छत्तीसगढ़ के गाँव में बरसात के मौसम में आंधी-तूफान और तेज़ बारिश देखने को मिलती है। ऐसे समय में कई लोगों के घरों के छत टूट जाते हैं और पानी घर के अंदर घुस जाता है जिससे बड़ा नुकसान है।
इसी नुकसान से बचने के लिए आदिवासी गाँव में लोग बरसात से पहले घर के लिए छप्पर बनाते हैं, जिससे घर को पानी से बचाया जा सके।
ऐसे बनाते हैं आदिवासी घर का छत
छप्पर बनाने के लिए खेत से पहले मिट्टी लाई जाती है और एक गड्ढा खोदा जाता है, जिसे चौकोन गड्ढा कहा जाता है। उसी गड्ढे में मिट्टी को भिगोया जाता है। मिट्टी को अच्छे से भिगोने के बाद उसे उस गड्ढे से बाहर निकाला जाता है।
इसे बाहर निकालने के बाद मिट्टी के जगह राख को फैलाया जाता है। भीगी हुई मिट्टी को फेंटकर रखते हैं। मिट्टी को अच्छे से फेंटना इसलिए ज़रूरी है ताकि छप्पर बनाते समय वह फटे ना।
छप्पर बनाने के लिए सांचा का होना आवश्यक होता है, जो लकड़ी का होता है। इस सांचे में पहले राख डाली जाती है और उसके बाद इसमें फेंटी हुई गीली मिट्टी को डाला जाता है। राख इसलिए डालते हैं ताकि मिट्टी सांचे से ना चिपके। इसके बाद मिट्टी को काटा जाता है, जिसके लिए धनुष बनाया जाता है। लकड़ी और तार से बनाए इस धनुष से काटने के बाद छप्पर के आकार की कटी हुई मिट्टी प्राप्त होती है।
इसे फिर हाथों के सहारे चिपकाकर अलग किया जाता है, जिसके बाद मिट्टी को छप्पर के आकार में बनाने के लिए दूसरे सांचे पर रखा जाता है। इसे घोड़ा सांचा कहा जाता है। पानी की सहायता से इसे चिकना किया जाता है, फिर उसे दो-तीन दिन के लिए धूप में सुखाया जाता है।
छप्पर को ऐसे पकाते हैं
इस छप्पर को पकाने के लिए एक गड्ढा खोदा जाता है ताकि उसे आसानी से रखा जा सके। उन्हें ठीक से जमाया जाता है ताकि वह पकते समय बाहर ना निकल जाए। उस छप्पर को एक के ऊपर एक इस तरह से जमा कर रखा जाता है ताकि नीचे से आग का आंच ऊपर के छप्पर तक आसानी से पहुंच सके।
गड्ढे के सबसे नीचे वाले भाग में बड़ी-बड़ी लकड़ियों और कंडे को जमाया जाता है, ताकि उसके ऊपर छप्पर को आसानी से रखा जा सके। छप्पर को कंडे और लकड़ियों के ऊपर जमाने के बाद बीच में गैप रखा जाता है ताकि बीच से हम आग को निचली सतह पर डाल सकें।
जिस जगह पर लकड़ी और कंडे रखे जाते हैं, उस जगह पर जब अंगार को डाला जाता है। इसके बाद वह आसानी से जलने लगता है। अंगार को डालने से पहले उस छप्पर की चारों तरफ से गीली मिट्टी से छपाई कर ली जाती है।
छपाई इसलिए की जाती है ताकि जब उस गड्ढे पर आग डाली जाए। ऐसे में आग का धुआं या आंच बाहर नहीं आता है।अगर ऐसा नहीं किया जाएगा, तो छप्पर लाल की जगह काला हो जाता है।
छप्पर को पकने में 24 घंटे का समय लग सकता है। ठंडा होने के बाद पके हुए छप्पर को एक-एक करके बाहर निकालकर जमा दिया जाता है।
जब घर पर छप्पर डालने का समय आता है, तो छप्पर को पका लिया जाता है जिसके बाद छप्पर घर पर लगने के लिए तैयार हा जाता है। इस छप्पर को बच्चे भी बना सकते हैं; आदिवासी बच्चे बचपन से ही मेहनती होते हैं। इस छप्पर को सुबह 4 बजे धूप निकलने के पहले बना लिया जाता है और अगर शाम को बने तो इसे शाम को 4 बजे से रात को 9-10 बजे तक बना सकते हैं।
अगर इसे बनाने का काम सुबह किया जाए और धूप निकल आए तो छप्पर फटने लगता है। मेहनत बेकार हो जाती है, इसलिए इसे अधिकांश धूप निकलने से पहले और सूर्य ढलने के बाद ही बनाया जाता है।
इस छप्पर को काली मिट्टी से बनाते हैं। इसी काली मिट्टी से कुम्हार मटके, दिए और मिट्टी के खिलौने बनाते हैं। आदिवासी इस पके हुए छप्पर को पानी गिरने से पहले, अर्थात बरसात लगने से पहले ही अपने घरों पर लगा लेते हैं, ताकि बरसात से घर को बचाया जा सके।
छप्पर बनाना है रोज़गार का ज़रिया
गाँव के आदिवासी जब छप्पर बनाते हैं, तो उस छप्पर को उचित मूल्य में बेच देते हैं। एक छप्पर का मूल्य 2 रुपये होता है और 1000 छप्पर बेचने से 2000 रुपये का मुनाफा होता है। यह काम गाँव में रहने वाले आदिवासियों के लिए पैसा कमाने का ज़रिया है।
यह काम इस बात का उदाहरण है कि आदिवासी दूसरों से काम नहीं करवाते और कठिन-से-कठिन कामों को स्वयं ही कर लेते हैं। वे किसी पर निर्भर नहीं रहते हैं। इस आत्मनिर्भरता से सब बहुत कुछ सीख सकते हैं।
नोट: यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है। ‘इसमें प्रयोग समाज सेवी संस्था’ और ‘Misereor’ का सहयोग है।