हम भारतीय लोगों के लिए कोरोना वायरस का आना और फिर अचानक लॉकडाउन लग जाना, किसी झटके से कम नहीं था। ऐसा झटका जिसने अचानक सब-कुछ रोक दिया लेकिन फिर धीरे- धीरे इस रुके पहिए को चलाए जाने की एक अप्रत्याशित शुरुआत हुई।
जीवन के तमाम क्षेत्रों की तरह ही अहम ‘शिक्षा क्षेत्र’ इससे खासा प्रभावित हुआ। फिर सवाल उठे कि अब शिक्षा क्षेत्र को कैसे शुरू किया जाए? विद्यालयों तथा कॉलेजों ने जो फीस ली है, उसकी भरपाई कैसे की जाए?
ऐसे में, ऑनलाइन शिक्षा या ई-लर्निंग विकल्प के रूप में सामने आया। पहले उच्च संस्थानों में विद्यार्थियों की ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हुई। इससे कुछ फायदा हुआ और बहुत सारी दिक्कतें हुईं। सबसे बड़ी दिक्कत इंटरनेट कनेक्टिविटी और डिजिटल डिवाइड की रही है।
डिजिटल डिवाइड: कितना बड़ा गैप?
हमारा समाज साधारण तौर पर दो वर्गों में विभाजित है। पहला वर्ग, प्रिविलेज्ड है। उसके पास संसाधन हैं। यह वर्ग अपने बच्चों को हाई-फाई स्कूलों में पढ़ा सकता है। मोटी फीस दे सकता है। इस वर्ग के पास महंगे लैपटॉप हैं। 4G इंटरनेट की सुविधा है।
दूसरा वर्ग, गैर-प्रिविलेज्ड है। रोज़ कमाता खाता है और गरीब है। अपनी पूरी ताकत लगा कर अपने बच्चों की पढ़ाई पर जितना खर्च कर सकता है, करता है। यह वर्ग तकनीकी से बहुत दूर है।
इसके पास वाई-फाई सुविधा नहीं है। लैपटॉप नहीं है। घर के हर सदस्य के पास अपना पर्सनल फोन नहीं है। इन डिजिटल संसाधनों की विहीनता ने समाज में दूरी पैदा की है। यही दूरी डिजिटल डिवाइड है।
कुछ समय पहले दक्षिण भारत से एक खबर आई। 10वीं की छात्रा ने आत्महत्या कर ली। इसका कारण यह था कि स्कूल में ऑनलाइन क्लास शुरु हो चुकी थी और उसके पास ‘स्मार्टफोन’ नहीं था। डिजिटल डिवाइड ही है कि एक बच्ची अपनी जान लेने पर मजबूर हो जाती है।
नीति आयोग ने “स्ट्रेटजी फॉर इंडिया एट 75” नाम से एक रिपोर्ट तैयार की है। इसमें कहा गया है कि भारत के 55 हज़ार गाँवों में मोबाइल- इंटरनेट कवरेज नहीं है। ग्रामीण इलाकों के केवल 28 फीसदी छात्रों के पास ही इंटरनेट है। इस हिसाब से तो 100 में से केवल 28 बच्चे ही पढ़ाई कर सकते हैं।
ऑनलाइन क्लास से प्रभावित हो रहे हैं बच्चे
कानपुर की रहने वाली प्रिया बताती हैं कि उनका भाई चौथी कक्षा में पढ़ता है। उसकी रोज 3 घंटे की ऑनलाइन क्लास लगती है। क्लास किसी वीडियो कॉलिंग ऐप पर नहीं बल्कि व्हाट्सएप पर होती है। वे बताती हैं,
बच्चों का एक व्हाट्सएप ग्रुप बना है जिसमें शिक्षक पढ़ाई की सामग्री भेजते हैं। मेरे भाई को इसे समझ कर कॉपी में लिखना होता है। अभी उसके टेस्ट चल रहे हैं लेकिन कभी-कभी तो वह पढ़ाई के बहाने फोन लेकर गेम खेलने लगता है। आखिर बच्चों पर कितनी नज़र रखी जाए।
फोन और लैपटॉप पर हर इमेज छोटे-छोटे डॉट्स से मिलकर बनी होती है इसलिए ध्यान ज्यादा केंद्रित करना पड़ता है। गैजेट के अधिक इस्तेमाल से आंखों और सिर में दर्द होने लगता है। मेंटल स्ट्रेस भी बढ़ता है।
अभी तक शिक्षा का जो स्वरूप रहा है यानी क्लास रूम एजुकेशन, उसमें पढ़ाई का एक तैयार माहौल मिलता है। बच्चे सामाजिकता सीखते हैं। ऑनलाइन एजुकेशन में ऐसा नहीं होता। स्मार्ट बोर्ड अभी भी ब्लैक बोर्ड की जगह नहीं ले सकता है। ऑनलाइन शिक्षा, खास तौर से बच्चों के लिए अधिक प्रभावी नहीं है।
बच्चों का एक और तबका है, जिस पर अभी किसी तरह की बात नहीं चल रही है। वो है ‘स्पेशल चाइल्ड’, इन बच्चों को शिक्षक सामने चाहिए। यह इनकी मूल ज़रूरत है। समाज के विकास में शिक्षा महत्वपूर्ण है और शिक्षा का हक हर बच्चे को मिलना ही चाहिए।
डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर की है भारी कमी
क्वाकरैली सिमंड्स ने कुछ समय पहले एक रिपोर्ट जारी की थी, “कोविड-19: ए वेकअप कॉल फॉर टेलीकॉम सर्विस प्रोवाइडर्स”। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि संचार तकनीकी अभी इतनी विकसित नहीं है कि छात्रों की ऑनलाइन पढ़ाई सही रूप से हो सके। देश के 8% परिवारों के 9 से 24 वर्ष के सदस्यों के पास ही इंटरनेट और कंप्यूटर दोनों की सुविधा है।
ऐसे में, सवाल यही है कि जब ज़रूरी संसाधन ही नहीं है तो फिर इतनी बड़ी आबादी ऑनलाइन शिक्षा कैसे प्राप्त करेगी? और क्या उसे वाकई शिक्षा कहा जाएगा? सिर्फ किताबें रटना और परीक्षा में पास हो जाने को तो शिक्षित होने की निशानी नहीं मानी जा सकती है।
हालांकि केंद्र सरकार ने देश भर के तमाम संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले लगभग 40 फीसदी छात्रों को वर्ष 2026 तक लैपटॉप और टेबलेट प्रदान करने की योजना बनाई है। इन छात्रों की संख्या करीब 4.06 करोड़ होगी। इसके लिए करीब 60,900 करोड़ का बजट निर्धारित किया गया है। केंद्र सरकार का यह प्रयास सराहनीय तो है लेकिन अधूरा है।
एक कल्याणकारी राज्य में सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वे सभी नागरिकों को हर ज़रूरी संसाधन उपलब्ध कराए। खासतौर पर तब जब वो दुनिया का सबसे युवा देश हो।