कहते हैं, बच्चे ईश्वर का रूप होते हैं। उनके मन में किसी भी प्रकार का कोई बैर नहीं होता है। फिर यही बच्चे जब बड़े हो जाते हैं, तो वह सहज भाव को क्यों त्याग देते हैं? क्यों हम बड़े होने पर धर्म, जाति, भाषा और वर्ग की दीवार खड़ी कर लेते हैं?
ऊँच-नीच का बैर अपने इस चंचल मन में पाल लेते हैं? क्या समाजीकरण की प्रक्रिया हमें ऐसा बनने पर विवश करती है? ऐसे बहुत सारे सवाल बचपन में मेरे दिमाग को झकझोर कर रख देते थे।
फिर जब बड़ी हुई, तो जाना कि इस भेदभाव को तो हमने ही जन्म दिया है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि एक नीची जाति वाले परिवार में जन्मा बच्चा देश के प्रतिष्ठित पदों पर विराजमान नहीं हो सकता है। क्षेत्रीय बोली और स्थानीय भाषा बोलने वाला बच्चा ना केवल अपने देश, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर वक्तव्य नहीं दे सकता है।
इतिहास में ऐसे बहुत से उदारहण मौजूद हैं जो इन दलीलों को पूरी तरह खारिज़ करते हैं, तो आइए इस मिथक को तोड़ते हैं। मुझे लगता है हमें इन पूर्वग्रहों से मुक्त होना ही होगा। हाल ही में हमने स्वतंत्रता दिवस की 74वीं वर्षगांठ मनाई है, तो अब यह बताने का वक्त आ गया है कि हमें आज़ादी नहीं स्वराज्य चाहिए जिसकी कल्पना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने की थी।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। भारतीय संविधान भाग-3 के अनुच्छेद-15 में धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित किया है। जो देश के सभी नागरिकों को इस तरह के भेदभाव से लड़ने के लिए सशक्त करता है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है।
अनुच्छेद-343 (1) में हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। आज़ादी से लेकर अब तक कोई भी देश की राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई है। इसके साथ ही इस लोकतांत्रिक देश में बोलियों का भी अपना अलग अस्तित्व है। जब संविधान इस तरह के विभाजन को जन्म नहीं दे पाया फिर इस भेदभाव को करने वाले हम कौन होते हैं?
भाषा अभिव्यक्ति का एक माध्यम है कोई स्टेटस सिंबल नहीं
भाषा अपने आपको अभिव्यक्त करने का बस एक माध्यम है इसके साथ कोई ‘स्टेटस सिम्बल’ नहीं जुड़ा है। हालांकि देश में भाषा के मुद्दे पर अलग विमर्श मौजूद है। मैं उस पर चर्चा नहीं करूंगी। इस लेख में मैं अपने निजी अनुभव और सुझावों को प्रस्तुत करूंगी।
चलिए शुरुआत करते हैं, मेरे अनुभवों की। हां, तो मैं कह रही थी कि शिक्षा व्यवस्था में मौजूद भाषा आधारित भेदभाव ने बार-बार मेरे आत्मविश्वास को तोड़ा। कई बार मेरी गरिमा और आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचाई, क्योंकि मैं सदैव हिंदी माध्यम की विद्यार्थी रही हूं, तो मेरी अब तक की ज़िन्दगी के अनुभव में अंग्रेज़ी भाषा हर वक्त मुझ पर हावी रही है।
लोग अंग्रेज़ी भाषा को संभ्रांत (Elitist) वर्ग की भाषा मानने लगे हैं। लोगों के मन में यह धारणा घर कर गई है कि अंग्रेज़ी भाषा अधिक बुद्धि की परिचायक है। जब हिंदी भाषा बोलने वाले अंग्रेज़ी भाषा को बोलने का प्रयास करते हैं, तो अंग्रेज़ी भाषी लोग उन पर फब्तियां कसते हैं, उनका मज़ाक उड़ाते हैं। इस तरह का व्यवहार उनके सभी प्रयासों पर पानी फेर देता है।
ऐसे लोगो से मैं पूछना चाहूंगी जब अंग्रेज़ी भाषी लोग हिंदी भाषा को बोलते वक्त अटकते हैं तब कोई क्यों नहीं हंसता है? अटकना स्वाभाविक प्रक्रिया है। वहीं, इन लोगों को यदि फ्रेंच या जर्मन भाषा बोलने को दे दी जाए, तो हो सकता है वह भी इस तरह की दिक्कतों का सामना करें। हमारे ऊपर ब्रिटिशर्स ने 200 वर्षों तक राज किया, तो हम अंग्रेज़ी भाषा के गुलाम हो गए। अगर फ्रांस हमें उपनिवेश बनाता तो फ्रेंच जर्मनी बनाता तो जर्मनी के गुलाम होते।
सभी भाषाओं का है अपना महत्व
मैं लेख में इस ओर इशारा नहीं कर रही हूं कि अंग्रेज़ी भाषा बुरी है। मेरी बहस का केंद्र बिंदु भाषा के आधार पर भेदभाव है। हो सकता है मेरे किसी अन्य साथी ने किसी और भाषा के प्रति भेदभाव सहा हो। मैं इस बात से भी परिचित हूं कि इस आधुनिक, वैश्वीकृत और उदारीकृत विश्व में अंग्रेज़ी भाषा का बहुत महत्त्व है।
इस आत्म-निर्भरता और प्रौद्योगिकी वाले विश्व में हमें अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है ताकि हम दूसरे देशों से जुड़ सकें। हर भाषा का अपना महत्त्व हैं। हमें सभी को समान का दर्ज़ा देना चाहिए। सभी के विचारों का सम्मान करना चाहिए।
शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जो इन समस्याओं से निज़ात दिला सकता है। लोगों में मानसिक परिवर्तन के ज़रिए इसको समाप्त किया जा सकता है। अभी तक की शिक्षा प्रणाली पर नज़र डालें तो वहां रसायन और भौतिकी विज्ञान, एकाउंट्स और इकोनॉमिक्स जैसे विषयों पर अत्यधिक बल दिया जाता रहा है। मानविकी या ‘लिबरल आर्ट्स’ पर कम ध्यान देते हैं।
ऐसे में हम सामाजिक प्राणी को दरकिनार कर आर्थिक प्राणी को तैयार कर हैं। वह ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ सिद्धांत को ध्यान में रखकर आर्थिक मानव संसाधन के रूप में जीवन-निर्वाह करने लग जाता है। ऐसा मानव जब समाज में आता है, तो वह मानवीय मूल्यों से विहीन होता है। उसे लोगों के दर्द और पीड़ा का एहसास नहीं होता है। कुछ खामियां तो हमारी शिक्षा व्यवस्था में भी है जिसे दूर करने की आवश्यकता है।
क्या नई शिक्षा नीति से आएगा बदलाव?
इस दिशा में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) में महत्वपूर्ण कदम उठाएं गए हैं। नई शिक्षा नीति ने सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं। अध्ययन-अध्यापन के कार्य में बहु-भाषिकता को प्रोत्साहन दिया गया है। नीति में बहुभाषावाद और मातृभाषा पर अत्यधिक ज़ोर दिया गया है। छोटे बच्चे अपनी घर की भाषा/ मातृभाषा में सार्थक अवधारणाओं को अधिक तेज़ी से सीखते हैं।
नई शिक्षा नीति में स्कूली पाठ्यक्रम अब त्रिभाषा फार्मूला पर चलेगा। स्टूडेंट्स पढ़ाई जाने वाली तीन भाषाओं में से एक या अधिक भाषा बदलना चाहते हैं। वे ग्रेड 6 या ग्रेड 7 में ऐसा कर सकते हैं जब वे तीन भाषाओं (एक भाषा साहित्य के स्तर पर) में माध्यमिक स्कूल के दौरान बोर्ड परीक्षा में अपनी दक्षता प्रदर्शित कर पाते हैं।
यह प्रावधान हर बच्चे का सशक्तिकरण करते हैं। जब इस तरह की शिक्षा व्यवस्था से बच्चा निकल कर समाज में प्रवेश करेगा तो भेदभाव मिलने की बड़ी संभावना है, क्योंकि हर बच्चे को कई भाषाओं का ज्ञान होगा। वह जब ‘लिबरल आर्ट्स’ जैसे विषयों को पढ़ेगा तो उनमें दया, करुणा, प्रेम और सद्भाव जैसे मानवीय मूल्य भी विकसित हो चुके होंगे।
साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत एक राष्ट्र है। जहां सभी जाति, धर्म, भाषा, लिंग और वर्ग के लोग सद्भाव के साथ रहते आए हैं। राष्ट्र हमारी सांस्कृतिक एकता का परिचायक है। भाषा इसी संस्कृति का एक तत्त्व है।
जिस आज़ादी का आज हमने मनाया वह राष्ट्र को मिली आज़ादी है, तो हमें उस आज़ादी के मोल को समझना चाहिए। इस तरह के भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठाकर इसे जड़ से समाप्त करने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए। साथ ही इस बदलाव के लिए मानसिक परिवर्तन भी बहुत ज़रूरी है।