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“क्या हम राफेल और राम मंदिर की खुशी में 35000 मौतें और बाढ़ का गम भूल जाएं?”

मीडिया खुश है, क्योंकि पाकिस्तान और चीन डर रहे हैं। श्रीराम के भक्त भी खुश हैं, क्योंकि उनके आराध्य को सालों बाद उनका घर मिल रहा है। न्यूज़ चैनल और उनके दर्शक भी खुश हैं लेकिन 35000 मौतों का दुःख आखिर किसे है?

सबसे पहले देश और भारतीय वायु सेना को पांच नए राफेल जेट लड़ाकू विमान मिलने पर बधाई। इससे देश की सुरक्षा और सुरक्षाकर्मियों के मनोबल को अवश्य बढ़ावा मिलेगा।

साथ ही सभी हिन्दू धर्म के अनुयाई देशवासियों को राम मंदिर के हो रहे निर्माण और आने वाले भूमि पूजन की हार्दिक शुभकामनाएं, क्योंकि सालों से अटके फैसलों को फुर्ती से बनाने पर सरकार को भी हार्दिक बधाई।

अब सरकार, वायु सेना और अयोध्या से आगे बढ़कर बात करें तो आज दिनांक 30 जुलाई तक देश में कोरोना मरीज़ों की संख्या पंद्रह लाख के पार हो गई है। जबकि मृतकों की संख्या 35000 के पार पहुंच गई है।

क्या आप सोच सकते हैं कि पन्द्रह लाख मरीज़ और 35000 मौतों का क्या मतलब है? अगर आप इसे देश की एक सौ तीस करोड़ की आबादी से जोड़ना छोड़ दें, तो आप जानते हैं यह कितनी बड़ी संख्या है? पैंतीस हज़ार से अधिक परिवारों ने अपनों को खोया है, क्या आप उनके इस दुःख का अंदाज़ा लगा सकते हैं?

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या आपने इतनी बड़ी संख्या में हुई मौतों का दुःख मीडिया में देखा है? नहीं ना? क्योंकि मीडिया तो खुश है।

मीडिया का एकतरफा रवैया क्यों?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

बहरहाल, बिहार में 55 लाख और असम की बाढ़ से अब तक 22 लाख लोग प्रभावित हो चुके हैं। मरने वालों की संख्या सौ पार पहुंच गई है। देश की आबादी का इतना बड़ा हिस्सा इस वक्त संकट, दुःख, घर और ज़िन्दगी छिन जाने के डर से जूझ रहा है।

देशवासियों के घर डूब चुके हैं, अपने खो गए हैं, मौत सर पर तांडव कर रही है मगर देश का फोकस सुशांत की सीबीआई जांच और कंगना की स्पीच पर है। आखिर क्यों?

तंत्र की असफलता को दिखाते ये आंकड़े भयभीत करने वाले हैं मगर इनसे कहीं अधिक भयावह है इनके प्रति मीडिया का संवेदनहीन रवैया।

मुद्दों की जगह बेतुकी बहस

देश के सभी बड़े न्यूज़ चैनलों की “बड़ी और खास बहस” के मुद्दे की जगह अमिताभ बच्चन के कोरोना हो जाने के बाद राफेल और मंदिर ने ले ली है। भूमि पूजन की तैयारियां, कोरोना के मध्य होने वाले आयोजन के विरुद्ध बोलने वालों की कड़ी निंदा हो रही है।

कभी-कभी इन बहसों में सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु और उससे जुड़ी मीडिया की कहानियां, अनुमान, दोषारोपण जगह ले लेता है। उस पर वाद-विवाद, कंगना, नेपोटिज़्म आदि घंटों तक दिखाया जाता है। इसमें सबसे दुखद यह है कि सुशांत की मृत्य से जुड़ी खबरों‌ को कई बड़े अखबारों में “मनोरंजन” के सेक्शन में रखा जाता है।

इन बड़ी, ज़ोर-शोर से होने वाली बहसों के बीच जो मरकर दम तोड़ देती है, वह है कोरोना के मरीज़ों और बाढ़ पीड़ित गरीबों की पुकार।

अपनों को खो देने वालों के मुंह में माइक ठूंसने वाली मीडिया के लिए बाढ़ तो हर साल आती है। कोरोना से होने वाली मृत्यु की संख्या अब जनता को भी साधारण, रोज़ होने वाली गिनती लगने लगी है। इस नॉर्मलाइज़ेशन की वजह है मीडिया का इस संकट के प्रति लापरवाह और पक्षपातपूर्ण रवैया।

धर्म के नाम पर लोगों को बांटती और असल मुद्दों से भटकाती मीडिया को देखकर लगता है कि काश! देश में हज़ारों न्यूज़ चैनलों की जगह कुछ सौ सोनू सूद होते तो देश की हालत निश्चित ही बेहतर होती।


संदर्भ- टाइम्स ऑफ इंडिया, द वायर

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