9 अगस्त को चाहे कनाडा, ब्राज़ील, न्यूज़ीलैण्ड, चीन या कोई और देश हो, पूरी दुनिया में विश्व आदिवासी दिवस खूब धूमधाम से मनाया जाता है। आदिवासी समाज के द्बारा इस दिवस को 1982 में हुई संयुक्त राष्ट्र की पहली बैठक के बाद, 9 अगस्त 1994 को पहली बार विश्व आदिवासी दिवस का आयोजन किया गया था।
1982 में जो पहली बैठक हुई थी, वह खास तौर से पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के बारे में चर्चा के लिए ही की गई थी। अत: कोई दो राय नहीं कि आदिवासी ही सबसे ज़्यादा पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं।
विश्व भर में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भव्य आयोजन होता है
दुनिया भर के लगभग 90 देशों में 47.6 करोड़ मूलनिवासी रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र हर साल एक विषय निर्धारित करता है, जिसके अनुसार सभी लोग इस खास दिवस को मनाते हैं। चाहे कोई भी जनजाति हो, इस खास दिन को सभी आदिवासी बहुत ही खुशी और उल्लास के साथ मनाते हैं।
सब एक साथ मिल कर बहुत ही परम्परागत तरीके से नाच गाना करते हैं। लोग अपने लोकगीत गाते हैं। इस दिन बहुत से सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। लोग तलवार और धनुष-बाण लेकर नाचते हैं। साथ ही कुछ लोग हल के साथ अपने लोक गीतों पर नाचते हैं।
बताया जाता है कि आदिवासी पूर्व में युद्ध जैसी परिस्थितियों के दौरान इन्हीं चीज़ों का प्रयोग हथियार के रूप में करते थे। हर साल की तरह इस साल आदिवासियों का यह खास पर्व पूर्व की तरह मनाना मुमकिन नहीं था।
आज जब पूरी दुनिया को कोरोना वायरस नाम की महामारी ने जकड़ रखा है, तो आदिवासी समुदाय भी अपने इस प्रिय त्यौहार को पूर्व की तरह से नहीं मना सके। इस महमारी के बीच कई समुदायों ने ऑनलाइन जश्न मनाने का निर्णय किया, तो कुछ समुदायों के लोगों ने वृक्षारोपण करने का निश्चय किया।
14 राज्यों के मूलनिवासियों में दोनों ही लिंग के लोगों को सामान हक
भारत की 2011 जनगणना के अनुसार, यहां 10 करोड़ से ज़्यादा आदिवासी रहते हैं। हमारे देश में कुल 14 राज्य है जहां ज़्यादातर मूलनिवासी रहते हैं। इनमें से कुछ छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, राजस्थान हैं। हम सभी लोग इन्हें कई नामों से जानते हैं जैसे मूलनिवासी, आदिवासी, वनवासी, गिरिजन, देशज, स्वदेशी, आदि।
आदिवासी शब्द का अर्थ है ऐसे वासी जो बहुत शुरुआत से यहां रहते आ रहे हैं। सरकारी और कागज़ी तौर पर आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति कहा जाता है। आपको यह जानकर थोड़ा आश्चर्य हो सकता है कि हमारे आदिवासी भाई-बहन मूल तौर पर किसी भगवान को नहीं मानते। उनके लिए सब कुछ प्रकृति है।
प्रकृति ही देवी और देवता हैं
आदिवासी लोग जल, जंगल, ज़मीन और जानवरों की ही पूजा करते हैं। साथ ही वे सूर्य और चंद्रमा की भी पूजा करते हैं। यह सभी बातें अलग-अलग जनजातियों के लिए अलग हो सकती हैं।
आदिवासी समुदायों को लोग पिछड़ा हुआ मानते हैं, क्योंकि यह आधुनिकता को नहीं अपनाना चाहते लेकिन एक ऐसी चीज़ है जो सबको इस एक समुदाय से सीखनी चाहिए। वह है आदिवासी समुदायों में लैंगिक समानता। यानी इनके यहां लड़कियों की संख्या लड़कों के बराबर है और यहां दोनों ही लिंग के लोगों को सामान हक दिए जाते हैं।
आज भी आदिवासी समाज के कई लोग अपने सांस्कृतिक कपडे़ पहनते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि आदिवासियों की पहचान उनके कपड़ों व आभूषण से की जा सकती है। खास बात यह है कि आदिवासी दिवस पर भी लोग अपना पारम्परिक पहनावा ही पहनते हैं।
आज भी लोग धोती, आधी बांह की कमीज़, सर पर गोफन के साथ पगड़ी (फलिया) पहनते हैं। कुछ लोग तो 3 से 4 किलोग्राम चांदी का बेल्ट कमर पर बांधते हैं। यह बेल्ट बस वही लोग पहनते हैं जो इसको खरीद सकते हैं।
कुछ लोग तो अपने चेहरे पर अलग-अलग तरह की चित्रकारी भी करते हैं। यह पूर्ण सत्य है कि आज भी तमाम मूलनिवासी अपनी सभी परम्पराएं पहले की तरह निभाते हैं। चाहे फिर वह ब्याह हो, जन्मदिन हो या कोई और त्यौहार।
बात आदिवासी जनजातियों में शादी के रस्मों की
क्षेत्र दर क्षेत्र आदिवासियों की भाषा से लेकर उनकी परम्पराओं में बदलाव दिखाई देते हैं। इन बदलाव में आदिवासी समुदायों में होने वाली शादियां भी विभिन्न रस्मों के द्वारा सम्पन्न होती हैं। अत: कुछ समुदायों में अदा की जाने वाली शादी की रस्मों पर प्रकाश डालना ज़रूरी हैं।
गुजरात और राजस्थान की भील जनजाति में उल्टे फेरे लगाए जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि धरती भी उल्टी ही घूमती है। दरअसल आदिवासी अपनी ज़िंदगी को प्रकृति के अनुसार ही जीते हैं।
इसी कारण लोग अपने घरों में भी उल्टी चलने वाली घड़ी रखते हैं। इस जनजाति में एक और अलग रस्म होती है। यहां शादी के वक्त जब लड़के वाले लड़की के घर जाते हैं, तो वह लोग लड़की की चाल पर ध्यान देते हैं।
अगर लड़की के पैर चलते हुए अंदर की ओर जाते है, तो लड़की को घर के लिए शुभ माना जाता है लेकिन अगर उसके पैर चलते हुए बाहर की तरफ आते हैं तो माना जाता है कि वह घर के लिए ठीक नहीं है।
लड़के के घर वाले लड़की की बोल-चाल पर भी बहुत ध्यान देते हैं। भील जनजाति के लोग दूसरी जनजाति, जाति, धर्म में शादी कर सकते हैं लेकिन अपने ही गोत्र में शादी करना सख्त मना है। ऐसा करने पर जनजाति से बाहर निकाल दिया जाता है। यह लोग आज भी शादी सांस्कृतिक तरीके से ही करते हैं।
बाकी लोगों को शादी की सूचना देने का तरीका भी इस जनजाति का बहुत ही अलग है। यहां लोग अपने घर के मुख्य दरवाज़े के बाहर चावल और गेंहू के कुछ दाने रख देते हैं। जिसे देखकर लोग समझ जाते हैं कि इस घर में किसी का रिश्ता तय हो गया है।
भील जनजाति में शादी 3 से 4 दिनों में पूरी हो जाती है। इस जनजाति में और भी कई अनोखी रस्में हैं। उनमें से एक “चांदला” है। इस रस्म में जनजाति के लोग लड़के और लड़की के घर वालों को कुछ पैसे देकर उनकी आर्थिक मदद करते हैं।
लड़की और लड़के के घर वाले एक कॉपी में यह लिखते हैं कि किसने कितनी मदद की। ताकि जब उनके घर कोई शादी हो तो वह भी उनकी मदद कर सकें। इसी तरह यहां दहेज नहीं होता, बल्कि दोनों परिवार मिलकर सभी तैयारियां करते हैं।
मेले में जोड़ी
राजस्थान की मीणा जनजाति में सांस्कृतिक तौर पर एक मेला लगाया जाता है। इस मेले में जनजाति के युवक और युवती आते हैं। वह एक-दूसरे के साथ खेल खेलते हैं। एक दूसरे से मिलने-जुलने के इस क्रम में यदि वह दोनों एक-दूसरे को पसंद आ गए, तभी बात आगे बढ़ाई जाती है।
अंतिम निर्णय फिर भी माँ-बाप का ही होता है। मेले के बाद, लड़का कुछ दिनों तक लड़की के घर में ही रहता है, ताकि लड़की के पिता उसकी योग्यता को परख सकें। अगर किसी भी कारण से लड़की के घर वालो को लड़का पसंद नहीं आता है, तो वह दोनों शादी नहीं कर सकते हैं।
इस जनजाति के लोगों का मानना है कि यहां के लोगों पर आधुनिकता का बहुत असर है, इसलिए अब लोग पुरानी रस्मों को धीरे-धीरे भूल रहे हैं। मीणा जनजाति में विवाह तय करने का काम गाँव का नाई करता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह ज़िम्मेदारी नाई की ही होती है। वह ही लड़का और लड़की को मिलवाता है और शादी की बात करवाता है।
हम सभी जानते हैं हर माँ-बाप बच्चों की शादी को लेकर एक सपना देखते हैं लेकिन कई जनजातियों की तरह मीणा जनजाति में भी फेरे के समय, लड़की के माँ-बाप मंडप पर नहीं बैठ सकते। इसके पीछे भी एक मान्यता है कि यह जोड़े की खुशी के लिए ज़रूरी है। ताकि उनका दम्पत्य जीवन सुखी रहे।
शादी करने के बारह तरीके
झारखण्ड एक ऐसा राज्य है जहां ज़्यादातर मूल निवासी रहते हैं। उनमे से कुछ संताल, उरांव, मुंडा, असुर, बैगा हैं। इन सभी जनजातियों में पारंपरिक रीति-रिवाज बहुत मायने रखते हैं। यहां शादी-विवाह भी पूरे रीति-रिवाज के साथ किए जाते हैं। झारखण्ड की एक जनजाति है संताल। संताल जनजाति में 12 तरीकों से शादियां हो सकती हैं।
उनमें से एक “सादय बपला” है, शादी के इस तरीके में दोनों परिवारों की रज़ामंदी बहुत ही ज़रूरी है। इस विवाह को एक आदर्श विवाह माना जाता है। दूसरे तरह के विवाह को “घरदी जवाय” कहा जाता है। यह विवाह तभी होता है जब लड़की का भाई नाबालिग हो। लड़का अपने लड़की के भाई के बालिग होने तक लड़की के घर में ही रहता है। फिर उसके बाद अपनी पत्नी के साथ अपने घर लौट जाता है।
विवाह के तरीके का अगला नम्बर “हीरोम चेतान बापला” है। इस विवाह में लड़का पहली पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह कर सकता है लेकिन यह तभी सम्भव है अगर पहली पत्नी इसकी मंज़ूरी दे। यह विवाह एक परस्थिति में ही होता है अगर पहली पत्नी से कोई सन्तान ना हो और अगर हो भी तो सिर्फ लड़की हो।
बहरहाल और भी 9 तरह की शादी इस जनजाति में होती हैं। संताल जनजाति में शादी के दिन दूल्हा और दुल्हन अपनी छोटी उंगली में से खून निकालकर एक-दूसरे के माथे पर लगाते हैं।
‘लीव इन रिलेशन’ जैसी रस्म
पश्चिमी संस्कृति में शादी से पहले सम्बन्ध बनाना और साथ रहना आम बात है लेकिन भारतीय संस्कृति में यह एक असाधारण बात है। बावजूद इसके भारत में भी कुछ ऐसी जनजातियां हैं जहां इसे एक रस्म माना जाता है। इस रस्म के अनुसार, लड़का-लड़की शादी से पहले एक साथ एक घर में रह सकते हैं और शारारिक सम्बन्ध भी बना सकते हैं। इस रस्म को “घोटूल” कहते हैं।
यह रसम छत्तीसगढ़ की गोंड जनजाति के बीच बहुत ही लोकप्रिय है। इस रसम में लड़के और लड़कियां आपस में मिलते हैं और अगर उन्हें एक-दूसरे से बात करके अच्छा लगता है, तो वह एक-दूसरे को अच्छे से जानने के लिए एक साथ रहना शुरु करते हैं। इस रस्म को करने के लिए 10 से अधिक उम्र होनी चाहिए।
सबको अपने जीवन में कम-से-कम एक बार इस रस्म को करना होता है। इस रस्म के दौरान अगर किसी लड़के को किसी लड़की को अपनी तरफ आकर्षित करना होता है, तो वह उसके लिए एक कंघी अपने हाथों से बनाता है।
अगर लड़का और लड़की एक-दूसरे को पसन्द करने लगते हैं, तो वह दोनों एक साथ रहना शुरु कर देते हैं। जहां जीवन से सम्बन्धित कई तरह की चीज़ों को सीखते हैं और एक-दूसरे को अच्छे से जानने के बाद घर वालो की मंज़ूरी के साथ शादी कर लेते हैं।
आज के समय में आधुनिक बनना एक ट्रेंड-सा बन गया है। सब अपने संस्कारों को छोड़ कर आधुनिकता की तरफ भाग रहे हैं। जब से विज्ञान ने तरक्की की है, सबको लगने लगा है आधुनिकता ही जीवन जीने का मूल है लेकिन इस नई दुनिया में आज भी आदिवासी जनजातियां अपनी संस्कृति, परम्परा, रिवाज को बचाने की कोशिश कर रही हैं।