नारी सशक्तिकरण की बातें सिर्फ बड़ी-बड़ी इमारतों वाले शहरों में ही दम तोड़ जाती हैं। गाँव की पगडंडी से गुज़रती ये बातें गाँव की दहलीज़ तक पहुंचते-पहुंचते शोषण में तब्दील हो जाती हैं।
गाँव की दीवारें और उनमें कैद लंबा घूंघट लिए एक महिला, तमाम पुरुषों के उलाहनों को सुनती, सहती और अपने काम में मशगूल रहती हैं। वह भला कभी कहां किसी से अपने दुःख-दर्द साझा कर पाती है। उसने तो सिर्फ सहा है गालियों की ज़ुबान से सजे वह अल्फाज़, जो उसके ज़मीर को बहुत दिनों पहले ही दफन कर चुके हैं।
पल्लू के अंदर सिसकती उसकी आहों को भला कहां कोई सुनता है। घर परिवार में यदि कुछ शुभ होता है, तो वह पुरुषों के कर्मों का फल माना जाता है। यदि कोई अनहोनी हुई, तो उसका ठिकरा उस महिला पर फोड़ दिया जाता है जिसने अपने दुःख-दर्द सालों पहले ही भुला दिए, जिसने हंसना तो मानो कभी सीखा ही नहीं था।
डायन, कुलटा और ना जाने क्या-क्या अपशब्द उसके लिए परोसे जाते रहे हैं। बस यही से नारी सशक्तिकरण की बातें दम तोड़ जाती हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि शहरों में आयोजित बड़े-बड़े सम्मेलन गाँव तक नहीं पहुंचते? आखिर ऐसा क्यों है कि एसी कमरों में बैठने वाले लोग गाँवों तक नहीं पहुंच पाते? इन सब मुद्दों पर विचार किये जाने की बेहद ज़रूरत है।
नारी सशक्तिकरण के सम्मेलन एसी कमरों तक ही सीमित हैं
मेरा नज़रिया कहता है कि जो सम्मेलन बन्द एसी कमरे में होते हैं, उनका आयोजन शहरों से निकलकर किसी गाँव की चौपाल पर होना चाहिए ताकि हमें वास्तविक स्थिति के बारे में ज्ञात हो। उसके साथ ही हम गाँव की उस महिला तक अपनी पहुंच बना सकेंगे जो कभी अपनी पीड़ा किसी से कहने की हिम्मत नहीं जुटा सकी।
“गाँव की महिलाओं के कोई सपने नहीं होते। हमारा काम है चौका-बर्तन करना और आदमियों की गालियां सुनना। हम इसलिए ही बनें हैं क्या?”
यह शब्द गुड्डी देवी ने हमसे कहे तो मैं ज़्यादा अचंभित नहीं हुआ, क्योंकि मैंने गाँव के परिवेश को नज़दीक से देखा है। गुड्डी देवी की बात सही भी थी। सपने और उनकी उड़ान जैसे शब्द सिर्फ शहरी महिलाओं के लिए ही तो बने हैं।
गाँव तक आते-आते ये सपने धुंधले पड़ जाते हैं। इन सपनों पर चूल्हे की राख चढ़ जाती है। यदि उन सपनों की उड़ान का ज़िक्र किया भी तो मिलती है मार, जो पूरे बदन को कई दिनों तक झकझोरती रहती है।
डायन प्रथा से तार-तार होती ग्रामीण सभ्यता
गाँवों में डायन प्रथा का चलन लंबे वक्त से है। समस्या यह है कि उन गाँवों में बुज़ुर्ग महिलाएं भी इस प्रथा को गति देने में भागीदार हैं। सही मायनों में यदि देखा जाए तो महिलाओं का शोषण सर्वाधिक रूप से महिलाओं ने ही किया है।
मुझे एक घटना याद है जब एक महिला के घर पुत्री ने जन्म लिया तो उसकी सास ने उससे कहा पुत्र का जन्म होता तो सही रहता। प्रश्न यह उठता है कि पुत्र या पुत्री के निर्धारण में महिला की भूमिका क्या थी?
जबकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता है कि पुत्र का जन्म होगा या पुत्री का, यह पुरुष पर निर्भर करता है महिला पर नहीं। उस महिला का कहना यह दिखलाने के लिए पर्याप्त है कि महिलाओं को दोयम दर्जे़ पर ले जाने के लिए उनकी भूमिका भी बहुत बड़े पैमाने पर है।
समाज में सकारात्मकता लाने के लिए सर्वप्रथम महिलाओं का ही एक मत होना बेहद आवश्यक है। पितृसत्तात्मक परिवेश से तभी लड़ा जा सकता है जब सम्पूर्ण समाज एकजुटता के साथ गलत कृत्यों का बहिष्कार करें।
याद रखिए बहिष्कार सिर्फ सम्मेलनों में करने से नहीं होगा। बहिष्कार स्वयं से करना होगा व समाज के लोगों के बीच जाकर उनको जागरूक करने से होगा। आइए इस बदलाव की बयार में हम भी शरीक होते हैं। आइए नया भारत बनाते हैं।