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पितृसत्ता को बढ़ावा देने वाले हिन्दी फिल्मों के इन गीतों का मतलब क्या है?

दिल के अरमां ज़िन्दगी में छा गए

वैसे तो बॉलीवुड हमेशा से पितृसत्ता के अधीन रहा है। इसने कहीं से भी एक असहाय और बेबस से पुरुष अभिनेता से हमारा राब्ता नहीं करवाया। हां! हमको मदर इंडिया और दिल के अरमां को आंसुओं में बहाने वाली सलमा आगा तो याद हैं।

या फिर वह विदाई वाला गीत “बाबुल का यह घर गोरी, कुछ दिन का ठिकाना है” जो पल्लवी जोशी पर फिलमाया गया था। याद कीजिए ज़रा इनकी स्थिति और देखिए बॉलीवुड पर मर्दवाद का असर कितना महसूस होगा। बॉलीवुड के गीतों में कूट-कूटकर पितृसत्ता को डाला गया है।

एक मशहूर गाने की थोड़ी सी खिंचाई

जानते हैं सलमा आगा ने दिल के अरमानों को आंसुओं में क्यों बहा दिया? कुछ अशआर को लेंगे, जो अमूमन मुझे तो बहुत चुभते हैं।

दिल के अरमां आंसुओं में बह गए।

हम वफा कर के भी तन्हा रह गए।

पहली बात तो अपने दिल के अरमानों को आंसुओं में बहाने की ज़रूरत नहीं है, बिल्कुल भी नहीं! बेशक आप उसको ज़रूर बहाएं जिसने आपको मजबूर किया हो।

अरमानों को आंसुओं में बहाने के लिए और वफा के सुंदर मोतियों की माला उसको पहनाएं जो उसके लायक हो। यह एक बहुत खूबसूरत एहसास है, जो रिश्ते को पोषण प्रदान करता है। तो आज से गांठ बांध लीजिए कि आप खुद को ऐसा बना लें। इस तरह से उठें कि आपको गिराने वाला खुद ढह जाए।

शायद उनका आखरी हो यह सितम, हर सितम यह सोचकर हम सह गए

जब पहला सितम हुआ था यानी कि जब शुरुआत हुई थी सितम की, आपको तभी उसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए थी। पितृसत्ता की एक खूबी है, यह सदियों पुरानी रूढ़िवादी सोच को आज तक नहीं भूली।

जो अपनी व्यभचारी रूढ़ियों को पुश्तैनी समझते हैं, तो याद रखिए जहां आपके लिए एक थप्पड़ उठे या एक चीखती हुई आवाज़ आप पर हावी होने लगे, तो आप ध्यान रखिए कि आपको स्वयं खुद को कैसे बचाना है।

अगर आपने पहले वार पर ही आवाज़ बुलंद कर दी तो शायद आपको यह सोचना नही पड़ेगा, “हर सितम यह सोचकर हम सह गए।”

खुद को भी हमने मिटा डाला मगर फासले जो दरमियां थे रह गए

यह तो आप पर निर्भर करता है कि आप खुद को मिटाएंगी या उनको, जो आपको मिटाने की कोशिश कर रहे हैं। यह बात हमेशा याद रखनी होगी कि हमको अपने जीवन की डोर किसी के भी हाथ में नहीं देनी है। हमको कठपुतलियों की तरह नहीं नाचना है।

याद रखिए आप भी इंसानों की फेहरिस्त में आती हैं। इसलिए जितना हक औरों का है, उतना आपका भी है। याद रखिए खुद को मिटाने से कुछ नहीं होने वाला है। आप बस इतना कीजिए कि असमानता के पन्नों पर लिखी पुरुषवाद की मनगढ़ंत कहानियों को जला ज़रूर दें। खुद के लिए जीना सीखें।

ऊपर दी गई पंक्तियां आज भी हमारे समाज में ज़िंदा ही नहीं, बल्कि और बुरी और जर्जर हालत में हैं। जिसको खत्म करने के लिए आपको एकजुट तो होना होगा। कहीं ना कहीं हम कुछ पुरुषों को खुद मौका देते हैं कि वे शोषण करें।

खुद एक अबला नारी के पद से हटाकर आप खुद को मल्लिका भी बना सकती हैं। यानी एक कर्मठ महिला। अच्छा लगता है कर्मठ शब्द के साथ महिला का जुड़ा हुआ नाम। हमने अक्सर देखा है कि समाज पुरुषों को ही कर्मठ मानता आया है।

महिलाओं को तो एक नगमा ऐसा भी बनाना चाहिए

आज की महिलाओं को तो एक नगमा ऐसा भी बनाना चाहिए जिसकी आवश्यकता भी है। यह नगमा हर एक पुरुष की ओर इंगित नहीं है, बशर्ते वह नारीवाद का समर्थक हो, मानवतावादी हो।

ये कुछ पंक्तियां उन महिलाओं के लिए, जो खुद को दोयम दर्जे़ की समझती हैं और पुरुष को खुद पर हावी कर लेती हैं। तो आइए चलते हैं ऐसा कुछ महसूस करने जिसको पढ़कर हमारे समाज का पुरुषवादी चश्मा चटक जाए।

दिल के अरमां ज़िन्दगी में छा गए

वो खुद बेवफाई की ज़द में आ गए

दिल के अरमां ज़िन्दगी में छा गए।

ज़िंदगी मैंने खुद हाथों लिखी

उनकी दासी उनकी मल्लिका बन गई

दिल के अरमां ज़िन्दगी में छा गए।

उसको भी हमने मिटा डाला मगर

थोड़ी सी बाकी कसर से रह गए

दिल के अरमां ज़िन्दगी में छा गए।

शायद उनकी अक्ल को झटका लगा

झटके पे झटका वह यूं ही खा गए

दिल के अरमां ज़िन्दगी में छा गए।


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