मेरा नाम श्रेया तिवारी है, मैं एक लॉ स्टूडेंट हूं। मैं उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर मिर्ज़ापुर से हूं। कक्षा 2 से लेकर 12वीं तक मैंने वहीं अपनी पढ़ाई की है। हम एक पंजाबी स्कूल में पढ़ते थे। हमारा छोटा-सा वह स्कूल हर मायनो में छोटा ही था। मैं पढ़ने में अच्छी थी और कक्षा में अव्वल आती थी।
मन में उठते थे कई सवाल
धीरे-धीरे मुझे और आस-पास सबको इसकी आदत लग गयी। समय निकलता गया और साल-दर-साल मैं अव्वल आती रही। फिर हाईस्कूल आ गया और असली प्रेशर आने लगा। यह एक ऐसा प्रेशर था जिसका पहले कभी एहसास नहीं हुआ था। सबको मुझसे बहुत आशाएं थी।
स्कूल बहुत पुराना था और शहर छोटा इसलिए लगभग हर कोई जनता ही था। लोग कहते थे, “भाई तिवारी जी की बेटी तो टॉप करेगी, नाम रौशन होगा।” यह सब सुनकर ऐसा लगता था जैसे कि अगर मैंने नहीं टॉप किया तो ना जाने क्या ही होगा? सबको निराश करके कहां जाउंगी? जो प्यार सबसे मुझे मिलता है, कहीं वो सब मुझसे छिन ना जाए?
मन में टीस उठती थी कि आखिर क्या होगा? क्या टॉप ना कर पाने पर सब मेरा अपमान करने लगेंगे? क्या मुझे इसके बाद अवहेलना झेलनी पड़ेगी? क्या बोला जाएगा कि असली परीक्षा की घड़ी में तो यह कुछ कर ही नहीं सकी। कुल मिलाकर धीरे-धीरे अच्छे मार्क्स लाने का दबाव और लोगों की उम्मीदें मेरे लिए बोझ बनने लगी थीं।
स्कूल में मानसिक स्वास्थ्य जैसे मुद्दे पर कभी बात ही नहीं हुई
स्कूल का माहौल ऐसा था कि वहां कभी बच्चों की मानसिक स्तिथि को लेकर बात ही नहीं की जाती थी। यह सब पश्चिमी सभ्यता के चोंचले हैं, ऐसा बोलकर इस विषय से पल्ला झाड़ लिया जाता था। वहां तो बस इतना-सा सामंजस्य था कि जिसके मार्क्स अच्छे आए, वह अच्छा बच्चा है और जिसके कम आते हैं वह खराब है।
साइंस साइड से मैथ लेने वाले बच्चे सबसे अच्छे, फिर बायोलॉजी वाले, फिर कॉमर्स वाले और अंत में बचने वाले कुछ बच्चे जो उनके अनुसार सबसे मूर्ख हैं वो आर्ट्स लेंगे। यह बात हमारे दिमाग में शुरू से ही बीज के जैसे बो दी गयी थी।
उनके अनुसार बच्चों की स्वयं की कोई प्रतिभा नहीं हो सकती। नाच गाना सिर्फ 26 जनवरी को होता था, वो भी टीचर सिखाती थीं कि क्या, कैसे और कब किस गाने पर नाचना है। इंजीनियर, डॉक्टर या बैंकर बस इसके अलावा करियर को लेकर बाकी कोई रास्ता नहीं था। आर्ट्स केवल लड़कियों को दिया जाता था यह मानकर कि इनको तो आगे जाकर बी.ए. करके घर गृहस्ती संभालनी है।
लड़के-लड़कियों को एक-दूसरे से दूरी बनाने को कहा जाता था
इंजीनियर बनो, आई आई टी क्वालीफाई करो, स्कूल और तुम्हारा का नाम पेपर में आ जाए बस इतनी ही बात पर पूरा फोकस होता था। मानसिक विकास के नाम पर हमें बस लड़के और लड़कियों को एक-दूसरे से दूर रहना ही सिखाया गया था।
कैसे आप लड़कियों से बात करोगे तो आवारा बन जाओगे, जिन लड़कियों के लड़के दोस्त होते हैं वे चरित्रहीन हैं। ऐसे कभी सामने से बोला नहीं गया लेकिन वहां सबकी मानसिकता यही थी। उनके व्यवहार से इसका पता चलता था। हमारे अंदर धीरे-धीरे करके बचपन से ही यह बात भर दी गयी थी।
छठवीं से लड़के और लड़कियों की क्लास अलग कर दी गयी थी और लड़कियों को बोला गया कि अब सलवार सूट पहनो। एक बच्चे के प्राकृतिक विकास को कुंठित किया जाता था और सोच को रूढ़िवादिता से भर दिया जाता था।
साइंस को माना जाता था सबसे अच्छा
रही बात मेरी, तो मुझे मेरे टीचर्स ने हमेशा से बोला था कि तुम साइंस लोगी और उसमें भी मैथ्स। मुझे भी लगता था कि हां, इसका मतलब होता है कि मैं बुद्धिमान हूं। इसीलिए यही लेना भी चाहिए। हालांकि मुझे साइंस पसंद थी लेकिन बोला भी गया था कि यही लेना है और खुद भी मुझे ऐसा लगने लगा था कि इसका मतलब बेहतर होता है।
मेरे साथ और भी बहुत से बच्चों को बोला गया था कि यही लेना है। मेरी एक सहेली थी। उसके परिवार में बोला गया था कि साइंस ही लेना है। मैं जबसे इस स्कूल में थी, वह तबसे मेरे साथ ही पढ़ती थी। उसके परिवार से उसपर हमेशा ही बहुत दबाव था।
वह बताती थी कि उसे मार भी पड़ती है, क्योंकि वह कक्षा में छठीं या सातवीं स्थान पर आती है। उसके घर वाले चाहते हैं कि वह हमेशा अव्वल आए। हम सब पर ही कहीं-न-कहीं अव्वल आने का भार था, क्योंकि हमेशा ऐसा दिखाया जाता था कि केवल वहीं बच्चा योग्य है जो अव्वल आता है। मुझे तो इस बात का डर हमेशा रहता था कि कभी ऐसा ना हो जाएं कि मैं अव्वल ना आऊं, क्योंकि मेरे मन में मेरा सम्मान उससे जुड़ गया था।
10वीं में अच्छे मार्क्स आने के बाद भी सराहना के बदले डांट मिली
जब 10वीं का रिजल्ट आया और मेरे स्कूल से मुझे कॉल आया कि पूरे ज़िले में मैंने लड़कियों में पहला और कुल मिलाकर पांचवा स्थान प्राप्त किया है। मेरे परिवार में सब खुश थे। स्कूल में अखबार वाले आये थे फोटो खींचने, हमारी प्रिंसिपल हमें लड्डू खिला रही थीं और ट्रॉफी दे रही थीं।
तभी मेरे मैथ टीचर आए और सबके सामने मुझे डांटने लगे। उन्होंने बोला तुम्हारी मैथ्स इतनी अच्छी है, तो तुम्हारे केवल 87 नंबर ही क्यों आए हैं? मैं निशब्द थी, उन्होंने बोला जाओ यहां से तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। तुम्हारे 100 में से 100 नंबर आने चाहिए थे। मेरी आंखों में आंसू भर आए।
बाहर ग्राउंड में उन्होंने ऐसे सबके सामने चिल्लाया था। तभी बाकी टीचर्स आकर बोले अरे सर जी कोई बात नहीं, उन्होंने बोला तुम रीचेकिंग के लिए भेजो अपनी कॉपी बस। सब उनको शांत करवा रहे थे, किसी ने मुझसे नहीं पूछा की बेटा क्या तुम ठीक हो? मैं रोते हुए घर वापस चली गई।
लोग मेरे मार्क्स से खुश ही थे। कोई गुस्सा नहीं था लेकिन सबने यही कहा कि और अच्छे आने चाहिए थे। किसी ने भी मेरी मेहनत को नहीं सराहा। सबको बस यही था कि इसके हमेशा अव्वल मार्क्स आते थे और इस बार स्कूल में तीसरा स्थान और ज़िले में पांचवा आया है। लोगों की नज़र में मैंने उनकी आशा से कम नंबर ला पाई थी और यह उनकी बातों से साफ पता चल रहा था।
सीखने पर नहीं दिया जाता जोर
मेरा डर सच हुआ, मैं फेल नहीं थी, दूर-दूर तक नहीं लेकिन मुझे हर पल ऐसा लग रहा था जैसे मैं फेल हो चुकी हूं। मेरे हाथ में वो ट्रॉफी मुझे निराश कर रही थी। किसी को भी इस बात से मतलब नहीं था कि मेरे पास ज्ञान कितना है? मैंने क्या सीखा है?
सबको केवल मार्कशीट पर मार्क्स चाहिए थे जो कि उनकी अपेक्षा से कम थे। स्कूल में बोर्ड पर टॉपर्स की लिस्ट में मेरा नाम लिख दिया गया जो कि आज भी जाते ही सामने दिखता है।
अब बात आ गयी थी 12वीं की और मुझे बोला गया कि इस बार और अच्छा करना और पुरानी सारी गलतियां ठीक कर लेनी है। सच कहूं तो मुझे खुद को पता नहीं था कि मैंने पिछली बार क्या गलत किया था लेकिन मैंने ना पूछना ही बेहतर समझा और बोला ठीक है। अबकी बार और मेहनत करूंगी फिर वही सिलसिला शुरू हो गया।
मैं फिर से 11वीं में और 12वीं की अर्धवार्षिक परीक्षा में अव्वल आई लेकिन 12वीं की बोर्ड्स की परीक्षा के समय मुझे टाइफाइड हो गया। एग्जाम के एक दिन पहले मुझे इंजेक्शन लग रहे थे क्योंकि मेरी उल्टियां बंद नहीं हो रही थीं। मुझे कुछ पता नहीं चलता था कि मैं परीक्षा में क्या लिख कर आ रही हूं। मेरे पापा मुझे एग्जाम हाल में बैठा कर आते थे और जो मुझे आता था, वो सब लिख देती थी।
अच्छे नंबर लाने के तनाव ने मेरी दोस्त को मुझसे दूर कर दिया
हमारी परीक्षा हर दूसरे दिन होती थी, उसी बीच होली थी तो हमें 6 दिन की छुट्टी मिली थी क्योंकि हमारे केमिस्ट्री के एग्जाम के बाद बायोलॉजी वालों की परीक्षा थी, तो हम गणित वालो की छुट्टी थी। मैं सो रही थी। मेरी एक सहेली का कॉल आया, मैंने उठाया तो उसने बोला कि मेरी वो दोस्त, जिसके बारे में मैंने ऊपर बताया है। उसने ज़हर खा लिया था और वह अब हमारे बीच नहीं थी।
मुझे कुछ समझ ही नहीं आया कि क्या, क्यों, और आखिर किसलिए? जवाब मिला कि उसका केमिस्ट्री का पेपर खराब हो गया था, तो बायोलॉजी के पेपर के दिन सुबह उसने ज़हर खा लिया। मुझे आज तक लगता है कि काश उससे बात हुई होती! उसको समझाते की लोगों की मत सुनो, मार्क्स सब कुछ नहीं होते हैं लेकिन उसकी हालात मुझे पता थी और आज तक मुझे यह कभी नहीं लगता कि उसने यह जो किया वह अचानक से था।
मैंने उसे सालों से हर रोज़ घुटते हुए देखा था। मुझे समझ आ गया था कि उसने यह क्यों किया? लेकिन किसी ने इस बारे में बात नहीं की। सारे टीचर्स और बड़े लोगों ने यही कहा कि वह मूर्ख थी जो उसने ऐसा किया लेकिन एक ने भी उसके मानसिक तनाव और पीड़ा के बारे में बात नहीं की।
कई सवाल थे जिनका जवाब उस वक्त मिला ही नहीं
किसी ने भी बच्चों से यह नहीं कहा कि कोई बात नहीं अगर मार्क्स कम आते हैं तो क्या हुआ। किसी ने यह नहीं कहा कि योग्यता और ज्ञान का होना ज़रूरी है नंबर नहीं, किसी एक इंसान ने भी ऐसा नहीं कहा। हमसे बोला गया तुम्हारा एग्जाम है चार दिन में और बहुत इम्पोर्टेन्ट वाला है, मैथ्स का! तो इसलिए तुम कुछ मत सोचो बस जाकर पढ़ाई करो।
मैं भी पढ़ने में लग गई लेकिन अंदर से कुछ टूट गया। क्या वह गलत थी? क्या हम सब गलत हैं? क्या जो बताया गया है सिर्फ वहीं सच है? क्या इंजीनियर बनना ही एकमात्र सफलता है? क्या सफलता की परिभाषा वहीं है तो हमें बताई जा रही है?
बच्चों से नहीं पूछी जाती उनके मन की बात
खैर, मैंने भी सारे सवाल कोने में रखे और बीमारी की हालत में ही परीक्षा खत्म करी। उसके बाद से मैं कभी अपने स्कूल वापस नहीं गई। मैंने निश्चय कर लिया कि मैं इंजीनियरिंग नहीं करूंगी लेकिन घर वालों के बोलने पर मैंने जेईई का मेन्स क्लियर किया और फिर बोला कि अब मैंने दिखा दिया कि मैं कर सकती हूं लेकिन मैं यह करना नहीं चाहती, उन्होंने पूछा क्या चाहती हो?
मैंने बोला पता नहीं और एक साल का ड्राप ले लिया। मैं उस समय तक टाइफाइड से रिकवर ही कर रही थी, तो किसी ने ज़्यादा कुछ बोला नहीं। सबने बस यही कहा कि क्यों तुम अपना सब खराब कर रही हो? मुझे बस यह पता था कि मेरी पूरी फैमिली ही इंजीनियरों से भरी है। सब आई आई टी और एन आई टी वाले हैं और इनके बीच में मेरी मानसिक स्तिथि और भी खराब हो जाएगी।
वह बिना बोले जाने वाला प्रेशर मुझे पागल कर देता, मुझे यह बोला जाता था कि तुम हमारे परिवार में सबसे बुद्धिमान हो लेकिन उसके साथ यह बात जुड़ी होती थी कि इसीलिए तुमको सबसे ज़्यादा सफल होना पड़ेगा।
हमें उठानी होगी आवाज़
इन आशाओं और अपेक्षाओं से मैं और मेरा जीवन आज भी भरा हुआ है। मैं साइंस से दूर आ गई हूं जो कि मेरा पसंदीदा विषय था लेकिन जिस दबाव से मुझे दूर आना था वह तो अब ऐसा लगता है कि दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। मुझे नहीं लगता कि मैं कभी उससे दूर हो पाऊंगी। वह अब मेरे पूरे अस्तित्व का एक भाग है जिसने मेरे पूरे जीवन मुझे परिभाषित किया है।
अब एक लाचारी है कि मुझे इसके साथ ही जीना पड़ेगा। हमेशा-हमेशा के लिए लेकिन मैं नहीं चाहती कि यह चलन आगे बढ़े। इसे रोकने के लिए हम सबको मिल कर आवाज़ उठानी पड़ेगी। सफलता की परिभाषा हम खुद निर्धारित करेंगे। हमे यह समझना होगा कि सिर्फ अच्छे मार्क्स लाना ही नहीं सीखना भी ज़रूरी है। कोई और हमारे लिए अब हमारा पूरा जीवन नहीं चुनेगा। हम हैं तो कल है, कल से हम नहीं है।