सुनीता यादव एक महिला हैं। गुजरात पुलिस में काम करती हैं। माफ करिएगा, काम करती थीं। सुनीता को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी क्योंकि उन्होंने एक मंत्री के बेटे को आधी रात में कानून के दायरे से बाहर देख अपना काम किया। उसे रोका लेकिन नतीजतन उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी।
सिस्टम से पस्त हो कर सुनीता को देना पड़ा इस्तीफा
मामला सूरत का है। सूरत में रात में कर्फ्यू के टाइम पर ही लेडी कॉन्स्टेबल ने कुछ बाइक सवार लड़कों को रोका। लड़कों ने अपने दोस्त को बुला लिया, दोस्त थे गुजरात के स्वास्थ्य मंत्री कुमार कनानी के सुपुत्र।
मंत्री का बेटा भी कर्फ्यू के दौरान ही उस जगह पहुंचा। उसके बाद मंत्री के बेटे ने कांस्टेबल सुनीता यादव को “देख लेने” की धमकी भी दी। कहा कि “तुमको यहीं 365 दिन तक खड़े रहने की ड्यूटी लगवा दूंगा।”
लड़की ने मंत्री जी को फोन लगाया। मंत्री जी भी अपने बेटे पर ही गए थे। हारकर पुलिसकर्मी ने अपने अधिकारियों से बात की लेकिन अपने पुलिसकर्मी साथी का साथ देने के बजाय अधिकारियों ने भी मामला रफा-दफा करने के लिए दबाव बनाया।
इतने पर ही मामला नहीं रुका मंत्री जी के रुतबे के चलते महिला कांस्टेबल का तबादला भी कर दिया गया। इसके बाद सुनीता यादव ने इस सिस्टम से पस्त होकर इस्तीफा दे दिया।
कोरोना वॉरियर्स कहकर झूठा सम्मान क्यों परोसा जाता है?
दरअसल इस देश का सिस्टम ऐसे ही काम करता है। सही काम करने वालों के खिलाफ चला जाता है और जो इस सिस्टम का गलत फायदा उठाता है, उसे ही बचाने की कोशिश की जाती है।
भारत में एक ओर देश के प्रधानमंत्री कोरोना काल में पुलिसकर्मियों को कोरोना वॉरियर्स मानते हुए उन्हें सम्मानित करने की बात करते हैं। ताली-थाली बजाकर, दीया जलाकर, उनको सम्मान देने ढ़ोंग करते हैं लेकिन एक कोरोना वॉरियर ने असल में जब अपना अपना काम कर दिया तो मजबूरन उसे इस्तीफा देना पड़ जाता है।
इस पर प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहते हैं और सिस्टम को तार-तार होते चुपचाप देखते रहते हैं। ऐसे में, सवाल यह है कि आखिर कब तक खुले आम नेता आम जनता और सामान्य कर्मचारियों पर अपना रौब दिखाते रहेंगे? और देश के प्रधानमंत्री उन्हें कोरोना वॉरियर्स कहकर झूठा सम्मान परोसते रहेंगे?
महिलाओं के लिए ज़्यादा मुश्किल होती है ऐसी परिस्थितियां
खासकर महिलाओं के लिए भारतीय कार्यप्रणाली सामान्य से ज़्यादा संघर्ष से भरी हुई है। हमारे पुरुष प्रधान समाज में एक महिला का नौकरी करना शायद आज से 100-150 साल पहले तक कोई तथ्य था ही नहीं।
कितनी महिलाओं ने कितने बलिदान और उलाहनाएं सहकर आज महिलाओं के अधिकार उन्हें दिलाएं हैं और एक नेता के बेटे के मामूली लगने वाले इस कृत्य ने ज़ाहिर कर दिया कि हम कितने भी आगे बढ़ जाएं, विकसित हो जाएं, हम अपनी महिलाओं के लिए एक ऐसा वातावरण एक ऐसा स्पेस नहीं बना पाए हैं जहां वे चैन से अपने अधिकारों के साथ रह सकें।
एक मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की, लड़-झगड़कर किसी तरह अपने सपने पूरे करने, अपने फर्ज़ निभाने काम करती है। पुलिस में काम करती है। तब हमारे आपके द्वारा ही चुने गए नेता और उनके बेटे जो खैरात में प्रिवीलेज पाते हैं, उन लड़कियों को हर तरह से नीचा दिखाते हैं।
कुछ लम्पट लड़कों को कर्फ्यू तोड़ने के लिए रोका गया, तो उस लड़की को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी। तिरस्कार सहना पड़ा। भारत में जब तक यह दोहरी प्रवृति रहेगी, तब तक महिलाओं के लिए संघर्ष और प्रतिरोध के अलावा कोई रास्ता नहीं है।