प्रकाश झा की फिल्म “परीक्षा” Zee5 पर रिलीज हुई है। यह फिल्म बेहद इमोशनल और सच्ची घटना पर आधारित कही जा रही है। फिल्म मुख्य रूप से यह संदेश देना चाहती है कि अगर आपके अंदर काबिलियत है, तो फिर आपको आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता है।
वास्तविकता में यह कहानी कभी-कभी समाज में घटती हुई दिखती भी है जब सोशल मीडिया पर इस तरह की खबरें अचानक वायरल होने लगती हैं। इस बार के यूपीएससी के टॉपर प्रदीप कुमार के पिता भी पट्रोल पंप में काम करते थे लेकिन उन्होंने अपने बच्चे के साथ एक सपना देखा और वह सपना साकार भी हुआ।
सामाजिक और आर्थिक कमज़ोरी बनती है गरीब बच्चों के उत्थान में एक रोड़ा
पैसे की कमी, मजबूरी और सोशल स्टेटस गरीब बच्चों के उत्थान में रोड़ा डालते हैं यह एक सामाजिक सच्चाई है। इससे आसानी से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। इसी समाजिक सच्चाई की अंधेरी तंग गलियों को चीरकर कोई-ना-कोई निकलता है और अपनी प्रतिभा साबित करता है यह भी एक कठोर सत्य है।
प्रकाश झा ने इस फिल्म से एक और सच्चाई से रूबरू कराने की कोशिश की है। जिसपर बहस होनी चाहिए। वह सच्चाई यह है कि एक पिता किसी भी हाल में अपने बेटे को पढ़ाना चाहता है, वह भी इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिला दिलाकर।
इसके ज़रिए वह उसे समाज के बड़े तबके के बच्चों के बीच में खड़ा करने के साथ ही अपने आप को गरीबी के दलदल से भी बाहर निकालना चाहता है। वह यह जानता है कि शिक्षा ही वह ज़रिया है जिससे आर्थिक स्थिति सुधर सकती है और समाज में एक पहचान भी बन सकती है लेकिन वह शिक्षा सरकारी स्कूल के हिंदी मीडियम वाली नहीं प्राइवेट स्कूल की अंग्रेज़ी वाली ही होनी चाहिए।
हाल ही में आई शिक्षा नीति पर फिल्म खड़े करती है सवाल
मज़ेदार बात यह है कि यह फिल्म तब रिलीज़ हुई है जब एक हफ्ते पहले ही भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति की घोषणा की है। जिसमें मातृभाषा और स्थानीय भाषाओं में शिक्षा पर बहुत अधिक ज़ोर दिया गया है।
सरकार को ही नहीं कई बड़े शिक्षाविदों और जानकारों को भी लगता है कि मातृभाषा और स्थानीय भाषाओं में शिक्षा से ही बच्चों के अंदर बेहतर विकास हो सकता है। फिर प्रकाश झा के फिल्म के पात्र को यह क्यों नहीं लगता है कि उसका बेटा सरकारी स्कूल में हिंदी मीडियम में पढ़कर ही अच्छा कर सकता है, यह बात उसको समझाने की कोशिश आईपीएस कैलाश आनंद भी करते हैं।
हम सब जानते हैं कि वास्तविक सच्चाई ही यही है कि मातृभाषा और स्थानीय भाषाओं में अपनी पढ़ाई करने से सफलता और रोज़गार दोनों के ही रास्ते सीमित है। फिर सरकार देश के बड़े बच्चों के समुदाय को जिनके पास आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ सामाजिक चुनौतियां भी है उनकी सफलता और रोज़गार का रास्ता क्यों रोकना चाहती है?
वह इस तरह की नीतियों को प्रोत्साहित ही क्यों कर रही है जो बच्चों को अवसरों से दूर ढ़केल देगी। क्या सरकार के पास बुच्ची पासवान जैसे निम्न मध्यवर्ग या कम आय वाले अभिभावकों को समझाने का कोई तंत्र है? जिससे उनको यह समझा सके कि उनके बच्चों का भविष्य स्थानीय या मातृभाषा में पढ़कर ही है। स्पष्ट बात तो यह है कि भाषाओं के मकड़जाल में फंसाकर यह बच्चों को उनके अवसरों से दूर करने की साजिश से ज़्यादा कुछ नहीं है।
अंग्रेज़ी भाषा को लेकर सालों से चल रही है बहस
आज उत्तर भारत में एक लंबी फौज उन युवाओं की है जो अंग्रेज़ी भाषा के साथ उतने सजह नहीं है, जितने अपने स्थानीय और मातृभाषा के साथ। स्थानीय और मातृभाषा में रोज़गार और अवसर के विकल्प उनके पास नहीं हैं।
वह या तो अंग्रेज़ी भाषा से दूरी बनाकर अपने करियर को संवारने की कोशिश करते हैं या फिर उस भाषा को सीखकर अपने करियर को संवारने की कोशिश करते हैं। ऐसे में, फिर देश के सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में मातृभाषा और स्थानीय भाषा के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा में भी पढ़ाई क्यों नहीं होनी चाहिए?
जिससे फिर किसी बुच्ची पासवान को अपने बच्चे बुलबुल को अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ाने के लिए रिक्शा चलाने के साथ-साथ चोरी करके जेल ना जाना पड़े। सरकारें और समाज प्राइवेट और सरकारी स्कूल के बीच में असमानता की खाई को पाटने के लिए कोई व्यवहारिक नीति क्यों नहीं लाना चाहती है?
क्या इसलिए क्योंकि सरकार भी जानती है कि शिक्षा प्राप्त कर लेने से कोई भी अपनी सामाजिक और आर्थिक हैसियत को बदल सकता है, इसलिए शिक्षा मुनाफा कमाने का बाज़ार बन सकता है। शिक्षा को सरकार की प्राथमिक ज़िम्मेदारी बना देने से सरकार मुनाफा नहीं कमा सकती है।
यही वजह है कि मौजूदा शिक्षा नीति में विदेशी निवेश के दरवाजों को खोल दिया गया है। साथ ही सरकारी शिक्षा के पूरे तंत्र को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया गया है। इस परिदृश्य में अगर बुच्ची पासवान यह सोचता है कि प्राइवेट स्कूल में पढ़कर ही बुलबुल अपने सामाजिक और आर्थिक स्थिति को बदल सकता है, तो वह कुछ भी गलत नहीं सोचता है।