लॉकडाउन के दौरान लोगों को शुरुआत में काफी अच्छा लगा कि चलो भाई, अच्छा है कुछ दिन की पेड छुट्टी मिली। पुरुषों ने घर के कमरों में रखे सामानों से दो-चार होने के साथ ही रसोई घर का भी रुख किया और साथ ही खाना बनाने की ज़हमत भी उठाई। हालांकि उसके बाद उन्हें एहसास हो गया कि यह काम उनके बस का नहीं।
कुछ दिन सब अच्छा लगा। एक-दूसरे के साथ समय बिताना भी अच्छा लगने लगा लेकिन जब फ्रेंड ग्रुप पर, स्टूडेंट ग्रुप पर अथवा किसी ऑफिशियल वाट्सएप ग्रुप के पोस्ट पर नज़र पड़ती है, तो लगता है कि हकीकत और दिखावे में बहुत अन्तर है। सोशल मीडिया पोस्ट, स्टैटस सब पर घर-परिवार की फोटो शेयर करते हैं लेकिन बातों और विचारों से पता चल जाता है कि यह सब मिथ्या ही है शायद।
जैसे-जैसे दिन महीने में बदलते गए हकीकत से पर्दा भी उठ रहा है। अब जिन्हें शुरुआत में यह सब अच्छा लग रहा था उन्हें कैदखाना-सा लगने लगा है। जैसे वो अपने घर पर नहीं किसी और के मकान में रह रहे हों। सभी मोबाइल फोन में व्यस्त रहने लगे हैं। हालांकि व्यस्त तो पहले भी थे लेकिन अब कुछ ज़्यादा ही हैं।
तथाकथित खाना-खज़ाना जैसे एपिसोड यानी कुछ बनाना फोटो खींचना उसे सोशल मीडिया पर डालना भी कम होने लगा और धीरे-धीरे एक खास आयुवर्ग मुख्यतः युवा वर्ग में बाहर निकलने की बेचैनी भी बढ़ गई। उन्हें बोरियत का अनुभव होने लगा।
क्या कोई अपने ही घर पर अपने ही लोगों के बीच बोर भी हो सकता है, उनमें अपनापन क्या कम हो रहा है या दिखावटी रिश्ते ज़्यादा अहमियत रखने लगे हैं। उन्हें घर में रहना बंदिश लगता है? वैसे इनके उत्तर हम गरीब परिवारों, मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों, सैकड़ों किलोमीटर दूर से पैदल चलकर आने वाले प्रवासी मज़दूर लोगों से पूछेंगे, तो जवाब “ना” में ही मिलेगा।
फिर आज वो लोग जो संपन्न घरों में रहते हैं जिनके सर पर छत और थाली में भोजन आसानी से उपलब्ध है, उन्हें घर-परिवार की महत्ता नज़र क्यों नहीं आती? उनका शरीर तो घर पर है शायद मन बाहर ही टहल रहा है।
बाकी गृहणियों की तो बात ही अलग है, क्योंकि उनके लिए तो लॉकडाउन होना या ना होना एक समान है। हां, कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो मुस्कान की तरह उनके घर में चहल-पहल और रौनक ज़रूर लौट आई है।