंचाए तो उसपर कानूनी करवाई अलग होती है।
धर्म को लेकर सहनशीलता बढ़ानी होगी
धर्म का चॉइस पर्सनल ही होना चाहिए और धर्म मानने वाले लोगों को अपने धर्म पर विश्वास इतना होना चाहिए कि सामने वाला कितना भी उसे भड़काने की कोशिश करें या बरगलाए, उसका धर्म के प्रति विश्वास और उस व्यक्ति के प्रति सहनशीलता बनी रहनी चाहिए।
सोशल मीडिया एक विचित्र प्रकार की छूट दे देता है। आप अपने घर से देश में बैठे किसी दूसरे व्यक्ति से संपर्क कर सकते हैं। उसे गाली दे सकते हैं। उसे वह सब घिनौना कह सकते हैं जो आप शायद उसके सामने होने पर सोच भी नहीं सकते।
हमारे देश में, सोशल मीडिया से सबसे बड़ा बदलाव यही आया है। लोग छूट पाते हैं और अपने अंदर का ज़हर फैलाने लगते हैं। यह ज़हर किसी को मारता नहीं हैं, बल्कि बदले में सामने से ज़हरीली प्रतिक्रिया पाता है। सोशल मीडिया पर ऐसे युद्ध रोज़ लड़े जाते हैं। उदाहरण के लिए किसी भी न्यूज़ पोर्टल के किसी भी खबर के नीचे कमेंट्स पढ़ लें।
सोशल मीडिया पर धार्मिक बहसें हो चली हैं आम
सोशल मीडिया पर राम-अल्लाह को लेकर बहस होना कोई नई बात नहीं है। यह रोज़ की प्रक्रिया है। एक-दूसरे को आहत करो, गुस्सा हो जाओ, वक्त ज़ाया करो, हिंसा भड़काओ और सो जाओ।
यह सब बंद होना चाहिए। सोशल मीडिया पर धर्म को उछालना, टिप्पणी करना और भला-बुरा कहना बंद होना चाहिए। अगर यह बंद नहीं हो सकता है, तो लोगों को अपने धर्म पर इतना विश्वास हो जाना चाहिए कि कोई उसके धर्म और विश्वासों पर कुछ भी बोल जाए। उन्हें हिंसा का रास्ता ना चुनकर कानून का रास्ता चुनना चाहिए।
ऐसा हो सकता है कि कानून के रास्ते में न्याय ना मिले या मिलने में बहुत देर हो जाए लेकिन हिंसा करने, घर जलने, लोगों को मारने, कत्लेआम करने से भी न्याय नहीं मिलता। ना आपको और ना आपके धर्म को। किसी का खून बहाना धर्म नहीं हैं। किसी के बहते खून पर मरहम लगाना धर्म है। बैंगलोर में हुई हिंसा एक असहनीय समाज का उदहारण हैं। उम्मीद है, इसकी जांच होगी और अपराधी जल्दी ही पकड़े जाएंगे।