हिंदी साहित्य के कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने कहानियों के द्वारा अपने समय की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का चरित्र चित्रण किया है।
प्रेमचंद जी ने अपनी कहानी ‘सवा सेर गेहूं’ में उस समय के गरीब किसान के शोषण की स्थिति को बताया है, क्योंकि उस समय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मुद्रा का प्रचलन नहीं था और वस्तुओ का अदल-बदल होता था, जिसे बार्टर सिस्टम के नाम से जाना जाता है।
महाजनी प्रथा और गरीब किसान
‘सवा सेर गेहूं’ नामक कहानी में शंकर नाम का एक गरीब किसान रहता है। वह किसी तरह अपना जीवन-यापन करता है। एक दिन उसके घर में एक साधु-महात्मा आ गए और गेहूं के आटे की रोटी खाने की मांग कर बैठे। शंकर, साहूकार के घर से गेंहू का आटा ले आता है और फसल होने पर उससे ज़्यादा गेहूं साहूकार को दे देता है।
शंकर बहुत भोला-भाला था इसलिए वह अपना हिसाब साहूकार से नहीं करता है। साहूकार सवा सेर गेंहू को पांच मन बता देता है जिसका ऋण चुकाते-चुकाते शंकर मर जाता है। शंकर के मरने के बाद उसके पत्नी व बेटे को साहूकार गुलाम बनाकर अपने खेतो में कम करवाता है और सवा सेर गेहूं का ऋण कभी नहीं खत्म होता है।
मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित इस कहानी में हमें यह देखने को मिलता है कि किस प्रकार अपनी छोटी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सामंतवादी भारत में गरीब किसान महाजनों के चंगुल में फंस जाते हैं।
मुंशी प्रेमचंद ने जिस कालखंड में यह कहानी लिखी थी, उस कालखंड और वर्तमान कालखंड में बहुत अंतर है। मुंशी प्रेमचंद ने आज़ादी से पहले ‘सवा सेर गेहूं’ नामक यह कहानी लिखी थी। उस समय देश गुलाम था, ज़मीदारी प्रथा थी।
देश आज़ाद हो गया जिसके बाद ज़मीदारी उन्मूलन कानून लाया गया लेकिन वर्तमान समय में भी अगर हम समाज में देखें तो शोषक और शोषित वर्ग दोनों विद्यमान हैं। आज शोषण का तरीका बदल गया है। उस समय सिर्फ शारीरिक गुलामी थी मगर आज शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की गुलामी हमारे समाज में व्याप्त है।
आज के समाज में शोषण का तरीका बदल गया है
प्रेमचंद जी ने अपनी कहानी में जिस बंधुआ मज़दूरी की बात की है, वो सिर्फ शारीरिक गुलामी थी क्योंकि कई पीढ़ियां उस गुलामी में फंसी रहती थी लेकिन आत्महत्या जैसे मामले उस समय नहीं होते थे। उस समाज की तुलना अगर हम आज के समाज से करें तो आज के किसान आत्माहत्या करने को मजबूर हो जा रहे हैं।
जिस बंधुआ मज़दूरी का ज़िक्र प्रेमचंद जी अपनी कहानी के माध्यम से करते हैं, वो हमारे समाज में अभी भी कहीं ना कहीं दिखाई देता है। बंधुआ मज़दूरी व्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, कानून जिसकी इजाज़त नहीं देता है।
अगर अभी भी समाज में ऐसी स्थिति देखने को मिलती है, तो आज़ादी से पहले हमने जिस लोकतंत्र का सपना देखा था शायद आज उससे दूर रह गए।
कृषि क्षेत्र में दीर्घकालीन समस्या बनी हुई है। आज भी हमारे देश की आधे से अधिक जनसंख्या कृषि क्षेत्र में लगी हुई है। इस क्षेत्र में लागत और आमदनी के बीच का फासला लगातार बढ़ता जा रहा है, जो वर्तमान समय में देश के सामने सबसे बड़ी समस्याओ में से एक है।
इसके साथ ही साथ कृषि क्षेत्र में मौसमी बेरोज़गारी भी बनी हुई है। जिस मौसम में फसल होता है उसी मौसम में रोजगार मिलता है। अन्य मौसम में रोज़गार के अवसर बहुत कम दिखाई देते हैं।
इन सभी समस्याओं के समाधान के लिए सबसे पहले कृषि पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। सबसे पहले कृषि क्षेत्र से जनसंख्या की निर्भरता को कम करना होगा।
कृषि क्षेत्र में जो अतिरिक्त श्रमिक लगे हुए हैं, उनको औद्योगिक क्षेत्र में शिफ्ट करना होगा। लागत और आमदनी के बीच का फासला कम करना होगा। वरना आने वाले समय में यह समस्या और अधिक गंभीर रूप लेने जा रही है।