आज कल स्कूलों में बच्चों को लगभग सभी विषय पुस्तकों के माध्यम से ही सिखाए जाते हैं। यह बुरी बात तो नहीं है लेकिन सब बच्चे एक ही तरीके से सीखेंगे, यह मुमकिन नहीं है।
कक्षा में बैठक दिनभर ब्लैकबोर्ड की तरफ देखना यह कोई शिक्षा हुई? छत्तीसगढ़ के मेरे आदिवासी गाँव में बच्चों को बहुत पहले से ही प्रायोगिक माध्यमों से सिखाया जाता है। कई गाँव में आज भी हमारे दादा-दादी हमें पढ़ाई करने के ऐसे तौर-तरीके सिखाते हैं, जिससे हमें चीज़ें सीखने और याद रखने में आसानी होती है।
आप गणित की ही बात ले लो। गणित बहुत से बच्चों के लिए कठिन विषय होता है और स्कूल में पहाड़े सीखने के दिन किसे याद नहीं है? क्योंकि यह गणित के लिए ज़रूरी है और बच्चों को पहाड़े याद करना आवश्यक है, हमारे गाँव के आदिवासी बच्चे कंकड़ के द्वारा खेल-खेल में गिनती और पहाड़े सीखते हैं।
कंकड़-पत्थर और पच्चीसा द्वारा गिनती की पढ़ाई
छत्तीसगढ़ के बिंझरा गाँव के दो छात्र, पूर्णिमा व राधिका, कंकड़ के द्वारा गिनती और पहाड़ा सीखते हैं और खेल भी खेलते हैं , जिससे उनका मनोरंजन भी हो जाता है।
बच्चे यह कहते है कि उनके दादा-दादी पहले इन्हीं कंकड़ के द्वारा गिनती सीखते थे। गिनती का मतलब अनुभव से अवधारणा करना और पहाड़ा सीखना। पुराने दिनों में पहाड़ा और गिनती का चार्ट नहीं था, तो लोग पत्थर के द्वारा ही गिनती- पहाड़ा सीखा करते थे।
उदाहरण के तौर पर अगर दो का पहाड़ा सीखना है, तो दो पत्थर लेते हैं और फिर और दो पत्थर उठाते हैं, जिससे दो दूनी चार हो जाता है। अंकों में आगे बढ़ते हुए ज़्यादा संख्या में पत्थर उठाए जाते हैं और बच्चे गिनती सीखते जाते हैं। इसे संख्या सीखना भी कहा जाता है।
बच्चों को जैसे कंकड़ के द्वारा खेल-खेल में गिनती और पहाड़ा सिखा सकते हैं, उसी तरह पच्चीसा से भी बच्चों को पढ़ा सकते हैं। पच्चीसा इमली का बीज होता है, जिससे 3 पूरे बीज लिए जाते हैं और इन बीजों के अलग-अलग हिस्से किए जाते हैं, इससे वह छह हिस्सों में बंट जाते हैं। इन छह हिस्सों को लेकर पच्चीसा का खेल खेला जाता है, जिससे पहाड़ा और गिनती सीखी जाती है।
गाँव में आदिवासी बच्चे इस गोटी खेल को छत्तीसगढ़ी भाषा में पांचवा कहते हैं। पांचवा इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसमें 5 गोटियां इस्तेमाल होती हैं। अधिक गिनती सीखने के लिए और भी गोटियों का इस्तेमाल किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ी में छोटे पत्थरों को गोटी कहा जाता है।
खेल में अगर गोटी खेल खेला जा रहा है, तो इसके ज़रिए पढ़ाई भी की जा सकती है। इसका यह नियम होता है कि अगर कोई बच्चा गोटी खेल-खेल रही है और बीच में गोटी नीचे गिर जाए, तो पहाड़ा पढ़ने और खेल खेलने का नंबर दूसरे बच्चे का हो जाता है।
पढ़ाई में पुराने और आज के जमाने में अंतर
पुराने जमाने में आदिवासियों के पास पढ़ने के लिए कोई भी साधन नहीं था लेकिन उन्हें सब चीज़ों का ज्ञान था और अभी भी है, अगर उनसे कुछ भी सवाल किया जाए या जोड़-घटाना पूछा जाता है, तो वह बिना मोबाइल या कैल्क्युलेटर के सहारे ही इनका जवाब दे देते हैं।
आज कल छोटे-छोटे काम के लिए भी लोग फोन का इस्तेमाल करते हैं। फोन पर ही कैल्क्युलेटर, फोन पर ही मोबाइल नम्बर, आदि रखना। आज कल हम फोन पर इतना निर्भर हो चुके हैं कि उसके बिना हमारा काम ही नहीं चलता है।
आज के बच्चों को इतना पढ़ने-लिखने के बावजूद भी जोड़-घटाना और गुणा-भाग करने में परेशानी होती है। अगर हम कहीं भी सामान लेने जाते हैं, तो समान का बिल देखने के लिए कैल्क्युलेटर का उपयोग करते हैं।
कहा जाता है कि भारत में प्राचीन शिक्षा पहले पेड़ों के नीचे दी जाती थी और वह मौखिक रूप में होती थी, तब कागज़, ब्लैकबोर्ड नहीं थे। तब छात्र यह शिक्षा याद रखते थे। आज कल की शिक्षा किताबों तक ही सीमित रह गई है। अगर किसी भी बात की जानकारी हासिल करनी है, तो आज के बच्चे इसके बारे में सोचने से पहले सीधा गूगल पर सर्च कर देते हैं। इस टेक्नॉलजी पर हम पूरी तरह से निर्भर हो चुके हैं।
बच्चों को प्रायोगिक माध्यमों से और खेल-खेल में सिखाना आवश्यक है। इससे उनकी पढ़ाई की ओर उत्सुकता बढ़ती है और पढ़ाई में रुचि बढ़ती है। इन आदिवासी बच्चों को खेल के माध्यम से सीखने में बड़ा मज़ा आता है। आप भी यह तरीका अपने घर के छोटे बच्चों के साथ आज़माकर देखिए, क्या पता उन्हें भी यह पसंद आए?
यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजैक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, और इसमें Prayog Samaj Sevi Sanstha और Misereor का सहयोग है।