बॉलीवुड एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की खबर के बाद से देशभर में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चर्चा ज़ोरों पर है। सुशांत सिंह राजपूत के इस कदम ने पूरी फिल्म इंडस्ट्री को चौंका दिया है। साथ ही बड़ी बहसों को जन्म दे दिया है।
पूरे देश में शोक की लहर अब भी है। हर कोई इस घटना को लेकर परेशान है। बताया जा रहा है कि वो अपने घर में फांसी के फंदे से लटके हुए पाए गए और घर पर काम करने वाले व्यक्ति ने पुलिस को जानकारी दी।
सुशांत की मौत ने कईयों को हैरत में डाल दिया है। यकीन करना मुश्किल हो रहा कि हमारे ज़माने का प्रतिभाशाली अभिनेता अब हमारे बीच नहीं है। उनका भरा पूरा अभिनय सामने से गुज़र रहा। उनकी फिल्में गुज़र रही हैं।
किरदार को लिखे जाने तक सुशांत की कामयाबी लिखी जा चुकी थी
सुशांत की ‘एम एस धोनी- अनटोल्ड स्टोरी’ उनकी सबसे बड़ी फिल्मों में से एक थी। ज़िन्दगी के नज़रिए के लिए भी फिल्म मिस नहीं करने लायक थी। नीरज पांडे के निर्देशन में बनी यह अपने किस्म की फिल्म बन उभरी थी। खेल-खेल में जीवन-यात्रा तय कर जाना शायद इसे ही कहते हैं।
महेंद्र सिंह धोनी की जीवन-यात्रा से गुज़रते हुए एक सरल मगर व्यापक व्यक्तित्व से परिचय होता है। सुशांत सिंह राजपूत के उम्दा अभिनय को शुक्रिया कहना चाहिए। किरदार को लिखे जाने तक सुशांत की कामयाबी लिखी जा चुकी थी। मतलब ऐसा समझिए कि धोनी का किरदार सुशांत के लिए ही लिखा गया था।
‘एम एस धोनी- अनटोल्ड स्टोरी’
फिल्म में धोनी के इतिहास की पर्याप्त व्याख्या दर्ज़ है। धोनी के जीवन पर बनी यह बायोपिक वर्ल्ड कप पर आकर समाप्त हो जाती है। रांची में मेकॉन कर्मचारी पान सिंह धोनी (अनुपम खेर) के परिवार में एक लड़का पैदा होता है।
बचपन से उसका मन खेल में लगता है लेकिन मध्यम वर्ग का होने की वजह से पढ़ाई का दबाव है। मध्यम वर्ग की परिवार की चिंताएं हैं, जहां कैरियर सुरक्षा सरकारी नौकरियों में समझी जाती है। पढ़ाई को लेकर एक प्रचलित कहावत को टूटते देखना सुखद अनुभव था।
हम ‘माही’ की शुरुआती रुचि फुटबॉल से भी परिचित होते हैं। स्पोर्ट्स टीचर को लगता है कि लड़का अच्छा विकेट कीपर बन सकता है। खेलने वाले को क्रिकेट खेलने के लिए राज़ी कर लेते हैं। धोनी की किस्मत उनका इंतज़ार कर रही थी। धोनी का सफर आरंभ होता है।
कमाल का अभिनय किया है धोनी के किरदार में
बायोपिक में फिल्मकार के समक्ष हिस्सों को चुनने व छोड़ने की चुनौती रहती है। नीरज पांडेय के लिए चुनौती रही होगी कि वो धोनी की जीवन यात्रा में किन हिस्सों को हिस्सा लें और क्या छोड़ दें।
फिल्म में स्पोर्ट्स पर्सन एवं छोटे शहर के जुनूनी युवा की कथा का सुंदर सामंजस्य किया गया। कथा को संघर्ष यात्रा का टच मिले इसलिए यह क्रिकेटर से अधिक छोटे शहर के सफल युवक धोनी की कहानी में ढल गई। इसे कमाल का अनुभव बनाने में सुशांत ने कमाल का अध्ययन किया।
धोनी के व्यक्तित्व में रम गए थे सुशांत
फिल्म ने धोनी के व्यक्तित्व के उजले पक्षों से उनकी उपलब्धियों को निखारने का अच्छा काम किया है। सहायक किरदार एवं अनछुए प्रसंग इसे अंजाम दे गए। उनके व्यक्तित्व निर्माण में माहौल का भी अच्छा चित्रण हुआ।
धोनी के किरदार में प्रेम का संवेदनशील पहलू देखना अप्रतिम अनुभव था। हालांकि कुछ प्रसंग थोड़े अधूरे रह गए। फिल्म महज़ क्रिकेट के शौकीन दर्शकों के लिए नहीं थी, जो लोग धोनी को फॉलो नहीं करते हैं, उन्हें भी यह फिल्म देखनी चाहिए।
धोनी की कहानी बहुत कुछ सिखा जाती है
आपको धोनी में छोटे शहर का युवा नायक नज़र आएगा जो अपनी मेहनत व ज़िद से सपनों को हासिल करता है। सुशांत और महेंद सिंह में छोटे शहरों का कॉमन कनेक्शन चीज़ों को दिलचस्प बना देती है।
क्रिकेट को फॉलो करने वालों ने फिल्म को काफी सराहा, क्योंकि इसमें धोनी के खेल एवं संघर्ष यात्रा का सुंदर समागम हुआ। यह फिल्म छोटे शहर के नायकों की कहानी है। धोनी की प्रेरक गाथा युवाओं में जीवन हेतु अदम्य साहस का संचार करने में सफल थी।
इस फिल्म में हम किशोर व आत्मविश्वास के धनी धोनी को देखते हैं। उनकी जीवन यात्रा में कहीं-ना-कहीं हर सफल युवक की कहानी दिखाई पड़ती है। छोटे शहरों के बड़े नायकों का जादू हमें भीतर से खुश करता है। सुशांत सिंह राजपूत व धोनी में यह बड़ी समानता थी। फिल्म अपने उद्देश्य में सफल रही। यह बात आखिर में रियल धोनी के हैंड वेव पर बजी तालियों से पता चलती है।
आसान नहीं होता किसी व्यक्तित्व को स्वयं में ढाल लेना
एम एस धोनी फिल्म सामयिक फैसलों के विजय की बात करती है। ज़िन्दगी अहम व पेचीदा फैसले चलते-फिरते लिए जाते हैं। छोटे क्षणों के फैसलों का असर जि़न्दगी रहते खत्म नहीं होता।
हमारे आज व कल को इतिहास के मामूली से दिखाई देने वाले पल दरअसल तय करते हैं। विडम्बना देखें कि इन्हें डिसकस करने का समय भी हमारे पास नहीं होता। प्रशंसा करनी होगी दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की जिन्होंने धोनी के बॉडी लैंग्वेज,खेल शैली और एटीट्यूड को अदभुत मात्रा में समझा व अपनाया।
सुशांत में धोनी की बारीकियां देखते ही बनती हैं। उन्होंने धोनी के रूप में खुद को ढाला और आखिर तक वही बने रहे। धोनी की भावात्मक प्रतिक्रियाएं ज़रूर कुछ अलग होंगी लेकिन फिल्म देखते हुए हमें उनकी परवाह कम रहती है, क्योंकि तब तक सुशांत-धोनी में फर्क मिट चुके होते हैं। धोनी की कथा को अमर बनाने में सुशांत का रोल कभी नहीं भुलाया जा सकता है।
किरदारों की कास्टिंग बहुत सलीके से की गई है
पिता पान सिंह धोनी के किरदार में अनुपम खेर ने न्याय किया। धोनी के जीवन में आए साथी, परिवार, कोच व मार्गदर्शकों की भूमिकाओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया गया। व्यक्तित्व के स्तरों को बताने के लिए यह आवश्यक था।
धोनी के आसपास दोस्तों की बड़ी अच्छी जमात थी। क्रिक्रेट के मैदान से लेकर स्पोर्ट्स कोटे में नौकरी मिलने तक वो थोड़ा किस्मत वाले लगे। दोस्त की भूमिका में संतोष (क्रांति प्रकाश झा) अच्छे लगते हैं। युवराज सिंह का किरदार खूब तालियां बटोरता है। क्या खूब कास्टिंग है।
किरदारों की कास्टिंग दिल खुश कर देगी आपका। बहन के किरदार में भूमिका चावला को देखना सुखद था। दिशा पटानी की मिलियन डॉलर स्माइल फिल्म को प्रेम पथ पर ले जाती है। उनकी व पत्नी की भूमिकाएं कहानी को जज़्बात से जोड़ जाती हैं, जिसका बेहतरीन साथ गाने एवं संगीत ने दिया है।
प्रियंका की मौत की खबर पर सुशांत की प्रतिक्रिया कहानी को भावनात्मक चरम बिंदु देती है। सुशांत की अभिनय क्षमता कमाल की व्यक्त होती है।
छोटे शहर के दो नायकों को हमने एक साथ पर्दे पर देखा है
फिल्मकार चूंकि बायोपिक बना रहे थे इसलिए भाषा-परिवेश का टच देना ज़रूरी था। नीरज इसे बिहार-झारखंड अनुरूप रखने में सफल रहे। फिल्म को स्थानीयता देने के लिए यह लाज़मी था।
इलाके की ज़बान की बारीकियों को डायलॉग्स एवं कपार पर मत चढ़ने देना, दुबरा गए हो, सिंघाड़ा जलेबी जैसे स्थानीय शब्द व पद के इस्तेमाल में महसूस किया जा सकता है।
बिहार-झारखंड के दर्शक फिल्म में खासा अपनापन पाते हैं। क्रिकेट के शौकीनों के लिए यह एक यादगार फिल्म है। छोटे शहरों के दो बड़े नायकों, धोनी और सुशांत सिंह राजपूत की जीवंत कथा।