अमेरिकी अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या की खबरों के बाद से भारत में विभिन्न प्रकार के भेदभावों को लेकर विरोध के स्वर तेज़ हो रहे हैं। लोग काफी मुखर होकर सोशल मीडिया पर या तो अपना अनुभव साझा कर रहे हैं या किसी घटना का विरोध कर रहे हैं।
इन सबके बीच बड़ा सवाल यह है कि एक दलित के तौर पर हमने जिन भेदभावों को झेला है, क्या सोशल मीडिया पर हैशटैग ट्रेंड कराने भर से सदियों पुरानी जाति प्रथा खत्म हो जाएगी? नहीं ना? फिर हम सोशल मीडिया पर क्यों ढोंग कर रहे हैं?
मेरा सरनेम दास है, जिसे सुनते ही झारखंड के ब्राह्मणों के इलाकों में लोगों की भौहें तन जाती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हम चमार हैं। चलिए समाज में हमारे साथ भेदभाव होता है तो हम यह कहकर टाल देते हैं कि अच्छा समाज में तो कई प्रकार के लोग रहते हैं मगर शिक्षा के मंदिर में यदि जातिगत भेदभाव हो तो क्या कहिएगा?
मैंने झारखंड के दुमका ज़िले के एक प्राइवेट स्कूल से 10वीं की पढ़ाई की है। मुझे याद है 9वीं कक्षा में हमारे क्लास टीचर आनंद मिश्रा जैसे ही क्लास में प्रवेश करते थे कि दलित स्टूडेंट्स खौफ में आ जाते थे। इस सूचि में मैं भी शामिल था।
आनंद सर गर्मी की छुट्टियों में अपने घर बिहार गए थे तो हमने सोचा कि चलो स्कूल खुलने के बाद वो तुरन्त तो आएंगे नहीं, ऐसे में हम जो भी दलित स्टूडेंट्स हैं, सामने वाली बेंच में बैठ जाएंगे। हमने ऐसा ही किया मगर हां क्लास में सवर्णों को इससे कोई आपत्ति नहीं होती थी।
हम सब बैठकर आराम से बातें कर ही रहे थे कि आनंद सर पहुंच गए। उन्होंने आते ही मुझे एक थप्पड़ लगाया और कान पकड़कर मुझे पीछे की बेंच पर बैठा दिया। मेरे साथ और भी जो दलित स्टूडेंट्स थे, उन्हें भी छड़ी से पीटते हुए पीछे की बेंच पर बैठा दिया।
हमारे साथ लगातार आनंद सर भेदभाव करते रहे मगर किसी ने कुछ नहीं कहा। कक्षा में यदि उन्हें मुझसे कुछ कहना होता था, तो वो “रे चमरवा” कहकर मुझे संबोधित करते थे। स्कूल में कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम होने पर आनंद सर हमें अलग बर्तन में भोजन देते थे। मैं डर से घर आकर यह सब बात पेरेन्ट्स को नहीं बताता था।
मुझे याद है एक रोज़ प्रार्थना सभा के दौरान आनंद सर यह जांच कर रहे थे कि किन स्टूडेंट्स के नाखून बढ़े हुए हैं। जब मुझ तक पहुंचने की बारी आई तो उन्होंने मेरी उंग्लियों को नहीं छुआ और सबके सामने बोला, “रे चमरवा उंगली दिखाओ।”
भेदभाव का यह सिलसिला जारी रहा। किसी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। इन भेदभावों को झेलते हुए हम 10वीं कक्षा में पहुंच गए और स्कूल से निकल भी गए मगर ना बात विद्यालय प्रशासन तक पहुंची और ना ही सर के तेवर में कोई बदलाव आया। आज भी मेरे कई जूनियर बताते हैं कि सर का वो जातिवादी तेवर अब भी बरकरार है।