शिक्षा नीति 2020 भारतीय भाषाओं के बारे में वे समस्त अच्छे सुझाव देती हैं जिन्हें भाषाविद्, मनोवैज्ञानिक, संस्कृति के अध्येता, समाज वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री आवश्यक मानते हैं।
प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक भारतीय भाषाओं का शिक्षण, भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षण, भाषा समस्या का रामबाण समझे जाने वाले त्रिभाषा सूत्र का क्रियान्वयन, भारतीय भाषाओं के माध्यम से भारतीय ज्ञान परंपरा और लोकज्ञान की प्रतिष्ठा जैसे सुझाव इसके उदाहरण हैं।
इन सुझावों से एक उम्मीद बंधती है कि शिक्षा के माध्यम से भाषा की शिक्षा और भाषा द्वारा सीखने की दशा में महत्वपूर्ण सुधार होंगे। शिक्षा नीति 2020 में भाषा की भूमिका को संस्कृति, ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था और शिक्षण के संदर्भ में देखा गया है।
इन भूमिकाओं का लक्ष्य भारतीय भाषाओं को ताकतवर बनाना है, जिसकी घोषणा नीति के मूलभूत सिद्धान्त में भी है। इस लेख में शिक्षा नीति 2020 में प्रस्तुत ‘भाषा की ताकत’ परिकल्पना को समझने की कोशिश की गई है।
परिकल्पना ‘भाषा की ताकत’
इस नीति में भारतीय भाषाओं की विविधता का सम्मान करते हुए उन्हें संवर्धित करने का लक्ष्य रखा गया है। बिना कहे ही पाठक को समझ में आता है कि भारतीय भाषाओं को मज़बूत करने का यह प्रयत्न सापेक्षिक है। इसके मूल में अंग्रेज़ी के स्थान पर शिक्षा में भारतीय भाषाओं के उपयोग को बढ़ावा देने का उद्देश्य है।
यहां नीति निर्माता इस दूरगामी परिकल्पना के साथ चलते हैं कि जब औपचारिक शिक्षा में भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षण और शोध होंगे तो ये भाषाएं ताकतवर हो जाएगीं। यह विचार इस मान्यता पर आधारित है कि शिक्षा द्वारा आप समाज में अपेक्षित बदलाव ला सकते हैं। यूं तो यह मान्यता लुभावनी है लेकिन तमाम समाज वैज्ञानिक सिद्धान्तों की तरह कई बार विफल हो जाती है।
जब ‘विवेकवान’ और ‘उपभोक्ता’ मनुष्य लाभ के लिए प्रयत्न करता है तो बदलाव का कर्ता बनने के स्थान पर वह तात्कालिक दृष्टि से मिलने वाले लाभ से संतुष्ट होता है। इस स्थिति में अंग्रेज़ी की तात्कालिक लाभ देने की ताकत किसी से छुपी नहीं है। इस दशा में सवाल उठता है कि भाषा अपनी ताकत को कहां और कैसे दिखाती है?
रोज़मर्रा के व्यवहार और बाचतीत में भाषा की समस्या नहीं है। वहां तो व्यक्ति अपनी बोली, वाणी या संपर्क भाषा से काम चला लेता है। बोलने वालों की संख्या के आधार पर भाषा को संख्या बल मिलता है लेकिन यह संख्या बल भी ताकत नहीं दे पाता है।
जो भाषाएं ताकतवरों द्वारा उपयोग की जाती हैं, वे संख्या में कम होने के बावजू़ूद भी शक्ति रखती हैं। ऐसे ताकतवर वही होते हैं, जो सत्ता और अर्थव्यवस्था के संचालक होते हैं। ऐसे ‘उदारवादी’ संचालक आदर्शों को स्वीकार करने में हिचकिचाते नहीं है, क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि जनता आदर्श की ओर बढ़ने के स्थान पर वास्तविक परिस्थितियों में तत्कालीन लाभ के महत्व से भली भांति परिचित है।
यही कारण है कि 74 वर्षों से भारतीय भाषाएं शिक्षा समेत अन्य व्यवहार के क्षेत्रों में खड़े होने का संघर्ष कर रही हैं। जबकि अंग्रेज़ी हर उस स्थान पर मज़बूती से खड़ी है, जो ताकत के प्रतीक हैं। जैसे- राजनीति, अर्थव्यवस्था और न्यायपालिका।
वर्तमान समय में भारतीय भाषाएं संघर्ष करती नज़र आती हैं
यह स्थिति तब है जबकि हर क्षेत्र में भारतीय भाषाओं के विकास के लिए अनेक राजकीय संस्थाएं, अनुदान और अन्य सहयोग उपस्थित हैं। इसके दो निहितार्थ हैं। प्रथम, भारतीय भाषाओं को विकसित करने के लिए संस्थान खोलने और अनुदान देने की नीति व सुझाव न्यूनतम कारगर रहे हैं।
द्वितीय, भाषा की ताकत संबंधित उक्त वास्तविकता से आम आदमी परिचित है। अतः उसके बच्चे किस भाषा के माध्यम से पढ़ेंगे इसका निर्णय भावनात्मक आधार या दूरगामी राष्ट्रीय और सामाजिक हितों के आधार पर ना लेकर बच्चे को ताकतवर बनाने के लिए लेता है। उसका निर्णय ताकतवर भाषा की ओर झुका होता है।
ताकतवर भाषा अन्य भाषाओं के चलन को सीमित करती जाती हैं। वह धीरे-धीरे सांस्कृतिक दायरे में अपने हस्तक्षेप को बढ़ाती है। व्यक्ति को उसके लोक से दूर ले जाती है। समाज से रिश्ते को कमज़ोर करती है। व्यक्ति इन प्रवृत्तियों के बारे में चितिंत होने के स्थान पर ‘आधुनिकता’ के नाम पर इन्हें बदलाव की शर्त मान लेता है। इस तरह के हस्तक्षेप का मुकाबला केवल शिक्षा द्वारा नहीं किया जा सकता है।
इसके लिए शिक्षण संस्थानों के बाहर की दुनिया में हमें भारतीय भाषाओं को मज़बूत करने पर विचार करना होगा। इसके बिना भारतीय भाषाओं की समस्या स्थाई रहेगी। उसके समाधान केवल वह नीतिगत दस्तावेज़ में परिलक्षित होंगे। भाषा को संस्कृति की विरासत और माध्यम बनाने का तर्क भावना को जगाता है लेकिन भावना के ऊपर उपयोगितावाद का विवेक हावी रहता है।
इसका अंत ‘चाहिए’ के अर्थ में होता है। हम अपनी भाषाओं को पढ़ने की ‘चाह’ को सुखद भविष्य के लिए त्यागने का हर रास्ता खोज लेते हैं। कहीं यह नीति भी हमें इसी मार्ग पर ना ले जाए!
इस नीति में ज्ञान आधारिक अर्थव्यवस्था और 21वीं सदी के कौशलों का बार-बार उल्लेख किया गया है। इन्हें एक सार्वभौमिक अनिवार्यता के रूप में स्वीकृत किया गया है। ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था ने लाभ कमाने के लिए स्थानीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर से अनेक दरवाज़े खोल रखे हैं। हां, यह बात अलग है कि हर दरवाज़ा बराबर नहीं है। उसमें ऊंच-नीच है।
इसमें बड़ी कंपनियों की मोटी तनख्वाह वाले सी.ई.ओ. हैं, तो कामचलाऊ वेतन वाले एजेंट और ग्राहक सेवा अधिकारी भी! प्रथम श्रेणी की नौकरियों में भारतीय भाषाओं की वर्तमान और भावी भूमिका के बारे में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। सरकारी क्षेत्र में सिविल सेवा हो या निजी क्षेत्र में प्रबंधन आदि से जुड़ी सेवाएं हों, वहां भारतीय भाषाओं की उपस्थिति नाममात्र की है।
यहां गाँव के ग्राहक को उत्पाद बेचने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में ग्राहक सेवा अधिकारी की सेवाएं जरूर हैं। अब देखना है कि इस ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में भारतीय भाषाओं का भविष्य क्या होगा। इस व्यवस्था की वास्तविकता का एक उदाहरण देखिए।
आपने कई विद्वानों के भाषणों में सुना होगा कि संस्कृत या भारतीय भाषाएं ज्ञान से समृद्ध हैं लेकिन उन्हें आती नहीं है। ऐसे उद्धरण सिद्ध करते हैं कि ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में बाज़ार की ताकत परंपरा और संस्कृति बोध से बड़ी है। इसी कारण अपनी भाषा का महत्व जानते हुए भी फैसला उसके खिलाफ लिया जाता है।
शिक्षा नीति 2020 के सामने सवाल है कि वो ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के मुहावरे में भारतीय भाषाओं को पहले दर्जे़ पर कैसे ले जाती है? अन्यथा भारतीय भाषाओं के ग्राहक सेवा अधिकारी जैसी यांत्रिक सेवाओं से उनका काम चलता रहेगा।
भाषा और शिक्षण नीति
भाषा और शिक्षण को लेकर इस नीति का पाठ करते हुए मातृभाषा में शिक्षण का सुझाव उत्साह पैदा करता है। इस सुझाव की पूर्ति केवल विद्यालयी शिक्षण से संभव नहीं है। हर बार हम इसी रास्ते को चुनते हैं जबकि सच्चाई है कि किताबों को तैयार करने से लेकर कक्षा में कैसे पढ़ाया जाए इसमें विश्वविद्यालय, अध्यापक और शिक्षण संस्थानों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
इन संस्थानों में भारतीय भाषाएं कमज़ोर हैं। हमारे यहां स्कूल की किताबें या अन्य पाठ्य सामग्रियों को पहले अंग्रेज़ी में तैयार किया जाता है। फिर तैयार सामग्री का अंग्रेज़ी से भारतीय भाषाओं में अनुवाद होता है। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तकों का उदाहरण देख सकते हैं।
यदि इसी तरह से भारतीय भाषाओं को मज़बूत करने के प्रयत्न होंगे तो इससे स्थापित होगा कि अंग्रेज़ी ज्ञान सृजन की भाषा है और भारतीय भाषाएं उसके पुनरुत्पादन का माध्यम है। निहितार्थ है कि पहले तो हमें उच्च शिक्षा में मातृभाषाओं के शिक्षण के लिए माहौल बनाना होगा। मातृभाषा की अनिवार्यता का जो स्वर आरंभिक शिक्षा में सुनाई दे रहा है, उसे उतनी मज़बूती से उच्च शिक्षा और शोध में स्थापित करना होगा।
हमारे यहां मातृभाषाओं में शोध और पुस्तक लेखन को दोयम दर्जे़ का माना जाता है। इसी तरह शोध की गुणवत्ता का अर्थ अंग्रेज़ी में विदेशी भाषा में प्रकाशन है।
उदाहरण के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने जिन पत्रिकाओं में प्रकाशन को गुणवत्ता की कसौटी माना है, उनमें से ज़्यादातर अंग्रेज़ी में हैं। निश्चित रूप से उच्च शिक्षा का हर विद्यार्थी और शिक्षक इसी आकर्षण से अभिप्रेरित होगा।
मातृभाषा संबंधित जो अच्छी बातें उसे बताई जाती हैं, उन्हें वह याद रखेगा लेकिन उनकी कमज़ोरियों से भी वह परिचित होगा। यह बोध विद्यालयी स्तर पर भारतीय भाषाओं के प्रति आम आदमी को कितना आकर्षित करेगा इसका आप स्वाभाविक अनुमान लगा सकते हैं।
वर्तमान शिक्षा नीति भाषा संबंधित समस्याओं पर गहरा प्रभाव छोड़ती है
वर्तमान शिक्षा नीति ने भाषा संबंधित ठोस समस्याओं को चुना है। शिक्षा द्वारा उनके समाधान के बारे में सकारात्मक सुझाव दिए हैं। यहां ध्यान रखना होगा कि केवल मातृभाषा में शिक्षण के उपाय द्वारा भाषा की समस्याओं को दूर नहीं कर सकते।
एक आम आदमी की रोज़मर्रा की ज़िदगी में जिन सुविधाओं, सेवाओं और अवसरों का रास्ता शिक्षा द्वारा खुलता है, उसकी वास्तविकताओं का आकलन करना होगा।
शिक्षा में बदलाव के साथ उन सच्चाइयों जैसे-अंग्रेज़ी में साक्षात्कार या संप्रेषण के कारण चयन की संभावना बढ़ जाना, पेशेवर कार्यों में भारतीय भाषाओं का न्यूनतम प्रयोग आदि पर भी विचार करना होगा। भाषा की ताकत के लिए भाषा को जानना पर्याप्त नहीं है। उसके माध्यम से सत्ता और अर्थव्यवस्था में प्रचलित भाषायी पूर्वाग्रह को दूर करना अनिवार्य है।