कोरोना संक्रमण के बीच विश्वभर में उत्पन्न आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों के लिहाज़ से भारत की स्थिति भी अन्य देशों से कुछ बेहतर नहीं है। संक्रमण के बाद से चार चरणों में जारी लॉकडाउन की वजह से मध्यमवर्गीय परिवारों से लेकर वंचित तबकों तक की मुश्किलें तेज़ हो गई हैं।
तमाम सुख सुविधाओं से परिपूर्ण प्रिविलेज़्ड क्लास की दिनचर्या में भले ही सोशल डिस्टेंसिंग शब्द आसानी से शामिल हो जाए मगर वंचित तबकों के लिए यह शब्द परेशानियों का सबब बन रहा है। वंचित तबकों में एक तबका है सेक्स वर्कर्स की कम्यूनिटी, जिनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।
60 प्रतिशत से अधिक सेक्स वर्कर्स ने किया अपने राज्यों का रुख
ऑल इंडिया नेटवर्क ऑफ सेक्स वर्कर्स की अध्यक्ष कुसुम के मुताबिक, मुख्य रूप से दिल्ली के जीबी रोड की 60 प्रतिशत से अधिक सेक्स वर्कर्स आर्थिक तंगी के कारण अपने गृह राज्य के लिए निकल गई हैं।
गौरतलब है कि सरकारी आंकड़ों की मानें तो दिल्ली में रजिस्ट्रर्ड सेक्स वर्कर्स की संख्या पांच हज़ार है। ऐसे में अनुमान लगाया जाए तो लगभग 3000 सेक्स वर्कर्स अपने गृह राज्य लौट चुकी हैं।
अजमेर की सेक्स वर्कर सलमा की आंखें क्यों भर आईं?
अब यदि दिल्ली से सटे राजस्थान की बात की जाए तो अजमेर में कोरोना संक्रमण से पहले सेक्स वर्कर्स का व्यापार काफी अच्छा चल रहा था। अजमेर की सलमा से कुछ महीनों पहले हुई बातचीत के दौरान उन्होंने बताया था कि इस पेशे से इतना पैसा आ जाता है कि ज़िन्दगी आराम से कट जाती है। वहीं, लॉकडाउन के अंतिम चरणों के बाद आज जब सलमा से फिर बात हुई तो उनकी आंखें भर आईं।
वो कहती हैं, “मोदी सरकार ने सिर्फ एक दिन का जनता कर्फ्यू बोलकर अचानक से लॉकडाउन कर दिया। हमारी सेक्स वर्कर्स कम्यूनिटी को सामाजिक और आर्थिक तौर पर काफी संघर्ष करना पड़ रहा है। इस दौरान कुछ एचआईवी पॉज़िटिव महिलाएं दवाई तक नहीं खरीद पाईं।”
सलमा का कहना है कि उनकी कम्यूनिटी की कुछ सेक्स वर्कर्स अभी सब्ज़ियां बेच रही हैं मगर पुलिस वाले उन्हें गंदी-गंदी गालियां देकर उनकी सब्ज़ियों को फेंक देते हैं।
सलमा, ऑल इंडिया नेटवर्क ऑफ सेक्स वर्कर्स की सक्रिय सदस्य भी हैं जो अपनी कम्यूनिटी में माहवारी स्वच्छता प्रबंधन पर सराहनीय काम कर रही हैं। बहरहाल, लॉकडाउन के दिनों में कई रोज़ तो दो जून की रोटी भी उन्हें नसीब नहीं हुई।
सलमा कहती हैं, “बाल बच्चों की परवरिश करना बहुत मुश्किल हो गया है। कुछ सेक्स वर्कर्स ने स्वयं सहायता समूह के ज़रिये लोन लिया है मगर बैंक वाले लगातार फोन करके पैसा मांग रहे हैं।”
सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर सेक्स वर्कर्स के साथ होता है भेदभाव
अजमेर के रेड लाइट एरियाज़ में मसला सिर्फ आर्थिक हालातों से दो-चार होने भर का नहीं है, बल्कि सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर पूरी की पूरी सेक्स वर्कर्स कम्यूनिटी को टारगेट किया जा रहा है।
इस बारे में बात करते हुए सलमा कहती हैं, “लोग कह रहे हैं कि कोठों को बंद कर देना चाहिए तो कोरोना का संक्रमण खत्म हो जाएगा मगर भूख से जो मौतें होंगी उससे लिए कौन ज़िम्मेदार होगा? हमें घर बैठे भोजन मिल जाए तो हम सेक्स वर्क के लिए ग्राहकों को ढूंढना बंद कर देंगे।”
सवाल यह है कि सलमा की बातें आखिर नीति निर्माताओं के कानों तक पहुंचती क्यों नहीं हैं? क्या हमने सेक्स वर्क के पेशे को इतना नॉर्मलाइज़ कर दिया है कि उनकी परिशानियां दिखाई ही नहीं देतीं? मानव अधिकार की तमाम बातें आखिर किन फाइलों में धूल फांक रही हैं?
राशन और मकान किराये के लिए पैसे नहीं हैं
मानव अधिकार के दावे तब और खोखले हो जाते हैं जब अजमेर की ही एक अन्य सेक्स वर्कर रानी कहती हैं, “मेरे पति शराब पीते थे जो मुझे छोड़कर चले गए। तीन बच्चें हैं, दो लड़की और एक लड़का।”
वो आगे कहती हैं, “सेक्स वर्क का काम पूरी तरह से बंद है। हालात ऐसे हैं कि हम एक-एक पैसे के मोहताज हैं। मकान मालिक किराये के लिए भी परेशान कर रहा है। राशन पानी की भी दिक्कत आ रही है।”
सेक्स वर्कर की मदद करने वाला कोई नहीं!
वहीं, शाहीन कहती हैं, “हर आदमी हर किसी की मदद करता है मगर सेक्स वर्कर की मदद कोई नहीं करता है। हालात ऐसे हो गए हैं कि लॉकडाउन खुल भी गया मगर ग्राहक अभी कोरोनो के डर से नहीं आ रहे हैं।”
पारो कहती हैं, “मेरे पति ने मुझे छोड़ दिया और मैं अपने मामा के घर रहती हूं। मेरी मामी विधवा है। वो मेड का काम करती हैं मगर लॉकडाउन के कारण बेरेज़गार हैं। मेरी कमाई से घर चलता था मगर अब मैं भी बेरोज़गार हूं। मकान मालिक परेशान कर रहा है।”
राशन बांटने के नाम पर होता है भ्रष्टाचार
चांदनी बताती हैं, “बचपन में माँ-बाप गुज़र गए तब उतना दुख नहीं हुआ मुझे जितना दुख अभी लॉकडाउन के दिनों में हुआ। क्योंकि तब मैं कभी भी मेड का काम करके पेट भर लेती थी। जब से सेक्स वर्क के पेशे में आई तो भी दुख नहीं हुआ। अब लॉकडाउन के कारण मेरी रोज़ी-रोटी चली गई।”
चांदनी कहती हैं, “चलिए मान लेते हैं कि लॉकडाउन के बाद हमारी जान बचा जाएगी मगर धंधा बंद होने पर जिस तरह से हमारी जीविका खतरे में है, उसका क्या? लोग 10 लोगों को राशन बांट देते हैं और लिस्ट में 150 लोगों का नाम डाल देते हैं। चार पूरी और रत्ती भर दाल हमें दिया जाता था। क्या इससे पेट की आग मिट जाएगी?”
सलमा के मुताबिक, CFAR (The Centre for Advocacy and Research) नामक संस्था ने उन्हें लॉकडाउन के दौरान लगभग 15 दिनों तक राशन दिया था मगर डेढ़ महीने तक उनकी तकलीफों को सुनने वाला कोई नहीं था। वो कहती हैं कि सिलसिला अब भी बदस्तुर जारी है।
सवाल यह है कि कोरोना महामारी के बीच देश की राजधानी दिल्ली और दिल्ली से सटे पड़ोसी राज्य राजस्थान की सेक्स वर्कर्स जब इन हालातों में हैं, तो ज़ाहिर तौर पर भारत की 6,37,500 सेक्स वर्कर्स की स्थिति क्या होगी, यह समझ से परे है।