भारत सरकार द्वारा कश्मीर से धारा 370 को हटाए हुए एक साल हो गया है। कई मायनों में यह एक एतिहासिक कदम था। यह कदम सही था या गलत, इसको लेकर मतभेद हो सकते हैं लेकिन इसके परिणाम आने वाले वक्त में देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण और गंभीर होने वाले हैं।
मेरे अधिकतर भारतीय दोस्तों को भारत सरकार का यह कदम सही लगता है लेकिन कश्मीर में रहने वाले मेरे दोस्तों से जब मेरी बात होती है, तो उनमें मुझे गुस्सा, निराशा और बेबसी नज़र आती है।
सेनाबल और सत्ता के दुरुपयोग से भारत सरकार ने कश्मीर की ज़मीन को जीत तो लिया है लेकिन कश्मीरी लोगों का दिल हार गए हैं। हम हिंदुस्तानी कश्मीर से प्यार तो करते हैं, पर कश्मीरियों से नफरत।
कश्मीर, तुम यक़ीन मानो,
भारत तुम्हे बहुत प्यार करता है!
प्यार, जैसा बिट्टु करता था मुनिया से,
इतना प्यार की जब मुनिया नहीं मानी,
तो बिट्टु को मज़बूरन उसपर तेज़ाब फेंकना पड़ा।
प्यार, जैसे पूरे चौधरी खानदान को अपनी बिटिया मिंटी से था,
लेकिन जब मिंटी ने कॉलेज में साथ पढ़ने वाले अरविंद पासवान से शादी की,
बेचारे चौधरी साहब को अपने प्यार की खातिर,
मिंटी और अरविंद दोनों को मरवाना पड़ा।
प्यार, जैसे शर्मा जी अपनी मिसेज से करते हैं,
बिस्तर पर, मिसेज की मर्ज़ी के बिना भी, रोज़ रात।
तुम समझ नहीं रहे हो कश्मीर,
भारत तुम्हे बहुत प्यार करता है!
-(एक मित्र की दर्दभरे दिल से)
कश्मीरी आवाम के दर्द का क्यों नहीं समझते लोग?
इसके फलस्वरूप भारत के लोगों को कश्मीरियों के हाथों में पत्थर तो दिख जाते हैं, उन पत्थरों की चोटों के निशान सेना पर भी दिख जाते हैं लेकिन उन पत्थरों का क्या जो भारत और पाकिस्तान के हुक्मरान और आवाम सालों से कश्मीरियों के दिलों पर मार रहे हैं।
उन पथराई हुई आंखो को कोई नहीं देखता जिनका पानी अमन की गुमनाम आशा में सूख चुका है। आज कश्मीरी युवाओं के हाथों में पत्थर इसलिए है, क्योंकि उनके दिल पत्थर हो गए हैं। क्योंकि हमने आज़ादी के बाद से उन्हें सिर्फ और सिर्फ धोखा ही दिया है।
कश्मीर और कश्मीरियत प्रेम का दूसरा नाम है लेकिन हमने हर वो काम किया है जो इस प्रेम को नफरत और गुस्से में बदल रहा है। हमने ही सालों पहले अपनी नीतियों की वजह से उन लकीरों को खींचा था, उन दीवारों को बनाया था जिनसे कश्मीरी पंडित और कश्मीरी मुसलमानों के बीच दूरिया उत्पन्न हुई थी।
मैं अपने कई कश्मीरी पंडित और कश्मीरी मुसलमान दोस्तों के हवाले से यह कह सकता हूं कि कई सालों से वे इन दूरियों को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। इन लकीरों को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन हमारा राजनीतिक स्वार्थ और छद्म राष्ट्रवाद उनकी हर कोशिश अपनी ताकत से नाकाम कर देता है।
सिपाही इनको सीधा करता रहता हैं
शायर इन्हें पेंचीदा
कलाकार को इनकी गोलाई में सुकून मिलता हैं
वैज्ञानिक ढूंढता है इनमें नतीजा
मुसाफ़िर इनमें रास्ता पा जाता है
राजाओं की दाढ़ी इन्हें खींचने में सफेद हो जाती हैं
और परिंदा, वो मासूम तो इन्हें देख भी नहीं पता
हवा को भी कहां रोक पाती हैं ये?
एक इंसान ही हैं ,जो इन्हें देख कर है लौट जाता
देखा हैं इन्होने रिसते खून को इंसान के शरीर से
सुनी हैं मरती इंसानियत की चीखें
पहचानती हैं, सूखे काले खून की महक को
पर बड़ी हठी हैं, हटती ही नहीं अपनी जगह से
लाख कोशिश करी हैं मिटाने की, मिटती ही नहीं
सुनती ही नहीं किसी की,
बड़ी बदतमीज़ हैं!
ये लकीरें हैं, ये लकीरें हैं…
-(अमन की आशा में- एक कवि)
भारत की वर्तमान सरकार के प्रति आज हर कश्मीरी युवा में एक उग्र कड़वाहट भरी हुई है और वो वक्त दूर नहीं है, जब यह कड़वाहट नफरत में बदल जाएगी। जिस दिन यह होगा मेरा यकीन मानिए उस दिन भारत कश्मीर को पूरी तरह खो चुका होगा।
भारत आज इज़राइल की राह पर चल रहा है। इस राह पर चलकर मासूम और बेबस आवाम को कत्लेआम, सुर्ख लाल खून से सनी नदियां, सड़कों पर लाशों के ढेर के आलवा कुछ नहीं मिलने वाला है। इसके ज़िम्मेदार हम सब होंगे। दोस्तों, मैं आप से पूछना चाहता हूं कि क्या यह मंज़र हम अपने आस-पास, अपने शहर, अपने मौहल्ले की गलियों में देखना चाहते हैं?
अगर आपका जवाब ‘नहीं’ है, तो हम क्यों यह मंज़र कश्मीर में देखना चाहते हैं? हमने आज हमारा रास्ता नहीं बदला, तो हमारे पूर्वजों के गुनाहों की सज़ा हमें भुगतनी होगी। अभी भी वक़्त है, हम चाहे तो लम्हों की खता की सज़ा सदियों को नहीं मिलेगी।
खुशहाल ज़िंदगी चाहते हैं कश्मीर के लोग
इंसानियत तभी तक ज़िंदा है, जब तक प्रेम ज़िंदा है। मेरी मेरे मित्रों से गुजारिश है कि अपने दिलों के अंदर इस प्रेम को मरने मत दीजिए। अपने कश्मीरी साथियों के दर्द को समझिए जो सालों से हिंसा का दंश झेल रहे हैं। जिनकी ज़िंदगी बलि के बकरे जैसी हो गई है। वो बस इंतज़ार कर रहें हैं कि उसे हिन्दुस्तान काटेगा या पाकिस्तान।
यकीन मानिए कश्मीरी आवाम की भारत के प्रति कड़वाहट का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि वे पाकिस्तान से प्रेम करते हैं। वे अमन चाहते है, एक आम और खुशहाल ज़िंदगी चाहते हैं।
बिलकुल वैसी ही जैसी ज़िंदगी आप और मैं अपने लिए चाहते हैं। कश्मीरी लोगों की कड़वाहट को पाकिस्तान प्रेम से जोड़कर दिखाना सिर्फ एक राजनीतिक चाल है। कश्मीरी लोग प्रेम, सम्मान और अपनापन चाहते हैं। क्या हम राजनीति से परे हटकर उन्हें यह दे सकते हैं? क्या हम उनके लिए वही दुआएं कर सकते है जो हम अपने लिए करते हैं?