आपको हिन्दी सिनेमा का वो दौर याद है जब फिल्मों की शुरुआत में उसका नाम लिखकर आता था। ध्यान तो होगा कि वो तीन भाषाओं में होता था हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी। हिन्दी को उर्दू की बड़ी बहन कहते हैं। हिंदी सिनेमा के गीतों में उर्दू के शब्द इस तरह गुथ दिए गए जैसे किसी माला में दो अलग-अलग रंगों के फूल।
भारत में राजनीति और राजनीतिज्ञों की भूमिका उनका प्रभाव हर क्षेत्र में है। भाषा के नाम पर छिड़ने वाली बहसों का इतिहास बहुत पुराना है। हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा ने दो तस्वीरें अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट पर डाली हैं।
इन दोनों तस्वीरों में एक बोर्ड है जिस पर देहरादून लिखा है। पहली तस्वीर में हिंदी में बड़े अक्षरों में लिखे देहरादून के नीचे अंग्रेजी और उर्दू में भी देहरादून लिखा है जबकि दूसरी तस्वीर में उर्दू की जगह पर संस्कृत भाषा का इस्तेमाल किया गया है। यह बोर्ड किसी रेलवे स्टेशन का लग रहा है।
SANSKRIT pic.twitter.com/6coUpaIQyF
— Sambit Patra (@sambitswaraj) July 13, 2020
इन तस्वीरों को शेयर करने के क्या हैं मायने?
संबित पात्रा द्वारा साझा की गई इस तस्वीर को अब तक 99 हज़ार से भी अधिक लोगों ने पसंद किया है। जबकि लगभग 16 हज़ार से ज़्यादा लोग इसे रिट्वीट कर चुके हैं।
किसी स्टेशन या जगह का नाम बदलने का काम भारतीय जनता पार्टी पहले भी कर चुकी है। चाहे वो मुगलसराय स्टेशन का नाम “दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन” करना हो या फिरोजशाह कोटला का नाम बदल कर पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय अरूण जेटली के नाम पर करना हो लेकिन इस बार बात भाषा की है।
ऐसे में सवाल यह है कि क्या देश में एक बार फिर भाषा के स्तर पर बहस को जन्म देने की कोशिश की जा रही है? क्या संबित पात्रा इन दो तस्वीरों की तुलना कर किसी एक भाषा को कमतर बताने की कोशिश कर रहे हैं?
रेलवे का इस पर क्या कहना है?
बोर्ड पर उर्दू भाषा को संस्कृत से बदलने के सवाल पर दिल्ली के उत्तर रेलवे अधिकारियों का कहना है कि अभी देहरादून स्टेशन पर साइन बोर्डों पर संस्कृत नाम नहीं है और अभी भी अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू में ही नाम दिखाई दे रहे हैं। रेल मंत्रालय के अधिकारियों ने दावा किया कि यह सोशल मीडिया पर फैलाया गया एक “भ्रम” है।
इसके साथ ही रेलवे के क्षेत्रीय अधिकारी ने कहा, ” देहरादून में रेलवे स्टेशनों के पुर्ननिर्माण का काम चल रहा है। काम के दौरान हमें कुछ ऐसे साइनबोर्ड मिले, जिसमें नाम गलती से संस्कृत में भी लिखा गया था लेकिन जब काम शुरू किया गया था, तो इसे ठीक कर दिया गया और नाम अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू में लिखा गया था।”
क्या कहती रेलवे नियमावली?
साइनबोर्ड के विषय में रेलवे नियमावली में लिखा है कि किसी साइनबोर्ड पर स्टेशन का नाम तीन भाषाओं में होगा। हिन्दी, अंग्रेजी और उस जगह की आधिकारिक क्षेत्रीय भाषा।
साथ ही रेलवे किसी भी स्टेशन का नाम, उसकी भाषा में ज़्यादा भूमिका नहीं निभाता है। किसी भी स्टेशन के नाम के साथ कुछ भी करना संबंधित राज्य का मामला है।
संरक्षण करिए दिखावा नहीं
जिस संस्कृत भाषा के प्रचार और संरक्षण के नाम पर ओछी राजनीति करने का प्रयास किया जा है। उसकी स्थिति आज बेहद ही दयनीय है। संस्कृत विश्वविद्यालयों में भर्ती ना होना, विद्यालयों की खराब स्थिति इन मुद्दों पर ध्यान देने की ज़रूरत है, ना कि रेलवे के साइनबोर्डों पर नाम संस्कृत में लिखने की।
कुछ प्रश्न है जिनका जवाब इन दिखावटी “संस्कृत संरक्षणवादियों” को देना चाहिए –
संस्कृत को कंप्यूटर के लिए सबसे उपयोगी माना गया है। आज तक इस क्षेत्र में कोई शोधकार्य क्यों नहीं किया गया? जिस संस्कृत भाषा को विदेशों में सम्मान की नज़र से देखा जाता है, वह अपने ही देश में उपेक्षित क्यों है? किसी दूसरी भाषा को नीचा दिखाने का प्रयास क्यों किया जा रहा है?
जब एक धर्म विशेष का व्यक्ति संस्कृत को पढ़ना चाहता है तो भाषा को धर्म से क्यों जोड़ दिया जाता है? ( याद रहे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में मुस्लिम समुदाय के प्रोफेसर के संस्कृत पढ़ाने का विरोध हुआ था।) ऐसे में भाषा के आधार पर एक भेदभाव उत्पन्न करने की कोशिश एक राजनीतिक ओछेपन को दर्शाता है।
भारत एक विविधताओं वाला देश है। यहां अनेक बोली भाषाओं और संस्कृतियों के लोग रहते हैं। विविधता में एकता ही इसकी पहचान है। ऐसे में भाषा के आधार पर भेदभाव एक राजनीतिक हथकंडे के अलावा कुछ भी नहीं है।