‘स्त्री’ कोई साधारण शब्द नहीं है। यह स्वयं में एक ग्रंथ है, एक वेद है, एक महाकाव्य है। ईश्वर ने जब सृष्टि की रचना के बारे में विचार किया होगा, तो उनके मन में प्रथम सवाल यही आया होगा कि ऐसा कौन व्यक्ति संभव होगा जो धैर्यवान भी हो, सहनशील भी और दयालु भी। तब उसकी नज़र में स्त्री ही उसके सम्पूर्ण मापदंडों में खरी उतरी होगी।
उसने महसूस किया होगा कि निर्माण की शक्ति यदि किसी में सम्भव है, तो वह एक मात्र स्त्री ही है। इसलिए उसने स्त्री को जन्मदात्री के रूप में चुना।
स्त्री को लेकर ईश्वर का मंथन
तदोपरांत ईश्वर ने मंथन किया होगा स्त्री के शरीर पर। उसके लिए यह भी चुनौतीपूर्ण रहा होगा कि एक पुरुष और स्त्री में ऐसा क्या विभेद किया जाए जो उसे समाज मे अति विशिष्ट होने का दर्ज़ा प्रदान करें। ईश्वर ने उसे जन्म देने की शक्ति प्रदान करने के लिए लिंग में सर्वप्रथम बदलाव किया।
योनि से बच्चे को जन्म देने की ईश्वरीय शक्ति परमात्मा ने स्त्री को प्रदान की है। उसने बच्चे के पालन-पोषण का भी विशेष ख्याल रखा है।
इसलिए उसके शरीर के ऊपरी हिस्से में भी पुरुषों से इतर बदलाव किए हैं। ईश्वर ने एक स्त्री को अपने बच्चे को मज़बूत और सक्षम बनाने के लिए, उसको मातृत्व का एहसास देने हेतु स्तन प्रदान किए हैं, जिससे वह बच्चे को भूख लगने पर स्तनपान करा सके।
जब मैं छोटा था तो किस तरह मेरे सवालों पर माँ जवाब दिया करती थीं
स्त्री का इस धरा पर पादार्पण सृष्टि की निरन्तरता बनाए रखने के लिए किया गया है। जब मैं छोटा था तब मेरे मन में भी तमाम सवाल उठा करते थे कि हम दुनिया में कैसे आए?
जब कभी मैं माँ की शादी की फोटो देखा करता था, तो पूछता था कि इसमें मैं तो हूं ही नहीं। तब माँ कहा करती थी कि तुम तब नहीं थे।
मैं फिर पूछ लेता था कि उस वक्त मैं कहा था? तब माँ कहती थी कि तुम भगवान के पास थे। मेरे सवालों का सिलसिला यही नहीं रुकता था, मैं फिर पूछता था कि भगवान के पास से यहां कैसे आया? तब हारकर माँ कहती थी कि भगवान जी खुद तुमको यहां छोड़ गए।
जब मैं स्वयं में भी बदलाव महसूस कर रहा था
वह बचपन था, तब कहां पता था कि मैं जिस विषय पर बात कर रहा हूं, वह एक नारी के जीवन का स्वर्णिम अध्याय है। यह वह अध्याय है जब एक स्त्री स्वयं को संपूर्णता की ओर अग्रसर करती है। विद्यालय के दौरान जब हम कक्षा 9 में पहुंचे थे तो हम समझने लगे थे कि एक स्त्री और पुरुष में प्रजनन स्वरूप क्या बदलाव होते हैं।
एक पुरुष होने के नाते मैं स्वयं में भी तमाम बदलाव महसूस कर रहा था। उसी बदलाव के साथ-साथ मैं अपने आस पास देख पा रहा था एक स्त्री में बदलाव को होते हुए।
माहवारी के प्रारंभ से स्त्री की ज़िंदगी में जंग का आगाज़
स्त्रियों में बदलाव शुरू होते हैं माहवारी के प्रारंभ से। माहवारी को लेकर समाज में अत्यंत नकारात्मक दृष्टिकोण है। मैंने इस दृष्टिकोण को अपने परिवार में भी देखा है। माहवारी को लेकर एक भेदभावपूर्ण व्यवहार अत्यंत पीड़ादायक होता है।
जो क्रिया ईश्वर प्रदत्त है, उसके प्रति भी इतनी घृणा व नकारात्मकता आखिर क्यों? माहवारी वह क्रिया है जिसके कारण ही बच्चे का जन्म हो पाना सम्भव है, उसके लिए इस तरह मिथ्यात्मक विचार आखिर क्यों?
माहवारी पर खुलकर चर्चा ना करना रोगों को न्यौता देना है
इन मिथ्यात्मक सिलसिलों का टूटना बेहद ज़रूरी है। इन नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण ही महिलाएं सेक्स संबंधित समस्याओं को खुलकर नहीं कह पाती हैं।
आखिर सेक्स, सेक्शुअल लाइफ और शरीर की बनावट पर चर्चा किए जाने के लिए महिलाओं के साथ ही दोहरा रवैया क्यों है? ऐसे दोहरेपन वाले समाज में विरोध के स्वर को बुलंद करना बेहद ज़रूरी है। माहवारी पर खुलकर बात ना किए जाने का ही परिणाम है कि ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं तमाम बीमारियों से ग्रसित हो जाती हैं।
जब एक महिला से माहवारी पर हुई चर्चा
एक रोज़ मेरी बात एक महिला से हुई थी। मैंने उनसे माहवारी को लेकर विस्तृत चर्चा की थी। उन्होंने बताया कि माहवारी को लेकर सरकार का दृष्टिकोण ही महिलाओं के प्रति बेहद नकारात्मक है।
उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा सस्ते व सुलभ सैनिटरी पैड्स उपलब्ध ना करा पाना सिस्टम की विफलता है। उन्होंने बताया कि वो जिस मकान में किराए पर रहती हैं, उसके मकान मालिक धनाढ्य नहीं हैं। वे छोटा-मोटा काम करते हैं और बाकी का खर्च मकान में रह रहे लोगों के किराए से ही चलता है।
एक रोज़ मकान मालकिन की बेटी ने मुझसे कहा,” दीदी, क्या आप पर पैड हैं? वो क्या है दीदी कपड़े से बहुत दिक्कत होती है, मुझे संभाल पाना बहुत कष्टकारी होता है। स्कूल जाना होता है तो सब कपड़े बेकार हो जाते हैं। इसलिए मेरा मन स्कूल जाने का भी नहीं करता है।”
उसकी बातों को मैं गंभीरता से सुन रही थी। मैंने उसे पैड देते हुए पूछा कि मम्मी से नहीं कहा पैड लाने को? उसने कहा, “मम्मी कहती हैं कपड़े की आदत डालो। पैड के लिए रुपये पेड़ पर नहीं लगते। यह तो हर महीने का है। ऐसे कितने रुपये खर्च किए जाएं?”
उसकी बातें सुनकर मैं स्तब्ध थी। मैंने उससे कहा कि तुम हर महीने मुझसे पैड ले सकती हो मगर एक वादा करना होगा कि तुम रोज़ स्कूल जाओगी। उसने चहकते हुए कहा, “दीदी, मैं अब स्कूल की छुट्टी बिल्कुल नहीं करूंगी।”
जब मैं अचंभित हो गया था
उस महिला ने मुझे जब यह घटना सुनाई तो मैं भी अचंभित था। दरअसल, मुझे भी पैड के मूल्य के बारे में जानकारी नहीं थी। कभी खरीदने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई।
इसलिए मैंने उन महिला से ही पूछा कि पैड का मूल्य कितना होता है? उन्होंने बताया कि एक पैड की कीमत न्यूनतम 10 से 12 रुपये पड़ती है। महिला को माहवारी एक माह में सामान्यतः 4 से 5 दिन होती है, तो उसका खर्च होता है 50 से 60 रुपये मासिक। जो कि हर सामान्य परिवार के लिए बहुत कठिन है।
माहवारी में कपड़े का प्रयोग हमारी आधुनिकता पर तमाचा है
कपड़े के प्रयोग का चलन महिलाओं के साथ बेहद भद्दा मज़ाक है। एक कपड़े का प्रयोग किया जाना कितना हानिकारक होता होगा, यह अगर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझा जाए तो यह बेहद भयावह होगा। इंफेक्शन का डर ना जाने कितनी महिलाओं के जीवन को निगल जाने को तैयार बैठा है।
ग्रामीण क्षेत्रों में हालात यह भी है कि महिलाएं जिस कपड़े का प्रयोग करती हैं, उसी कपड़े को पुनः धोकर अगले माह भी प्रयोग करती हैं। सोचिए, क्या ऐसी स्थिति में हम महिलाओं को जान बूझकर मौत के मुंह में नहीं ढकेल रहे हैं?
माहवारी को समाज ने एक गंदा विषय बना दिया है
आखिर यह समस्या उपजी क्यों है? यदि आप इस प्रश्न की तह में जाइएगा तो आपको अंदाज़ा होगा कि समाज ने माहवारी को एक गंदा विषय बना दिया है, जिस पर चर्चा करना व सुझाव देना गलत समझा जाता है।
यही सोच माहवारी की समस्याओं से महिलाओं को उनका हक़ नहीं लेने देती है। पुरुषों का इस विषय में खुलकर बात किया जाना बेहद जरूरी है। यदि पुरुष माहिलाओं के इस विषय पर खुलकर उनका साथ देंगे तो मुझे उम्मीद है कि वे अपनी समस्याओं को खुलकर साझा कर सकेंगी व उनका निदान भी खोज सकेंगी।
सरकार से मेरी गुज़ारिश
सरकार की भी ज़िम्मेदारी है कि पैड की उपलब्धता जन-जन तक हो इसकी चिंता किया जाना बेहद ज़रूरी है। सरकार को मेरा भी एक सुझाव है कि जिस तरह प्रत्येक गाँव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत राशन वितरित किया जाता है, उसी अनुसार हर परिवार की महिलाओं को निःशुल्क या सस्ते दाम पर उनको सैनेटरी पैड उपलब्ध कराए जाएं ताकि उनमें आत्मनिर्भरता का विकास हो और वे समाज से स्वयं को जोड़ने का प्रयास कर सकें।
यदि हम पैड की उपलब्धता का लक्ष्य गाँव में पूर्ण करने में सफल रहें, तो यकीन मानिए भविष्य में फिर कभी यौनिक समस्याओं से महिलाओ को जूझना नहीं पड़ेगा।
यह कदम सरकार के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता है और महिलाओं के लिए संजीवनी बूटी सिद्ध हो सकता है। आशा है सरकार इस ओर विचार अवश्य करेगी।