आइंस्टीन ने महात्मा गाँधी के बारे में कहा था, “आने वाली नस्लें शायद ही यकीन करें कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी इस धरती पर चलता-फिरता था।”
ज़िक्र बापू का किया जा रहा है। सत्य और अहिंसा के सबसे बड़े पुजारी गाँधी जी को इस दुनिया से विदा लिए 72 साल हो गए हैं। गाँधी जी के विचार ऐसे हैं, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक एवं अनुकरणीय हैं जितने अपने समय में थे।
अगर हम पिछले कुछ समय में घटित देश के घटनाक्रमों पर ही नज़र डालते हैं, तो राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और गौरक्षा जैसे मसले पटल पर दिखाई पड़ते हैं। इन सारे मसलों पर गाँधी जी और उनके विचार हमारे लिए आज भी पथ-प्रदर्शक का कार्य कर सकते हैं। यही नहीं, उनके माध्यम से स्थिति को संतुलित किया जा सकता है।
आज के परिदृश्य में बापू के विचार
राष्ट्रीयता के बारे में गाँधी जी के विचारों को देखने पर स्पष्ट रूप से पाएंगे कि गाँधी जी का राष्ट्रीयतावाद का विचार राष्ट्रीयतावाद के पारंपरिक विचार से मेल नहीं खाता है। अपनी किताब “हिंद स्वराज” में गाँधी जी लिखते हैं,
हकीकत में यहां इतने ही धर्म हैं जितने कि अलग-अलग लोग हैं परंतु वह जो राष्ट्रीयता की भावना को समझते हैं वह एक दूसरे के धर्मों में दखलअंदाज़ी नहीं करते। दुनिया के किसी भी कोने में राष्ट्रीयता और धर्म एक नहीं हैं और न ही भारत में यह कभी रहा है।
उनकी राष्ट्रीयता भारत के आध्यात्मिक मूल्यों से मज़बूती से जुड़ी होने के साथ-साथ बाहर के प्रभावों के लिए स्वयं को खुला छोड़ देती है। निष्कर्षतः राष्ट्रीयता संबंधित गाँधी जी की अवधारणा सर्व-समष्टिवादी है।
सांप्रदायिक एकता पर गाँधी जी के विचार
सांप्रदायिक एकता पर गाँधी जी के विचार अत्यंत व्यावहारिक व प्रभावी हैं। वह ‘एक धर्म एक राज्य’ वाले सिद्धांत पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहते हैं, “संसार के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्रीयता और एक धर्म एक समान नहीं हैं, ना ही भारत में कभी इस प्रकार रहे हैं।”
गाँधी जी इस तथ्य पर बल देते हैं कि दोनों संप्रदायों के अच्छे संबंध तभी बन सकते हैं, जब दोनों ही पक्ष एक-दूसरे के धर्म को समझने का सच्चा प्रयास करेंगे। जो चीज़ों को गलत ढंग से समझना नहीं चाहते, उन्हें परस्पर कुरान और भगवद्गीता पढ़ना चाहिए। इस प्रकार गाँधी जी एक-दूसरे के धर्म को समझते हुए और उसका सम्मान कर परस्पर मिल-जुलकर रहने की सीख देते हैं।
गौरक्षा के मसले पर बापू की सोच
वह गौरक्षा के मसले को भी उठाते हैं, जो दोनों संप्रदायों के बीच शत्रुता का कारण रहा है। जो कभी-कभी हिंसक भी होता रहा है। वह रातों-रात उग आई गौ-सुरक्षा समितियों या संस्थाओं की आलोचना करने में भी नहीं चूके, क्योंकि इन संस्थाओं ने कभी भी गायों की पूरी तरह देखभाल नहीं की जब वे जीवित थीं।
उन्होंने हिंदुओं को यह सलाह दी थी कि वे अपने मुसलमान भाइयों को अपने धर्म में गाय के महत्व के बारे में समझाने का प्रयास करें और उन्हें समझाएं कि वे इसका वध ना करें।
गाँधी जी ‘हिंद स्वराज’ में लिखते हैं, “अगर मेरे अंदर गायों के लिए दया की भावना है, तो मैं उसे बचाने के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा मगर अपने भाई की जान नहीं लूंगा।”
स्वदेशी और स्वराज की अवधारणा के पक्षधर थे बापू
वर्तमान विश्व में घोर पूंजीवाद और उपभोक्तावाद अपने चरम पर है, जिसके कारण बेरोज़गारी, प्रदूषण, धन का संकेंद्रण और आर्थिक असमानता में वृद्धि जैसी समस्याएं पैदा हो रही हैं। आज से लगभग सौ साल पहले गाँधी जी ने कहा था कि हमारी धरती पर प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता के लिए तो बहुत कुछ है मगर किसी के लालच के लिए कुछ नहीं। यह उक्ति आज के वैश्विक समाज के लिए कितनी ही प्रासंगिक है!
गाँधी जी “स्वदेशी और स्वराज” की अवधारणा के पक्षधर थे। वह विकेंद्रीकृत उद्योगों का समर्थन करते थे, क्योंकि उनका मानना था कि विकेंद्रीकृत उद्योगों में शोषण ना के बराबर होगा। वहीं, उन्होंने “ग्राम” को प्रशासन की इकाई माना और “ग्राम स्वराज” की कल्पना की।
उनका मानना था कि ग्राम स्वराज से लोगों के सशक्तिकरण और लोकतंत्र में उनकी भागीदारी में इज़ाफा होगा। गाँधी जी लिखते हैं, “ग्राम-स्वराज्य की मेरी कल्पना यह है कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी महत्वपूर्ण ज़रूरतों के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा। फिर भी बहुत सी दूसरी ज़रूरतों के लिए, जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा, वह परस्पर सहयोग से काम लेगा।”
पिछ्ली सदी में नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, मदर टेरेसा, मार्टिन लूथर किंग (जू.), आंग सान सू की आदि ऐसे लोग हैं, जिन्होंने गाँधी जी की विचारधारा का उपयोग किया और सफल भी हुए। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि अपनी मृत्यु के 72 सालों बाद भी गाँधी जी और उनके विचारों का अप्रासंगिक होना तो दूर की बात है। जो कुछ मामलों में विकट स्थिति का एकमात्र विकल्प बन चुका है। जिसका सामना आज समूचा देश और विश्व कर रहा है।