बी.एच.यू में स्नातक और परास्नातक के अंतिम वर्ष के स्टूडेंट्स के लिए परीक्षाएं कराने की बात सामने आई हैं। इसके लिए संकायों और संस्थानों में तैयारी भी शुरू कर दी गई है। कहने को थर्मल टेस्टिंग और तमाम सावधानियों की बात भी की जा रही है। स्टूडेंट्स से परीक्षा के पहले सहमति-पत्र भरवाने की भी बात कही गई है।
बढ़ती महामारी के बीच परीक्षाएं कराना कितना ठीक है?
बी.एच.यू ने भी पूरे देश की ही तरह मार्च में ही आधिकारिक रूप से विश्वविद्यालय बंद कर दिया था। 21 मार्च को जब केवल 92 केस थे तब स्टूडेंट्स को परिसर छोड़कर अपने अपने गृह राज्य वापस आना पड़ा था लेकिन अब जब देश कोरोना के लगभग 13 लाख मामलों के साथ दुनिया में तीसरे नंबर पर है। हर रोज़ 45 हज़ार के ऊपर नए मामले सामने आ रहे हैं।
इसी बीच अचानक यू.जी.सी ने अंतिम वर्ष के स्टूडेंट्स के लिए 20 अगस्त के बाद परीक्षएं करवाने का नोटिस जारी कर दी है। ऐसे में यू.जी.सी का यह निर्णय कितना न्यायसंगत और उचित है? जब मामले कम थे, तो विश्वविद्यालय बंद कर दिया गया था, अब मामले बढ़ने पर परीक्षाएं होंगी?
लॉकडाउन और अनलॉक का खेल हर राज्य में अलग-अलग चल रहा है। कहीं यातायात बंद है, कहीं बाज़ार बंद हैं। कहीं अस्पतालों की हालत खस्ता है, तो कहीं बाढ़ के हालात हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में स्टूडेंट्स और उनके परिवारवालों की जान तक जोखिम में है।
क्या है स्टूडेंट्स का कहना?
बी.एस.सी स्टैटिस्टिक्स ऑनर्स के छात्र शिव शंकर का कहना है, “ मैं फिलहाल किसी भी तरीके की परीक्षा के लिए तैयार नहीं हूं। हर रोज़ हज़ारों लाखों केस सामने आ रहे हैं। बी.एच.यू. प्रशासन की थर्मल टेस्टिंग आदि बातों पर मुझे ज़रा भी भरोसा नहीं है। इसलिए हम सभी छात्रओं की एक ही मांग है कि सभी स्टूडेंट्स की परीक्षाएं स्थगित कर दी जाएं।”
बी.ए. आर्ट्स एंशियंट हिस्ट्री की छात्रा तान्या सिंह कहती हैं, “अभी आए यू.जी.सी के गाइडलाइन के हिसाब से हमें 20 अगस्त तक अपने कॉलेज पहुंच कर आखिरी सत्र की परीक्षाएं देनी हैं जो मेरे लिए नामुमकिन है।”
उनका कहना है, “मैं छत्तीसगढ़ में रहती हूं और यहां से बनारस जाने के लिए ट्रेन या प्लेन से जाना होगा जो कि बिलकुल भी सुरक्षित नहीं है और ना ही आसानी से रिज़र्वेशन ही मिल पाएगा। इसके अलावा छत्तीसगढ़ में लॉकडाउन फिर से लागू किया गया है। ऐसे में मेरे लिए सफर करने के बारे में सोचना भी मुश्किल है।”
तान्या को बी.ए. के बाद एम.ए. के लिए प्रवेश परीक्षाएं भी देनी हैं। इस पर तान्या का कहना है कि यू.जी.सी ने प्रवेश परीक्षाओं के लिए 15 अगस्त की बाद की तारीखें निकाली थीं। लॉकडाउन की वजह से हमें अपने निकटतम परीक्षा केंद्र को चुनने का मौका दिया गया था। यदि हम दोनों परीक्षाओं में बैठने का सोच भी रहे हैं, तो कम-से-कम हमें बीच में 14 दिनों का क्वारंटाइन पीरियड सफर के बाद पूरा करना होगा।
यह नामुमकिन है। हम जैसे मध्य वर्गीय परिवारों के लिए इस महामारी के बीच इतना सफर करना बहुत मंहगा पड़ सकता है। मानसिक तनाव और करियर का प्रेशर अलग से है, जिसकी कोई गिनती ही नहीं है।
अभिभावक भी हैं चिंतित
बी.ए. हिंदी ऑनर्स की छात्रा विदिता श्रीवास्तव ने अभिभावकों और परिजनों की चिंता व्यक्त करते हुए कहती हैं, “आज जब हमारे अभिभावक वायरस के डर से हमें घरों के आस-पास निकलने देने में डर रहे हैं, तब यह कहा जाना कि हम सभी विश्वविद्यालय वापस आकर अपनी परीक्षाएं दें। यह कितना उचित है? जनरल प्रमोशन की मांग और उसके द्वारा प्राप्त डिग्री को अमान्य सिद्ध करना कहां तक उचित है?”
नाम ना लिखने की शर्त पर अंतिम वर्ष की एक छात्रा ने बताया, “परीक्षाओं की अनिश्चित परिस्थिति ने सब कुछ रोक दिया है। हम में से अधिकांश लोगों ने हमारी किताबें, हमारे लैपटॉप वगैरह छात्रावासों में ही छोड़ी थीं। हमें नहीं पता था यह लॉकडाउन यहां तक आ जाएगा।”
वे आगे बताती हैं, “केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हर जगह के छात्र हैं जो कि अलग-अलग आर्थिक स्तर से आते हैं। हमारे पास घरों में अध्ययन करने के लिए कोई साधन नहीं है। यहां तक कि सुरक्षित यात्रा करने तक के साधन नहीं हैं।”
उनका मानना है कि यह समस्या सिर्फ शिक्षा और करियर तक सीमित नहीं है, बल्कि स्वास्थ्य, हमारे परिवार, गरीबी और हमारा मानसिक संघर्ष भी इसमें शामिल हैं। हम अंतिम वर्ष के स्टूडेंट्स के लिए यह साल एक नए सफर की शुरूआत का साल होता है।
यह साल हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण था। कभी-कभी फोन पर बात करते हुए मेरे दोस्त रो पड़ते हैं। उन्होंने सच में उम्मीद खो दी है लेकिन इसके बारे में कोई सुनने-समझने वाला नहीं है।
क्या सिर्फ डिग्री ही रखती है मायने?
एम.एस.सी सायकोलॉजी की छात्रा मिनेशी मिश्रा का कहना है, “अंतिम वर्ष का स्टूडेंट्स को पहले से ही प्रवेश परीक्षओं के भार के साथ दबा हुआ महसूस करता है। कोरोना संकट के कारण उनके भविष्य में अनिश्चितता भी बढ़ गई हैं। इस अनिश्चितता के बीच होने वाली परीक्षाएं वे कैसे देंगे? और इससे भी बड़ा सवाल है कि किस माध्यम से देंगे?
उनका कहना है कि हममें से अधिकांश लोग एक सप्ताह में वापस आने की उम्मीद के साथ बिना किसी किताब या संसाधनों के होली की छुट्टी पर चले आए थे। हममें से अधिकांश के पास अध्ययन सामग्री का अभाव है। हममें से कुछ पिछड़े क्षेत्र से हैं और हमारे पास पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। ऑनलाइन अध्ययन के लिए लैपटॉप या इंटरनेट का अभाव है।
इसके अलावा पाठ्यक्रम भी पूरा नहीं हुआ था। पढ़ने की सामग्री हमारे साथ नहीं है। ऐसे यदि अध्ययन (ज्ञान) के उद्देश्य से पहले ही समझौता कर लिया गया है, तो क्या वास्तव में यह परीक्षाएं हैं? या शायद यह कुछ इंगित करता है कि हमारी शिक्षा प्रणाली डिग्री के लिए ज़्यादा परेशान है, शिक्षा और ज्ञान के लिए नहीं।
मिनेशी शिक्षा प्रणाली और नीति निर्माताओं की लापरवाही ज़ाहिर करते हुए कहती हैं कि अंतिम वर्ष के स्टूडेंट्स ने आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर ही सेमेस्टर परीक्षाओं में अंक देने का आग्रह किया है। यह इस आधार पर कि अगर प्रथम और द्वितीय वर्ष के स्टूडेंट्स को छूट दी जाती है, तो वही आधार और तर्क अंतिम वर्ष के स्टूडेंट्स के लिए लागू क्यों नहीं होने चाहिए?
स्टूडेंट्स की तबीयत बिगड़ी तो ज़िम्मेदार कौन होगा?
बी.ए. फ्रेंच ऑनर्स के अंतिम वर्ष के छात्र रोहन कुमार पटना के रहने वाले हैं। वह अपनी परेशानी बताते हैं, “मेरे घर पर मेरे बड़े भाई फ्रंटलाइन वर्कर हैं। वे पॉज़िटिव पाए गए हैं। मेरी तबियत भी बिगड़ी हुई है। मेरी टेस्ट रिपोर्ट निगेटिव आई है लेकिन मानसिक रूप से पूरा परिवार अभी भी संघर्ष कर रहा है। ऐसे में मैं बी.एच.यू. तो क्या घर से बाहर कदम रखने तक की नहीं सोच सकता।”
स्टूडेंट्स के बयानों में उनका तनाव, चिंता, डर सब कुछ साफ नज़र आ रहा है। अलग-अलग राज्यों से छात्र जब पब्लिक ट्रांसपोर्ट के ज़रिए आएंगे, तो ना जाने कितने और लोगों की जान जोखिम में जाएगी।
स्टूडेंट्स की सभी बातें बिल्कुल चिंतनीय हैं। यू.जी.सी को अपने निर्णय पर एक बार फिर सोचना-विचार करना चाहिए। एक निर्णय शायद हज़ारों-लाखों लोगों की जान ले सकता है। यदि इन परिक्षाओं के दौरान स्टूडेंट्स की तबियत ज़रा भी खराब होती है, तो इसका ज़िम्मेदार यू.जी.सी और बी.एच.यू प्रशासन ही होगा।