हम परिवर्तन की बात करते हैं। हम विकास की बात करते हैं। हम आधुनिकता की बात करते हैं लेकिन आज भी समाज लैंगिक समानता के अधिकारों को लेकर काफी असहज है।
यह सुनने में अजीब लगता है कि आज के समय में भी महिलाओं को कहीं शारीरिक तो कहीं मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ रही है, उन्हें दबाया जाता रहा है।
आश्चर्य की बात यह है कि महिलाओं को दबाने में महिलाओं की भागीदारी भी देखी जाती है। यह जो समाजीकरण की प्रक्रिया है दोष इसका है, जन्म के साथ ही यह निर्णय ले लिया जाता है कि यह लड़का है इसको ऐसे रहना है और यह लड़की है इसको ऐसे रहना है।
लड़कियों के दिमाग में बचपन से ही भर दिया जाता है कि उनके जन्म का उद्देश्य ही यही है कि वे परिवार संभाल सकें। उनका अपना अस्तित्व नहीं बनने दिया जाता है, बल्कि उन्हें हमेशा एक बेटी, एक बहन, एक पत्नी और एक माँ इन्हीं किरदारों के आस-पास रखा जाता है।
समाज को लगता है कि बस उससे आगे उनकी कोई पहचान नहीं होनी चाहिए और अधिकतर महिलाएं इसे सहजता से स्वीकार भी कर लेती हैं। कोई गलती होने पर वे स्वयं ग्लानि का अनुभव करती हैं। यह समाज ही है जो उन्हें ऐसी ग्लानि का अनुभव करवाता है।
क्यों सिर्फ पुत्रों के लिए ही रखे जाते हैं व्रत?
अगर धार्मिक दृष्टिकोण से देखें तो अधिकतर व्रत और त्योहार महिलाओं पर ही थोपे गए हैं। पुरुषों को इनसे आज़ाद रखा गया है। ऐसा कहा जाता है कि महिला के व्रत करने से लाभ पुरुष को होगा।
अगर तार्किक दृष्टि से देखें तो यह मूर्खतापूर्ण है। सारे व्रत पुत्र प्राप्ति के लिए ही हैं। पुत्रों को उच्च स्थान दिया गया है और महिलाएं स्वयं इसे स्वीकार करती आ रही हैं।
किसी के पति की मृत्यु हो जाए, तो उस महिला पर तरह-तरह के नियम थोप दिए जाते हैं। उसे सफेद वस्त्र पहनना है। उसे निरामिष भोजन करना है। पहले तो सती तक कर दिया जाता था। बाल काट दिए जाते थे लेकिन उस पुरुषों के लिए कोई नियम नहीं है जिसकी पत्नी की मौत हो गई हो। यह कैसा समाज है? और आश्चर्य की बात है कि महिलाएं इसे लंबे समय से स्वीकार कर रही हैं।
कारण यह है कि महिलाओं को पुरुषों के समान आर्थिक रूप से सबल बनने के अवसर दिए ही नहीं जाते हैं। महिलाओं को उच्च शिक्षा दी ही नहीं जाती है और जहां दी भी जाती है, वहां कला संकाय में नामांकन करा दिया जाता है।
समाज को बदलनी होगी अपनी मानसिकता?
समाज की मानसिकता यह है कि लड़की को तो दूसरे के घर जाना है। इसकी शादी में खर्च करें और पढ़ाई में भी। नौकरी करके क्या करेगी? घर ही तो संभालना है।
बस चंद लोग ही हैं जो बेटियों को वाकई आत्मनिर्भर बनाते हैं और स्वाभिमान से जीने की आज़ादी भी देते है। समाज उनका भी उपहास ही करता है और इस उपहास में भी सर्वाधिक महिलाएं ही होती है।
लोग समझने को तैयार नहीं हैं कि प्रकृति ने ही नर और नारी को बनाया है। उसमें कोई अंतर नहीं किया है कि नर क्या करेगा और नारी क्या करेगी। उनके जीने का तरीका क्या होना चाहिए यह समाज और संस्कृति निर्धारित करती है और यहीं से शुरू होता है असमानता का समाजीकरण।
महिलाओं की अशिक्षा, जागरूकता की कमी, पुरुषों पर निर्भरता यह जब तक समाप्त नहीं होगी, यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा। इसका अंत कभी नहीं हो पाएगा।