आम आदमी को ज़ेड प्लस सेक्योरिटी मिल जाए तो क्या होगा? साल 2014 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘ज़ेड प्लस’ इसी पर बनी रोचक और महत्वपूर्ण फिल्म थी। जो असलम पंचर वाले के लिए मुसीबत का दूसरा नाम बन गई थी। हाई प्रोफइल ज़ेड प्लस सुरक्षा मिलने से असलम (आदिल हुसैन) की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में नाटकीय बदलाव होने लगते हैं।
मामूली आमदनी से परिवार का पेट पालने वाला असलम इससे पहले बेफिक्र होकर ज़िंदगी काट रहा था। पीर वाले बाबा के दर का मुरीद असलम अकीदत में वहां का खिदमतगार बनकर चला गया।
इत्तेफाक देखिए उस रोज़ ही सियासत के मुखिया यानी देश के प्रधान दुआओं की खातिर वहां आ गए। तकदीर को भला कहें या बुरा कि जिसने असलम को उनसे मिला दिया।
असलम पंचरवाले की हो जाती है प्रधानमंत्री से मुलाकात
किसी ख्वाज़ा या पीर की दरगाह पर मुराद लेकर आनेवालों की फेहरिस्त में एक आला सियासतदां का भी नाम जुड़ गया था। मुसीबत के वक्त ही दुनियादारों को खुदा के प्यारे बंदे याद आया करते हैं। यही नहीं औलिया फकीर भी याद आया करते हैं।
सरकार को मंझधार से निकालने के लिए एक फकीर की दहलीज़ पर सरकार के मुखिया चले आए थे लेकिन प्रधानमंत्री के आने से बस्ती वालों को अपनी मुरादें पूरी होती दिख रही थीं।
पीएम को मज़ार पर एक खिदमतगार की शक्ल में असलम पंचरवाला मिल गया। असलम वहां यूं पहुंचा कि कुंबे से दरगाह का खाविंद बनकर जाने में उसका दिन ही बदल गया था। एक बड़े सियासतदां के वहां पहुंचने से असलम को अपनी परेशानियों से निकलने के लिए उनकी मदद मांगने का अवसर मिला। असलम की छोटी बड़ी परेशानियों में आशिक मिजाज़ शायर हबीब ज़्यादा परेशान कर रहे थे।
असलम व आशिक मिजाज़ हबीब में पड़ोसी के प्यार की जगह तकरार का सीन था। दुश्मनी की वजह सईदा थीं। दोनों का दिल सईदा के इश्क में दीवाना जो था।
‘जेड प्लस सुरक्षा’ असलम की ज़िंदगी में लाती है नाटकीयता का तूफान
पड़ोसियों में तल्खी दिखाने के लिए कश्मीर रूपक का इस्तेमाल सटायर का दिलचस्प नमूना था। मानो हबीब व असलम पड़ोसी ना होकर चिर प्रतिद्वंदी भारत-पाकिस्तान हों। बहरहाल असलम पीएम को अपनी परेशानी से अवगत कराने का प्रयास करता है। देशज जबान के इस्तेमाल में असलम एक मिसकम्युनिकेशन का शिकार बन जाता है। बोली के फेर में उलझे पीएम असलम की दुखती रग को ठीक से जान नहीं पाते।
पड़ोसी हबीब से परेशान शख्स को पाकिस्तान से परेशान मान कर ज़ेड प्लस की फज़ीहत देकर चले जाते हैं। एक पंचरवाले की सीधी-सी जिंदगी में नाटकीयता का तूफान आ जाता है। जाने अनजाने बेचारे की ज़िंदगी सरकारी पचड़े में फंस कर रह जाती है।
फ़िल्म कहती है कि अनिवार्य चीज़ों का पूरा होना ज़्यादा ज़रुरी माना जाना चाहिए। असलम के साथ पेश आई बातें हंसाने के साथ-साथ लोकतंत्र से सीधे संवाद के असरदार हालात बनाती हैं। पंचर वाले की यह कहानी एक उदहारण-सी बनी जिसमें सरकारें जनता के मुद्दों को दरअसल ठीक से समझ ही नहीं पातीं।
क्या संदेंश देती है ‘ज़ेड प्लस’
खुशहाल ज़िंदगी की तलाश में जनता कभी ना खत्म होने वाले अंतहीन सफर पर निकल जाती है। जीवन के सिरे दुःख देने लगते हैं। रामकुमार सिंह की कहानी पर बनी “जेड़ प्लस” यह संदेश दे गई कि आम आदमी सत्ता से केवल ज़िंदगी का सुकून मांगता है लेकिन विसंगतियों से जूझते आदमी की ज़िंदगी में परिवर्तन नज़र नहीं आता।
वह कल भी समस्याओं से लड़ रहा था, आज भी लड़ ही रहा है। क्योंकि आज भी वह समस्याएं नहीं बदली। नई शक्ल में वह आज भी लोगों को तंग कर रही हैं और विकराल रूप ले चुकी हैं। रात-दिन की मेहनत के बाद भी नसीब नहीं बदलता। सिर्फ काम बदल जाता है। कई बार वह छूट भी जाया करता है।
आम आदमी सरकार से अधिक मांग नहीं करता
यच सच है कि जनता सरकार बनाकर भी सरकार से मन से मांग नहीं सकती है। हालात तो यह हैं कि जनता के सवाल पर सरकार कभी-कभार ही सुनवाई करती है। फिल्म में संजय मिश्रा की शक्ल में बर्बाद व खस्ताहाल ज़िन्दगी गुज़ार रहे इंतेहापसंदों का मानवीय कोना भी है। आशिकमिजाज़ शायरी का एक किरदार मुकेश तिवारी के हबीब में रोचक अंदाज़ में पेशेनज़र है।
असलम पंचरवाले की कहानी मसाला फिल्मों के नायकों से मेल नहीं खाती। चंद्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन की प्रशंसा करनी चाहिए। इस तरह के आम से दिखने वाली लेकिन खास लोगों पर फिल्में आपने कम ही देखी होंगी।
रोज़मर्रा के नायक आज भी सिनेमा में अपना अक्स तलाश रहें हैं
सच मानिए रिक्शेवाले, सब्ज़ीवाले, ठेलेवाले, पंचरवाले इन लोगों पर फिल्म बनाना आसान नहीं। आज का सच यही है कि लोग बेहतरीन फिल्मों को देखना शुरू करें, बुरी फिल्में फिर से परेशान नहीं करेंगी। फिल्म का चलना, ना चलना एक बात है लेकिन रामकुमार सिंह की कहानी काबिल-ए-तारीफ है। सोशल मीडिया से लेकर हर अखबार में इसकी चर्चाएं भी खूब हुईं।
फिल्म से गुज़रते हुए आपका भी दिल साहसी फिल्मकार चंद्रप्रकाश द्विवेदी की ज़ेड प्लस की तारीफ करने को करेगा। सौ करोड़ क्लब की फिल्मों ने जिन लोगों को निराश किया वह ज़ेड प्लस सरीखी फिल्मों की तरफ जाएंगे।
बॉक्स आफिस की दुनियादारी में एक हिस्सा इस किस्म के सिनेमा का भी ज़रूर बनता है। मनोरंजन की एक खुबसूरत परिभाषा आपका इंतज़ार कर रही। भीड़ से अलग होने का नुकसान खुदावर जुनूं के दीवानों को ना उठाना पड़े इसके लिए आगे भी ऐसी फिल्में बनती रहनी चाहिए।