यह बात मेरी समझ के परे है कि हमारी शिक्षा प्रणाली स्कूल एवं कॉलेजों द्वारा ली जाने वाली परीक्षा के नंबरों पर क्यों आधारित है? यह भारत के बड़े-बड़े प्रतियोगी परीक्षाओं पर भी लागू होती है। एक छात्र के तौर पर मुझे ही नहीं हर उस छात्र पर बचपन से ही अच्छे नंबर लाने का दबाव डाला जाता है।
90% लाओ 95% लाओ, इस समय एक डायलॉग बहुत मशहूर है, “शर्मा जी के लड़के के 99% आए हैं, तुम्हारे क्यों 90% ही आए?” इन्हीं शर्मा जी के लड़के की बातें हमें सुना-सुना कर यह महसूस करा दिया जाता है कि हम किसी काम के नहीं हैं। हम जीवन में कुछ नहीं कर सकते, भले शर्मा जी का लड़का 99% लाकर भी किसी विषय का अच्छा ज्ञान ना रखता हो।
अच्छे नंबर लाने का दवाब पैदा कर देता है मानसिक तनाव
अच्छे नंबर लाने का दवाब तो बचपन से ही रहा है लेकिन यह दवाब कक्षा 12वीं तक आते-आते कब तनाव में बदल गया मुझे पता ही नहीं चला। कक्षा 10वीं के बाद से ही माता-पिता और आस-पड़ोस के लोग भविष्य को लेकर बोलना शुरु कर देते हैं। खैर, मेरे माता-पिता ने नंबरों का मुझ पर इतना दवाब नहीं डाला लेकिन आस-पास के लोगों या उनकी बातों ने मुझे अच्छे नंबरों की होड़ में ज़रूर ढकेल दिया।
मुझे डॉक्टर बनना था और उसके लिए चाहिए थे अच्छे नंबर जो कि नंबरों की इस रेस में बिना भागे संभव नहीं हो पाता। इस समय की जो शिक्षा व्यवस्था हमारे विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में है उससे तो किसी भी प्रतियोगी परीक्षा को निकाल पाना एक सामान्य छात्र के लिए असंभव ही है। यह और कठिन हो जाता है जब आप किसी सरकारी स्कूल से पढ़ रहे हो, ठीक मेरी तरह।
मैंने भी इन नंबरों की रेस में भागने का निश्चय किया और कोटा जाकर NEET की तैयारी करने लगा लेकिन मेरे लिए यह एक डरावना सपना साबित हुआ। मेरी स्कूल की शिक्षा व्यवस्था के कारण मेरे लिए अच्छे नंबर लाना दिन प्रति दिन एक भय बनता जा रहा था। कोचिंग संस्थानों पर बस आपको नंबर के लिये ही बोला जाता है खैर यह स्कूल के छात्रों पर भी लागू होता है।
इन्हीं नंबरों का डर मेरे मन में दिन प्रति दिन बैठता जा रहा था और मुझे पता ही नहीं चला कब मैं इन नंबरों की रेस से बाहर हो गया और तनाव की उस अवस्था में चला गया जहां आप ना सो सकते हैं और ना ही उस पीड़ा से बाहर आ सकते हैं।
मानसिक और शारीरिक तौर पर होना पड़ा परेशान
परिणाम यह हुआ कि शारीरिक तौर पर भी मैं बीमार हो गया। 10 किलो से ज़्यादा वजन मात्र 2 महीनों में कम हो गया। यह लिखते समय मुझे वही दृश्य याद आ रहे थे जिसे मैं अकेला अपने रूम में बैठ कर सोचता रहता था।
जीवन में कुछ नहीं कर पाऊंगा, ऊपर से मेरे आस-पास के लोगों के ताने उनकी वह बातें कि अच्छे नंबर नहीं आए तो डॉक्टर बनना तो दूर की बात है, कोई प्राईवेट नौकरी भी नहीं कर पाओगे। हर जगह नंबर लगते हैं जितना ज़्यादा नंबर लाओगे उतना ही समझदार कहलाओगे।
बहरहाल, कहीं भी जाऊं पहले यही पूछा जाता NEET में कितने नंबर आए। इस बार भी उतने नंबर नहीं ला पाए कि चयन हो? यही सवाल हर जगह और उन सवालो में बस नंबरों की बातें जैसे मैं तो कुछ था ही नहीं।
इन्हीं सब बातों के कारण मुझे अनिद्रा हो गई
तीन-तीन दिनों तक मैं सो नहीं पता था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि करूं तो क्या करूं? आकिरकार मैंने लोगों की बातों पर ध्यान देना बंद कर दिया उससे कुछ राहत तो मिली लेकिन इस नंबरों की शिक्षा प्रणाली का क्या किया जाए?
इस बात का आज तक कोई समाधान नहीं मिला। इन्हीं नंबरों के कारण आज भी मैं अनिद्रा से ग्रसित हूं।
मेरी सलाह
मेरी हर उस छात्र को यही सलाह है कि नंबरों को खुद पर हावी ना होने दें। मैं यह बात मनाता हूं कि हमारी शिक्षा प्रणाली के कारण नंबर सबसे ज़रुरी हैं लेकिन काबिलियत के आगे नंबर कुछ नहीं हैं।
वर्तमान में गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई इसके सबसे बड़े उदहारण हैं। जिनके बहुत कम नंबरो के वाबजूद वह आज इस मुकाम पर हैं। जहां 99.9% लाने वाला कोई छात्र नहीं पहुंच पाया। कोशिश करते रहें, हिम्मत नहीं हारें। आप ज़रूर डर को हराकर इन नंबरो को भुलाकर जीवन में कुछ बड़ा करेंगे।