लंबी प्रतीक्षा के बाद सरकार ने पिछले हफ्ते 29 जुलाई, 2020 को आखिर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को मंजूरी दे दी। जून 2015 से ही नई शिक्षा नीति पर कार्य प्रारंभ हो गया था। सलाह मशवरा के अनेक दौर के बाद जून 2019 में ‘मसौदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019’ जनता के लिए जारी किया गया।
जनता से एक माह के भीतर अपने सुझाव देने के लिए कहा गया। पूर्ण मसौदा केवल हिन्दी और अंग्रेजी में ही जारी किया गया था और समय भी केवल एक माह (अवधि बढ़ाकर बाद में दो माह की गई थी) दिया गया था। फिर भी सरकार के आंकड़ों के अनुसार सवा दो लाख लोगों ने अपने सुझाव भेजे थे।
सरकार ने स्वीकृत अंतिम नीति में ज़रूर उन सुझाव पर विचार किया ही होगा लेकिन जो नीति आई है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि जनता ने ही शिक्षा क्षेत्र को पूरी तरह निजी हाथों में सौंपने का अधिकार सरकार को दे दिया है। ऐसा ही कहना होगा।
नई शिक्षा नीति में कुछ निर्णय अचंभित करने वाले हैं
‘मसौदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019’ के चिंतन से जो तथ्य उभरकर आए थे उनमें कुछ तो निहायत ही चौंकाने वाले थे। वहीं मुद्दे अंतिम राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की आत्मा बनकर उभरकर आए हैं।
मसौदे को लेकर पूरे देश भर में जो हाय तौबा मची थी उसके बावजूद यदि सरकार कहती है कि उसकी अंतिम स्वीकृत नीति जनता के सुझाव के अनुसार है, तो निश्चित ही जनता अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने में माहिर हो गई है।
मसौदे की आत्मा जो अब अंतिम शिक्षा नीति की भी आत्मा बनी है। उसके यह दस बिंदु हैं। इसके चपेट में आम जनता का विनाश निश्चित है।
- शिक्षा क्षेत्र में संस्थानों को पूर्ण वित्तीय स्वायत्तता – मुनाफाखोरी
- पाठ्यक्रम में पूर्ण स्वायत्तता – शिक्षा में भेदभाव
- निजी परोपकारी/ फिलन्थ्रोपिक संस्थाओं का पुरस्कार
- समाज सेवक – मार्गदर्शक लोगों की समांतर व्यवस्था
- शिक्षा देने के विभिन्न स्तर
- पाठ्यक्रम को भ्रांतिजनक बनाना
- संशयास्पद नए मॉडल का निर्माण करना
- छात्रवृत्ति को जटिल बनाना
- आरक्षण को समाप्त करना
- महिला शिक्षण की अनदेखी करना
इन दस मुद्दों पर हमने शिक्षण संघर्ष समन्वय समिति, नागपुर की ओर से मानव संसाधन विकास मंत्री और तमाम सांसदों को विस्तार से खत भेजा था। हिन्दी और अंग्रेज़ी के मसौदे पर अलग-अलग हिन्दी और अंग्रेज़ी में पत्र भेजे थे लेकिन किसी ने उसकी कोई सुध नहीं ली। हम अपना संघर्ष जनता की अदालत में जारी रखेंगे।
क्या जनता द्वारा दिए गए महत्वपूर्ण सुझाव को नज़रअदाज़ किया गया?
2019 के मसौदे के बाद सरकार ने उस पर आधारित दो और संक्षिप्त मसौदे जारी किए थे। उनमें एक का नाम था ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019-अंतिम’ और दूसरी थी ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 सर्कुलेशन के लिए’। इन दोनों में मूल 2019 के मसौदे की कुछ बातें थीं, कुछ नहीं। उनमें शब्दों का खेल, संकल्पनाओं की व्याख्या, यहां तक की “विज़न” की परिभाषा भी बदलती रही।
जो ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020’ सरकार ने मंज़ूर की है, वह उन सभी दस्तावेजों से अलग हैं लेकिन मूल आत्मा वही है, जो मसौदा 2019 में थी। केवल शब्दों का खेल बदल गया है।
सरकार ने बड़ी चालाकी से राम मंदिर शिलान्यास के एक हफ्ते पहले इसे मंज़ूरी दे दी। स्वीकृत नीति का पूरा प्रारूप मीडिया को देने के बजाय केवल जो लुभावनी बातें थीं, वही दी गई। हमेशा की तरह मीडिया ने गहराई में ना जाते हुए दो-तीन दिन उसे सिर पर लेकर नाचा।
अंत में राम मंदिर शिलान्यास की खबरों ने मीडिया को व्यस्त कर दिया। सरकार ने अब मंज़ूर नीति का मूल प्रारूप हिन्दी और अंग्रेजी में जारी कर दिया है। उसी के आधार पर यह विश्लेषण लिखा जा रहा है। यह अनेक लेखों की शृंखला में जारी रहेगा।
शिक्षा क्षेत्र में पूर्ण स्वायत्तता देना शिक्षा का गला घोंटना है
यहां हम शिक्षा क्षेत्र में संस्थानों को दी जाने वाली पूर्ण स्वायत्तता की बात करेंगे। यह स्वायत्तता पूर्ण आज़ादी, फीस निर्धारण, पाठ्यक्रम निर्धारण और आंतरिक प्रशासन को लेकर होगी। यानी कि शिक्षा संस्थान चलाने वाले मैनेजमेंट अब अपने तरीके से फीस लेंगे।
उनका अपना पाठ्यक्रम का चयन होगा और शिक्षकों की भर्ती इत्यादि में उन्हे पूरा स्वातंत्र्य रहेगा। ज़ाहिर है कि ऐसी स्वायत्त शिक्षण व्यवस्था में शिक्षा अत्याधिक महंगा होगी और आम आदमी की पहुंच से बाहर होगी लेकिन सरकार का दृढ़ विश्वास दिखता है कि केवल निजी संस्थान ही बेहतर शिक्षा दे सकते हैं।
एक तरफ 2019 के मसौदे से लेकर आगे मंज़ूर नीति दस्तावेज़ सभी में सरकार ने शिक्षा क्षेत्र के बाजारीकरण और मुनाफाखोरी की खूब निंदा की है, लेकिन जो नीति मंज़ूर की गई उस मे संस्थानों को फीस निर्धारण की पूरी छूट दे दी है। इसके बाद सरकार यह उम्मीद रखती है कि फिलन्थ्रोपिक निजी संस्थाएं जनकल्याणकारी रहेगी और लोगों का शोषण नहीं करेगी।
यह शिक्षा नीति जानबूझकर ‘सार्वजनिक-निजी-साझेदारी’ (public-private-partnership) इस शब्द का उपयोग टालती है। उसके बजाय बड़े पुरज़ोर तरीके से ‘सार्वजनिक-फिलन्थ्रोपिक-साझेदारी’ (public-philanthropic-partnership) का पुरस्कार करती है।
फिलन्थ्रोपिक संस्थाओं को लेकर इस नीति में जुनून भरा जोश है। मानो फिलन्थ्रोपिक संस्थाएं यानी सारे मर्ज़ की एक ही दवा हो। सरकार सोचती है कि फिलन्थ्रोपिक लोग हमेशा जनता के हित के ही काम करते हैं लेकिन सरकार की इस नीति में ऐसा कोई सुबूत नहीं दिया गया है कि फिलन्थ्रोपिक संस्थाओं को लेकर सरकार की सोच सही है।
असल बात तो यह है कि सभी फिलन्थ्रोपिक संस्थाएं या तो बड़े कॉरपोरेट घरानों की होती है या प्रस्थापित समाज के विशिष्ट लोगों की होती है। उनके अपने हितसंबंध होते हैं, उनकी अपनी सोच होती है, विचारधारा होती है। परोपकार के नाम पर सरकारी नीति-नियम को अपने फायदे के लिए प्रभावित करना, यह उनका मूल उद्देश्य होता है।
यह बात अफ्रीका विकासशील देशों में अनुसंधान में देखी गई है। उस अनुसंधान का निष्कर्ष यह कहता है,
“यह (फिलन्थ्रोपिक) मदत मूलभूत सुविधाओं में कुछ खास बदलाव तो नहीं लाती लेकिन वह संतुष्टि, भ्रष्टाचार, लाचारी को बढ़ावा देती है। उसमें दिखावे के (boutique) प्रकल्प होते हैं। उसके माध्यम से छुपा शोषण होता है और फिलन्थ्रोपिक संस्था के मालिक अपने कॉरपोरेट वजूद का दुरुपयोग अपनी कंपनी का मुनाफा बढ़ाने के लिए करते है।”
अब जरा इस शिक्षा नीति में फीस निर्धारण को लेकर क्या कहा गया है उसे देखते हैं। इसके प्रकरण तीन के तहत सरकार प्रस्ताव रखती है कि अधिक से अधिक बच्चे स्कूलों में दाखिल किए जा सके।
इसके लिए सभी प्रकार के स्कूल मॉडल विकसित करने पड़ेंगे, जिन में ‘सार्वजनिक-फिलन्थ्रोपिक-साझेदारी’ के मॉडल भी होंगे जो प्रकरण 8 के तहत नियमों, नियंत्रण के अधीन होंगे। इससे किसी को असहमत होने का कोई कारण नहीं है।
आखिर प्रकरण 8 क्या कहता है?
इसके अनुसार राज्यों के स्कूल शिक्षा विभाग जो शिक्षण संस्थाओं पर नियंत्रण रखते हैं, उनके पास सारे अधिकार केन्द्रित हो गए हैं। चूंकि वह सार्वजनिक स्कूल भी चलाते हैं निजी स्कूलों के साथ उनका ‘हितों का टकराव’ भी सामने आता है।
यह शिक्षा नीति राज्यों के स्कूल शिक्षा विभागों पर यह भी आरोप लगाती है कि वर्तमान नियामक व्यवस्था जहां एक तरफ लाभ के लिए खोले गए अधिकतर फॉर-प्रॉफिट निजी विद्यालयों द्वारा बड़े पैमाने पर हो रहे शिक्षा के व्यवसायीकरण और अभिभावकों के आर्थिक शोषण पर नियंत्रण नहीं कर सका है।
वहीं, दूसरी तरफ यह अक्सर ही अनजाने में सार्वजनिक हितों के लिए समर्पित निजी/परोपकारी स्कूलों को हतोस्ताहित करता है। सार्वजनिक और निजी स्कूलों के लिए आवश्यक नियामक दृष्टिकोण के बीच बहुत अधिक विषमता रही है, जबकि दोनों प्रकार के स्कूलों का लक्ष्य एक ही होना चाहिए “गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्रदान करना।” (पैरा 8.3, पृष्ठ 48)
इसलिए अब यह शिक्षा नीति राज्यों के स्कूल शिक्षा विभागों से स्कूलों के नियमन (नियंत्रण) के सारे अधिकार निकाल लेती है। यह व्यवस्था कहती है कि सभी स्कूल सेल्फ रेग्युलेशन के तहत स्वयं-शासित रहेंगे।
पैरा 8.5 (क) कहता है,“ स्कूली शिक्षा विभाग जो स्कूली शिक्षा में सर्वोच्च राज्य-स्तरीय निकाय है, सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली के निरंतर सुधार के लिए समग्र निगरानी और नीति निर्धारण के लिए ज़िम्मेदार होगा; यह सार्वजनिक स्कूलों के सुधार पर ध्यान केन्द्रित करने और हितों के टकराव को कम करने के लिए स्कूलों के प्रावधान और संचालन के साथ या स्कूलों के विनियमन में शामिल नहीं होगा।”
उसके लिए अब ‘राज्य विद्यालय मानक प्राधिकरण’ (एसएसएसए) नामक एक स्वतंत्र, राज्यव्यापी निकाय की स्थापना करेंगे। राज्य शिक्षा विभाग अब केवल समग्र निगरानी और नीति निर्धारण के लिए ज़िम्मेदार होगा।
तमाम सरकारी नियंत्रण के बावजूद यदि स्कूलों की मुनाफाखोरी को नहीं रोका जा सका, तो क्या सेल्फ रेग्युलेशन/स्वयं शासन से वह रोका जा सकेगा? क्या शिक्षण प्रणाली को भी, जो भारत की आने वाली कई पीढ़ियों को प्रभावित करेगी, शब्दों के जाल में उलझाकर रखना उचित होगा?
राज्य शिक्षा विभाग को निष्क्रिय करके उसकी जगह नया प्राधिकरण खड़ा करने के लिए शिक्षा विभाग पर यह भी गलत आरोप लगाया गया है कि ‘for-profit’ (मुनाफे के लिए) संस्थाएं शिक्षण विभाग में घुस आई जबकि सारे स्कूल/कॉलेज प्रबंधन धर्मदाय (charitable) संस्थाएं चलाती हैं, जो कि फिलन्थ्रोपिक संस्था ही होती है।
यदि वह अब मुनाफाखोरी करके पालकों का शोषण करती है (जो कि यह नीति स्पष्ट रूप से कहती है), तो आगे चलकर वह ऐसा नहीं करेंगे यह कैसे विश्वास करें?
इस शिक्षा नीति के अनुसार, ‘राज्य विद्यालय मानक प्राधिकरण’ (एसएसएसए) कुछ न्यूनतम मानक निर्धारित करेंगे जिसका फ्रेमवर्क शिक्षा के विभिन्न हितधारकों, विशेषकर शिक्षक और स्कूल के साथ परामर्श करके तय किए जाएंगे। ज़ाहिर है, इस शिक्षा नीति के अनुसार पालक और विद्यार्थी हितधारक कतई नहीं है।
उच्च शिक्षा में किए गए प्रावधान बेहद डरावने हैं
उच्च शिक्षा के बारे में इस शिक्षा नीति के प्रावधान आम जनता के लिए और भी विनाशकारी हैं। इस नीति का पैरा 18.14 कहता है कि परोपकार और जनहितैषी मंशा रखने वाले निजी उच्च शिक्षण संस्थानों को फीस निर्धारण के प्रगतिशील शासन के माध्यम से प्रोत्साहित किया जाएगा।
विभिन्न प्रकार के संस्थानों के लिए, उनके प्रत्यायन के आधार पर फीस की एक उच्चतम सीमा को तय करने के लिए एक पारदर्शी तंत्र विकसित किया जाएगा ताकि निजी संस्थानों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव ना पड़े।
शुल्क निर्धारण की यह व्यवस्था उच्च शिक्षा संस्थानों को अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों के निर्वहन के साथ कुछ हद तक निवेश की भरपाई सुनिश्चित करनी होगी।
इसके बाद सरकार इन उच्च शिक्षा संस्थानों से यह उम्मीद भी रखती है कि वह जितना संभव हो अधिक से अधिक विद्यार्थियों को फीस माफी दें, छात्रवृत्ति दें। ऐसा करते हुए वह अपने निवेश की वसूली भी करें? ऐसे में फीस माफी और छात्रवृति का खर्चा यह संस्थान किससे वसूल करेंगे?
ज़ाहिर है, उनसे जिन के लिए कोई फीस माफी नहीं होगी, छात्रवृत्ति नहीं होगी। इस बात को लेकर यदि आगे चलकर विद्यार्थियों में आक्रोश बढ़ता है, तो यह संस्थान फीस माफ करना और छात्रवृति देना ही बंद कर देंगे।
इस नीति में सरकार ने किसी भी स्तर पर, चाहे स्कूल हो या उच्च शिक्षा, विद्यार्थियों के पढ़ाई के खर्चे की ज़िम्मेदारी नहीं ली है। शिक्षा भी सभी किसी भी वस्तु की ही तरह बाज़ार से पैसा देकर खरीदने जैसी होगी। सरकार जीडीपी के 6% तक शिक्षा पर खर्च करने की बात तो कहती है लेकिन वह कब तक प्राप्त किया जाएगा इस पर कोई ठोस प्रतिबद्धता नहीं है।
क्या हैं इस नीति के आधार सिद्धान्त?
इस शिक्षा नीति के प्रारंभ में ही ‘इस नीति के आधार सिद्धान्त’ बताए गए हैं जो कि कुल 22 है। इनमें से किसी में भी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षण देने की सरकार की ज़िम्मेदारी के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। शिक्षा में सरकारी आर्थिक सहायता का अहम महत्व होता है जो छात्रवृत्ति के माध्यम से बच्चों को दिया जाता है।
राज्य स्तर पर अनेक प्रकार की छात्रवृत्ति दी जाती है। केंद्र सरकार भी देती है। इस नीति में कहा गया है कि सभी प्रकार की छात्रवृत्ति एकल खिड़की योजना के तहत दी जाएगी। इसके लिए ‘राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल’ को विस्तारित किया जाएगा। यह पोर्टल क्या है और कैसे काम करता है इसका इस नीति में कहीं कोई उल्लेख नहीं है, उसके विस्तार की बात ज़रूर की जा रही है।
ऐसे में, इस देश के अधिकांश लोग, बहुजन जिन्हें यह नीति एक नया ‘SEDG’ नाम देती है, महंगी होती शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। उनके लिए छुट-पुट कौशल विकास के कोई कोर्स रहेंगे जो कॉरपोरेट घरानों की फिलन्थ्रोपिक संस्थाएं चलाएगी लेकिन अधिकार के पदों पर पहुंचने के लिए ज़रूरी उच्च शिक्षा उनकी पहुंच के बाहर होगी और एक बार फिर वह प्रस्थापित वर्गों की गुलामी करने के लिए मज़बूर हो जाएंगे।
इस विनाशकारी शिक्षा नीति से हमारी जनसंख्या का एक बहुत बड़ा तबका लगभग 95% बच्चे और युवा और उनकी अगली अनेक पीढ़ियां अप्रासंगिक हो जाएंगी, जिससे देश की शांति, सुरक्षा और अखंडता को खतरा पैदा हो सकता है।
भेदभाव पूर्ण, पारंपरिक कौशल को किसी एक वर्ग के साथ हमेशा जोड़े रखने की हमारी सामाजिक व्यवस्था के कारण ही हमारा देश बाहरी आक्रमणकारियों के सामने टिक नहीं सका था और हम सदियों तक गुलाम बने रहे। तब भी हमारी समाज व्यवस्था ने उच्च शिक्षा को किसी एक वर्ग के लिए आरक्षित कर रखा था। उसे ही धर्म का चोला पहना दिया ताकि कोई उसका विरोध ही ना करें।
अब यदि राम राज्य ही शिक्षा नीति के रूप में दस-मुखी रावण जनता के सामने खड़ा करेगा, तो उससे इस राष्ट्र को कौन बचाएगा?
सरकार यदि दिल से मानती है कि देश की अखंडता के लिए शिक्षण उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि सीमाओं का संरक्षण, तो उने शिक्षा पर भी वैसे ही बेझिझक खर्च करना चाहिए जैसा रक्षा सौदों पर किया जाता है।