पिछले दिनों जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने दुनिया को चेतावनी देते हुए कहा, “अब समय आ गया है जब सत्य का सामना करने का साहस जुटाना होगा और कोरोना को लेकर अधिक ज़िम्मेदारियों का परिचय देते हुए टेस्टिंग की संख्या को अधिक-से-अधिक बढाना होगा। संक्रमण के तथ्यों को छुपाना सत्य पर पर्दा डालने जैसा है। हम सबको सत्य का सामना करने को तैयार होना होगा।”
इस चेतावनी के आलोक में जब अपने गृहराज्य बिहार के तरफ देखता हूं, तो वहां फिर से जुलाई के अंत तक लॉकडाउन की घोषणा की गई है। ज़ाहिर है कि पूर्व के लॉकडाउन लगाए जाने के बाद महामारी के मुकाबले के लिए ‘हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर’ को उस तरह सुदृढ़ नहीं किया जा सका था जैसा होना चाहिये था।
दरअसल, ध्वस्त खंडहरों में जान डालना इतना आसान भी नहीं है। हमारी सरकारों ने सरकारी स्वास्थ्य तंत्र को खंडहरों में तब्दील होने दिया और आर्थिक रूप से कमज़ोर जनता ने इसे अपनी नियती मान ली। इसके अलावा थोड़ी सुविधा संपन्न जनता ने बेहतर इलाज के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करना ज़रूरी समझा।
आखिर बिहार की स्थिति इतनी बुरी क्यों है?
बिहार की स्थिति इसलिए भी बुरी है, क्योंकि यहां की राजनीति जनहित के मुद्दों से जितनी दूर रही, आज उसका हश्र हम सब भोगने को मजबूर हैं। कई लोगों का मानना तो यह है कि बिहार की स्थिति जितनी बुरी हो चुकी है, जिसका अंदाज़ा दिए जा रहे सरकारी आंकड़ों से बिल्कुल नहीं लग पा रहा है।
बिहार में कोरोना में टेस्टिंग का औसत सबसे कम है। यहां के ‘हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर’ की कमियों को छुपाने के लिए संक्रमितों की वास्तविक संख्या को ही छुपाने की रणनीति अपनाई गई। इस स्थिति में बिहार के मुख्यमंत्री सत्य का सामना कर लेंगे, इसकी संभावना नहीं के बराबर है।
15 सालों के शासन के बाद भी हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं बदल पाए नीतीश कुमार
इस स्थिति के लिए केवल नीतीश कुमार ही ज़िम्मेदार नहीं हैं। वह बस अपने से पूर्व के बिहार के ‘हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर’ की ज़र्जर हो चुकी परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। लगातार 15 वर्षों के अपने कथित सुशासन में भी वह इस ‘हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर’ का कायाकल्प नहीं कर पाए।
पिछले वर्ष चमकी बुखार और इस साल कोरोना महामारी ने उनके सुशासन काल में ‘हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर’ की पोल खोल कर रख दी। बिहार के ज़र्जर हेल्थ ढांचे को पूरी तरह पोल खुल चुकी है जबकि घोषित रूप से बिहार में राष्ट्रीय औसत के मुकाबले संक्रमितों की संख्या कम रही है, बिहार का हेल्थ ढांचा शुरुआत में ही दम तोड़ गया।
समस्या यह भी है कि नीतीश कुमार के पूर्व के शासनकाल में और अब नीतीश कुमार के सुशासन के राज में मीडिया ने भी कभी बिहार के ‘हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर’ को आइना दिखाने का काम नहीं किया। ज़ाहिर है जंगल राज और सुशासन राज को परिभाषित करने वाले अखबार और टीवी वालों के सोशल इंजीनियरों को भी राज्य की वास्तविक स्थिति को देखने का अपना नज़रिया बदलना होगा।
सरकारी और निजी दोनों अस्पतालों की हालत है खराब
अब अगर बिहार के चुनाव को देखते हुए सत्तारूढ़ गठबंधन अपने 15 साल की उपलब्धियों को लेकर जनता के बीच में जा रही है, तो मेरा सवाल यह है कि उनकी किसी भी उपलब्धियों को उपलब्धि क्यों मानी जाए? जब वह अपने राज्य के नागरिक को सस्ती तो छोड़िए, मंहगी ‘हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर’ तक उपलब्ध नहीं करा सके।
बिहार के जो गरीब लोग ज़मीन बेचकर बड़े महानगरों में इलाज कराने के लिए भटक रहे हैं और अपनी इलाज के दौरान रोज़ी चलाने के लिए आटो रिक्शा चलाने लगते हैं, वह उससे तो बच जाएगें।
आपदा को अवसर मानकर बिहार के निजी अस्पताल भी अपने को आत्मनिर्भर करने का प्रयास कर लें, उनका स्तर इतना भी नहीं है। निजी अस्पतालों को भी पता है कि बिहार के अधिकांश जनता के पास पैसा ही नहीं है और जिनके पास पैसा है उनको इलाज कराने की आत्मसंतुष्टी महानगरों के अस्पतालों से ही होती है।
बीते महीने कई बड़े पत्रकारों ने कहा था कि कोरोना संकट राजनेताओं की नेतृत्व क्षमता और जन सापेक्षता की कसौटी बन कर आया है तो उस कसौटी पर नीतीश कुमार कहां ठहरते हैं?
इसका जवाब शायद उन्हें चुनावों में मिले। बहुत सम्भव है कि नीतीश कुमार फिर से अगला चुनाव जीत जाएं लेकिन चुनाव जीत जाना नेतृत्व की जन सापेक्षता की कसौटी नहीं हो सकता। वह तो नरेंद्र मोदी भी लगातार दो बार जीत चुके हैं।