शैक्षिक संस्थानों में जातीय, नस्लीय और विकलांगता आदि के आधार पर भेदभाव करना एक शर्मनाक बात है। कभी-कभी तो शिक्षकों द्वारा बोले गए कुछ शब्द दिल पर तीर जैसे लगते हैं।
मगर इस बात से ना तो स्कूल प्रशासन को कोई फर्क पड़ता है और ना ही शिक्षकों को। संस्थागत भेदभाव स्पष्ट, इरादतन कृत्यों या अप्रत्यक्ष, अनैतिक कृत्यों से हो सकता है।
अक्सर ऐसे पैटर्न और अभ्यास मानक, ऐतिहासिक मानदंडों से उत्पन्न होते हैं। कई बार स्कूल या संस्थान के कर्मचारियों का एक पूरा झुंड इन कृत्यों में शामिल होता है। जिससे शिक्षकों को पहचानना मुश्किल हो जाता है।
हमारी कक्षा में हम सिर्फ 6 मुस्लिम थे और 40 गैर मुस्लिम बच्चे। यह नवीं कक्षा की बात है। हमारे एक अध्यापक थे हिंदी के सुनहरी लाल। जिनको हिंदी का तो ज्ञान था मगर शायद उन मूल्यों का नहीं पता था कि एक शिक्षक को अपने विद्यार्थियों से कैसा व्यवहार करना होता है।
शायद उनको मेरे से कोई परेशानी नहीं थी। उनको परेशानी मेरे धर्म से थी। कक्षा में अक्सर आकर वो हमसे पूछते, “मुल्लों के यहां एक बात बहुत बुरी लगती है। बड़े गन्दे होते हैं। इनके पास बस एक ही लोटा होता है जिससे खाना भी पकाते हैं और पैखाने भी लेकर जाते हैं। क्या तुम्हारे घर में भी ऐसा होता है? घिन नहीं आती तुम लोगों को?”
ऐसे ही ना जाने कितने सवालों के जवाब की तलब रहती थी उनको। मैं गणित में बहुत कमज़ोर था और मुझे गणित कभी भी पसंद नहीं आई। जैसे-तैसे मैंने 9वीं कक्षा पास की। सभी विषयों में डिस्टिंक्शन और मैथ्स में पासिंग मार्क्स। कक्षा दसवीं शुरू हुई और बोर्ड के एग्ज़ाम।
वैसे बोर्ड का नाम सुनकर आज भी बड़ा अजीब सा लगता है। खैर, दसवीं में भी वही टीचर। फिर उनके घटिया से सवाल! क्लास में हमको शर्मिंदा होना पड़ता मगर हमको अपने मूल्य पता थे। हमने आखिरी दिन तक उनके पैर छुए। कक्षा 9वीं से 12वीं तक एक भी दिन ऐसा नहीं गया होगा जब मैंने उनके पैर ना छुए हों।
बोर्ड एग्जाम हुए और मैं मैथ्स में फैल हो गया। इसका तो मुझे पहले से ही पता था। मैंने कंपार्टमेंट का एग्ज़ाम दिया और पास होकर 11वीं कक्षा में आ गया। सुनहरी लाल सर 10वीं तक के बच्चों को ही पढ़ाते थे। जिस समय उनकी जॉब लगी थी उस समय बीएड ज़रूरी नहीं हुआ करता था।
बस उस विषय में स्नातक किया हो जिसमें उनको टीचर बनना था। तब इतना कॉम्पटीशन भी नहीं था। बहरहाल, मैं 11वीं कक्षा में आ चुका था मगर उनके कर्कश ताने तब भी जारी थे। वो कहते थे,
मुल्लों में पढ़ाई का क्या फायदा, तुमको तो बच्चे पैदा करने होते हैं और फिर रेहड़ी लगानी। तू भी लटककर पास हुआ। बेटा बारहवीं कर ले बस। तेरे खानदान में कोई भी नही होगा 12वीं पास।
अब उनको क्या पता था कि मेरे दादाजी ने अंग्रेज़ों के ज़माने में ग्रेजुएशन किया था और आज भी हमारे पास उनकी मार्कशीट रखी है। मेरे नाना प्रतापगढ़ कोर्ट में वकील थे और मेरे मामा जज हैं। कुल मिलाकर सुनहरी लाल सर की बात का कोई भी आधार नहीं था।
उनके शब्द मुझे बार-बार चुभते थे। 12वीं कर ले वही बहुत है। मैंने 12वीं तो की साथ ही साथ हिन्दी में परास्नातक और बीएड, डिप्लोपा चाइल्ड एजुकेशन और परामर्श में शिक्षा हासिल की। इन सभी उपाधियों के बाद एक रोज मुझे सर मिले। वो अपने पोते को स्कूल छोड़ने जा रहे थे।
मैंने चरण स्पर्श किए और पूछा आप कैसे हैं? उनका यही सवाल था क्या कर रहे हो आजकल? उस समय मैं जामिया के सय्यद आबिद हुसैन स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्य कर रहा था। मैंने उनको अपनी सारी उपाधियों के बारे में बताया। मगर उनके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला। फिर हम दोनों आगे बढ़ गए।
ऐसे ही ना जाने कितने अध्यापक होंगे जो बच्चों को प्रताड़ित करते होंगे। मेरा मत और विचार यही है कि अगर आपको अपने देश को आगे की ओर बढ़ाना है, तो आपको बच्चों के अंदर ‘समानता’ का बीज बोना होगा। अन्यथा देश कभी भी टूटकर बिखर सकता है।
एक ऐसा भी पाठ्यक्रम हो जो सिर्फ और सिर्फ समानता की बात करे। जिसमें ना तो जातियों के नाम हों और ना किसी भी धर्म का ज़िक्र।
देश के मानव संसाधन विकास मंत्रालय से मेरा यह निवेदन है कि शिक्षा में समानता का एक बहुत ही मज़बूत और प्रभावशाली तंत्र होना चाहिए, तभी हम संविधान की रक्षा कर पाएंगे।