मैं राजू जाटव, मेरे पिता का नाम महेश जाटव था। हम चार भाई और दो बहने हैं। मेरे दो भाई और मेरी बहन मुझसे बड़ी हैं और एक छोटा भाई और छोटी बहन हैं, जो घर पर रहकर पढ़ाई करते हैं। मेरे पिता प्रतापगढ़ की कचहरी में कार्यरत थे। जिनको सिर्फ और सिर्फ बाबू लोगों के जूते साफ करने के लिए रखा गया था।
कभी-कभी कीचड़ भी उठाने के लिए भी तब मजबूर होना पड़ता था, जब कभी जमादार कार्यालय नहीं आता था। ऐसी स्थिति में मेरे पिताजी को शौचालय भी साफ करना पड़ता था। यह सब पापी पेट के लिए पिताजी को करना पड़ता था। पेट की खातिर इंसान वह सब कर लेता है, जिसको उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा।
‘चमरौटी’ शब्द मुझे चुभा ज़रूर मगर मैं टूटा नहीं
जब तक मैंने अपने पिताजी को ऑफिस में नहीं देखा था तब तक तो मुझे सब कुछ ठीक लगता था। एक दिन मैं तेज़ बारिश में पिताजी को खाना देने गया। मैंने वहां पर जो देखा उसे देखकर दंग रह गया। मेरा पूरा शरीर थरथराने लगा। मेरे पिताजी कुल्हड़ में गंदी ज़मीन पर बैठ कर चाय पी रहे थे और जो बाबू अंदर जा रहा था उसके जूते साफ कर रहे थे।
मैं दरवाजे की आड़ में छुप गया और इस बात को नज़रअंदाज़ करते हुए चिल्लाया, “बाबा कहां हैं?” अंदर से आवाज़ आई, “देखा भई चमरौटी से कौनो आया है। महेशवा का बेटवा आवा बाटिन का” यह ठेठ अवधि भाषा है। मैं यह चमरौटी शब्द सुन कर थोड़ा संकुचित हुआ और बाबा को खाना देकर घर लौट आया। ‘चमरौटी’ शब्द मुझे चुभा ज़रूर मगर मैं टूटा नहीं।
मेरे विद्रोह की शुरुआत
मैंने माँ से पूछा हमारा विद्यालय में दाखिला क्यों नहीं होता? भैया भी नहीं पढ़े, दीदी भी ब्याह दी गईं। अम्मा बोली, “दलित को कौन पूछे बेटवा, ऊपर से तुहार जाति भी चमार।”
मैंने सोचा कि क्या यह बात सच में मायने रखती है कि शिक्षा ग्रहण करने में जाति और गोत्र पूछा जाता है? मैंने माँ से कहा, “अम्मा बाबा अक्सर भीमराव अंबेडकर जी के बारे में बताते हैं। वह भी तो दलित थे, फिर उन्होंने अपनी शिक्षा कहां से ली? माँ ने जवाब दिया, “तू खुद ही बाबा से पूछ लिहे बेटवा, हमका नाहीं पता।”
यह मेरे विद्रोह की पहली शुरुआत थी, क्योंकि गाँव के बाहर मुझको ‘चमार-चमार’ कह कर पुकारा जाता था। अब यह शब्द मुझे काटने को दौड़ने लगा था। मैंने बाबा से शिक्षा के लिए पूछा, तो उन्होंने बताया मैं शिक्षा ग्रहण कर सकता हूं, मगर शहर जाकर।
मैंने बाजू के गाँव में रहने वाले लाला ठाकुर के बेटे मनीष से बात की। उन्होंने मुझे बताया कि तुम्हारी उम्र अभी है तुम कक्षा छठी में दाखिल हो सकते हो लेकिन तुमको बेसिक ज्ञान होना ज़रूरी है।
जैसे तैसे मैंने अपनी 5 वीं तक की पढ़ाई पूरी की
मनीष जी की मदद रही कि उन्होंने मुझे शहर तक तो पहुंचा दिया। मैं प्रतापगढ़ के एक विद्यालय में दाखिला लेने पहुंचा। वहां के अध्यापक ने बाबा को बुलवाया, मैं भागता-भागता बाबा को बुलाने गया। बाबा खुशी से झूम उठे।
उन्होंने बाबू से पूछा कि बेटे के दाखिला के लिए चौक तक जाना है। बस आधे घण्टे में वापस आ जाऊंगा साहब। वैसे मेरे लिए तो वह आदमी ना साहब था और ना ही कोई बाबू। बस जैसे-तैसे मेरा दाखिला हो गया। बाबा ने मुझे घर भेजते हुए कहा अगले दिन तुमको स्कूल जाना है। मैं वापसी में कपड़े लेता आऊंगा।
मैं बहुत खुश था, मुझे आशा की किरण नज़र आने लगी थी। मैं भी बाबू बनना चाहता था, ताकि दलित समुदाय के लोगों को जागरूक कर सकूं। घर में भी खुशी का माहौल था। मैं बाबा की बाट जोहने लगा, उनका रास्ता देखने लगा।
दूर से मुझे आज तांगा आता दिखाई दिया। आज बाबा तांगे से घर आ रहे थे, उनके पास साईकल नहीं थी आज। बाबा के हाथ में थैला था, जिसमें मेरे स्कूल के कपड़े थे।
इसी बीच बाबा का हो गया देहांत
मैंने देखा कि बाबा ने एक हाथ से अपना पेट पकड़ा हुआ था। बाद में पता लगा बाबा को उनके बाबू ने ऑफिस देर से पहुंचने पर पेट में लात मार दी थी। जिससे उनके आंव (मल में खून) आने लगा। मेरे बाबा को माँ ने बिस्तर पर लिटाना चाहा, मगर बाबा का वहीं देहांत हो गया था। वह हम सब को अलविदा कह गए थे।
उस दिन मेरे अंदर का राजू टूट कर बिखर गया था। मेरे बाबा की अर्थी में सब दलित समुदाय के लोग ही शामिल हुए थे। जैसे ही घर से बाबा की अर्थी उठी और चलने लगी, तो पीछे से जितने घर थे। सभी लोग अपने घर के आगे पानी से सफाई करने लगे और मंत्र का जाप करने लगे। उस समय मानो ऐसा लग रहा था जैसे हम इंसानों के बीच नहीं जानवरों के बीच में रह रहे हों।
अब तो मुझे ‘चमार’ शब्द से ही डर लगने लगा था
बहरहाल, मुझे फिर से एक मानसिक आघात झेलना पड़ा। मुझे चमार शब्द से ही डर लगने लगा था। मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और अपने पिता को श्रद्धांजलि के तौर पर अपनी शिक्षा जारी रखने और एक कामयाब इंसान बनने की शपथ ली। मैंने 12वीं कक्षा विज्ञान से पास की और दिल्ली के लिए निकल पड़ा।
मैं अपने गाँव से दूर था और उस शहर में था जो देश की राजधानी है। खुद को संभालने में मुझे करीब 2 साल लगे। मैंने कॉलेज में दाखिला लिया। बता दूं कि मैं यहां कॉलेज का नाम नहीं ले सकता। वहां पर जैसे-तैसे करके मैंने दो साल गुज़ारे हैं। लोगों से कम ही बोल-चाल थी। बड़ा शहर है लेकिन लोग नाम से ज़्यादा ‘सरनेम’ पर ध्यान देते हैं।
लोग मुझे ‘चमार’ कहकर बुलाने लगे
एक दिन मैं क्लास में बैठा था। सभी लोग अपना अपना पूरा नाम लिखवा रहे थे। कोई वर्कशॉप थी उसी के लिए क्लास में होड़ मची हुई थी। जैसे ही मैंने अपना नाम बोला, वहां खड़े सर ने कहा, “जाटव, चमार हो क्या?”
उनका इतना ही बोलना था और मेरे ऊपर तो जैसे किसी ने हथौड़े से वार कर दिया हो। मैंने सिर हिला कर हां में जवाब दे दिया। फिर उस दिन से जब तक मेरा कॉलेज पूरा नहीं हुआ, मैं चमार नाम से ही पुकारा जाता रहा।
हर दिन मेरे मष्तिष्क पर यह शब्द चोट करता रहा। दरअसल मुझे चमार शब्द से तकलीफ नहीं होती थी। मुझे लोगों की विचारधारा और सोच पर शर्म आती थी। मुझे दुःख होता था कि समानता का पाठ पढ़ाने वाले भारत के नागरिकों को क्या हो गया है? जाति के नाम पर हर दिन लोगों की आत्मा को मारा जा रहा है।
मैंने फैसला किया मैं ‘चमार’ शब्द के साथ ही जीऊंगा
मैंने फैसला किया कि मैं दिल्ली नहीं छोडूंगा और इस शब्द के साथ ही जीऊंगा। मैं इसके कारण मानसिक अवसाद से करीब पांच सालों से जूझ रहा हूं। अब मैं खुद के नाम के आगे जाटव नहीं चमार लगाकर ही बताता हूं कि मैं “राजू चमार” हूं। जिसको मेरा साथ पसंद आता है, वह मेरे साथ हैं। जिन्होंने ज़्यादा धार्मिक मापदण्डों को अपने सिर पर चढ़ा लिया है, वह मुझे छोड़कर चले जाते हैं।
बचपन से अब तक इस शब्द से मैं भागता आया हूं लेकिन अब ठान लिया है। मैं इस ‘चमार’ शब्द को अपना दोस्त बनाऊंगा। जिसे इस अमानवीय समाज ने एक गाली के रूप में प्रयुक्त किया है।
मैं भारतीय हूं और एक मज़बूत नागरिक भी हूं। ऐसे तो हज़ारों भारतीय नागरिक होंगे जो सिर्फ नाम के ही भारतीय हैं। भारत में सबसे महत्वपूर्ण एक शब्द है, वह है ‘समानता’ जो इस शब्द को समझ गया और अपने जीवन में ढाल लिया, तो समझिए उसने इंसान होने का सुबूत दे दिया।
वहीं, जिसने भी इस समानता शब्द को सुना तो सही मगर मतलब समझा नहीं, तो समझ जाइए वह शायद मनुष्य कहलाने के लायक ही नहीं है।
नोट: इस लेख को YKA यूज़र इमरान खान ने राजू जाटव से बातचीत के आधार पर लिखा है।