ख्वाजा अहमद अब्बास की रूह कभी हदों की मुहताज नहीं रही। ज़िंदगी की ज़द्दोज़हद में भी इस इंसान की पहचान उसी तेवर से कायम रही। उम्रदराजी के सत्तरवें मुकाम पर जानलेवा बीमारी के शिकार होकर वे अस्पताल में पडे रहे। आंखे साथ नहीं दे रही थी फिर भी अपने-पराए की पहचान उनको थी।
दोस्तों के के बीच वे ख्वाजा के नाम से मशहूर हुए। उनके दोस्तों की फेहरिस्त इस मायने में बहुत अनोखी है कि उसमें हर उम्र के लोग शामिल थे। ज़िंदगी के आधे बसंत देख चुके आलोचक उनके हमउम्र तरक्कीपसंद दोस्त भी हैं।
सिनेमा को सामाजिक बदलाव का ज़रिया मानते थे अब्बास साहब
मोतियाबिंद से मात खाई आंखों के साथ भी उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। पांव से मज़बूर हुए लेकिन हौसला कम नहीं होने दिया। मदद मिलने की दीवानगी में इधर-उधर मारे फिरे। पैसा रखे बिना फिल्म बनाने की हिम्मत रखने वाले उस शख्स की ज़िंदगी में यह मामूली रूकावटें थीं। वे सुधार या बदलाव की पैरवी करने वाले तबकों को साथ लाए।
सुधारवादी फिल्मों के मशहूर होने से काफी पहले उन्होंने सिनेमा को सामाजिक बदलाव का मकबूल पैरोकार बना लिया था। आज हिन्दुस्तानी सिनेमा को उनकी सेवाएं याद करने का वाजिब वक्त है। चार दशक के सफर में अब्बास सिनेमा के अगुआ बनकर रहे। सिनेमा में नई चीज़ों को ईजाद किया। फिल्मों को धर्मयुध का ज़रिया बनाया।
उन्हें फिल्मों में हिन्दुस्तान के मिली जुली विरासत जो कि सामाजिक नज़रिए से कारगर हो, मुल्क के महान इतिहास के बरक्स आज की कड़वी हकीकत को बयान करना था लेकिन सबसे पहले सबकी खातिर रोटी, कपड़ा और मकान की मुहिम का खुला इस्तकबाल करना था। फिल्मों में पेश किए गए सामाजिक बातों को अब्बास ने मिलता हुआ नाम ना देकर नेहरू युगीन सौंदर्य कहा। जवाहरलाल नेहरू को लेकर उनकी मोहब्बत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है।
देश के सिनेमा में अब्बास साहब के दखल वाली फिल्मों से नेहरू युगीन कलात्मक सौंदर्य ज़ाहिर हुआ था। अब्बास का वतनपरस्त ज़ज्बा उस वक्त भी बराबर बना रहा जब वे मुख्यधारा में फिल्में लिख रहे थे। फिल्म की दुनिया में उनका हर एक दखल यादगर है। अब्बास साहब की तकरीबन हर एक दखल ने हिन्दुस्तानी सिनेमा को महान अदाकार या फिल्म से नवाज दिया।
आवारा जैसी फिल्मों में रहे हैं लेखक
‘आवारा’ जिससे राजकपूर मकबूलियत की चोटी पर आ पहुंचे। आवारा ने राजकपूर को नई ज़िंदगी दी। ‘धरती के लाल’ ने अकाल के हालात में एकजुटता का नारा बुलंद किया। ‘सात हिन्दुस्तानी’ में अमिताभ बच्चन फिर मिथुन चक्रवर्ती भी उनकी तालाश थे। उनकी ‘दो बूंद पानी’ ने विकास को एक नए किस्म के तेवर में दिखाया।
बाल फिल्मों की तहरीक में ‘मुन्ना’ से पहल करना। राजकपूर की ‘बॉबी’ में एक अलग तेवर वाली रूमानियत थी। इन सबमें अपने जमाने की तकनीकी हदों व फिल्मकार की हद दर्ज़ा ईमानदारी से लिपटी ‘शहर और सपना’ भारतीय सिनेमा में मक़बूल मुकाम रखती है। हकीकत और सामाजिक संदेश की कारगार पेशकश है। मालूम हो कि सामानांतर सिनेमा इंकलाब के बहुत पहले अब्बास साहब ने इंकलाब शुरु किया था।सिनेमा की नेहरूवाद जडे़ं खुद अब्बास साहब की निजी ज़िंदगी से जुड़ी थी।
सात जून जो कि अब्बास साहब के जन्म की तारीख थी। इसे लेकर वे खुद बहुत यकीन में नहीं रहे। बचपन के दिनों से ही आज़ादी को लेकर उनमें एक दीवानगी थी।
जीवनी ‘आई एम नॉट एन आइलैंड’ में एक घटना का ज़िक्र है। इसमें बालक अब्बास और उनके साथियों से अंग्रेज़ी हुकूमत के फायदे गिनाने को कहा गया। अंग्रेज़ स्कूल इंस्पेक्टर ने अब्बास साहब और दोस्तों की सहुलियत के लिए अस्पतालों व डाकखानों का नाम लिया। अब्बास साहब का उसमें सुर मिलाकर कैदखानों का नाम जोड़ देना इंस्पेक्टर के होश उड़ा गया।
अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में गुज़ारे दिनों का उनकी ज़िंदगी पर बड़ा असर रहा। बदलाव की लहर के अगुआ लेखक सज्जाद ज़हीर व कैफी आज़मी को करीब से देखा। वे फासीवादी ताकतों के मुकाबले समाजवाद की तहरीक का हिस्सा भी रहे। वे उस जमाने में यूरोप व चीन के सफर पर गए जब वहां मासूम लोग मारे जा रहे थे। अमन व भाईचारा मुश्किल दिनों से गुज़र रहा था।
वामपंथ से खासा प्रभावित थे अब्बास साहब
अब्बास साहब की बहुआयामी शख्सियत को इन सब ने गढ़ा। निजि विचारधारा, जो कि ताउम्र वामपंथी बनी रही, ने भी इन्हें एक अलग मुकाम दिया। अदब और सिनेमा के नए फॉर्म को लेकर उनके नज़रिए का भी जिक्र करना चाहिए।
अब्बास कम्युनिस्ट एकजुटता के कट्टर पैरोकार रहे। कांग्रेस की अगुवाई में चल रही आजादी की लडाई में वामपंथ विचारधारा का दखल अहम था। मशहूर अखबारों के लिए लिखे फिल्म रिव्यूज़ में आपने सामाजिक उपयोगिता व आलोचनात्मक हकीकत को सिनेमा के लिए बेहद ज़रूरी माना। देश में उभरते हुए सिनेमा विरासत में इन बातों को बहुत ज़रूरी बताया।
उनका मानना था कि फिल्मों में शुरू हुई बहसों व संदेशों को फिल्मकारी से बढ़कर महत्व दिया जाना चाहिए ताकि बातें मामूली हिस्सेदारी तक सिमटकर ना रह जाएं। बेशक अब्बास साहब की फिल्में जीवन और समाज की कड़वी सच्चाइयों को लेकर चल रही थीं। यह फिल्में तकनीकी नज़रिए से थोड़ी कमज़ोर ज़रूर रहीं, लेकिन इनमें नई बहसों को ढलते हुए देखा जा सकता है।
तकनीक वगैरह पर खर्च करने के लिए उनके पास खास पैसे भी नहीं थे। शुरुआती तीन-चार फिल्मों से ही उनकी इंसानपरस्त शख्सियत ज़ाहिर हो चुकी थी। चीन के सफर से लौटकर अब्बास ने माओ के हिन्दुस्तानी साथी पर ‘डाक्टर कोटनीस की अमर कहानी’ लिखी।
इस कहानी पर बनी फिल्म में वी. शांताराम खुद ही डाक्टर कोटनीस बने थे। वी. शांताराम ने अपने किस्म की अदाकारी को कायम किया था। भले ही अदाकारी के नज़रिए से शांताराम की यह फिल्म कमज़ोर मालूम पडे़ लेकिन अब्बास की कहानी ने समकालीन राजनीतिक उम्मीदों की पैरवी करते हुए एशियाई मुल्कों के साथ हमारे रिश्तों को नए उजाले में देखा। हमारे आज़ादी के नारे को एशिया की संवेदना हासिल कराने में फिल्म का अहम रोल था।
फसादों के बीच रिलीज हुई अब्बास साहब की ‘धरती के लाल’
चालीस के दशक की ‘धरती के लाल’ सन् 1946 के फिरकापरस्त फसादों के बीच में रिलीज हुई थी। बांबे में फसादों का सिलसिला चल निकला था। यह फिल्म अपने वक्त की ज़मीनी सच्चाइयों का दस्तावेज बनी। अब्बास साहब की यह फिल्म अब भी मायने रखती है। फिल्म संस्थाओं की बुनियाद रखने वाले, फिल्मों के रिव्यु लेखक, भारतीय जन नाट्य इंकलाब के सदस्य ख्वाजा अहमद अब्बास ने खुद को यकायक सिनेमा में नए इंकलाब का अगुआ पाया।
उनके साथियों में चेतन आनंद जो कि नीचा नगर के लिए मशहूर हुए। फिर वी.पी. साठे का ज़िक्र किया जा सकता है। इन साथियों ने अब्बास साहब को हर मुमकिन हौसला दिया। इनके बडे़ कर्ज़ से उबरने की कहानी अपने-आप में अलग थी। इस कीमत का बड़ा हिस्सा उन्होंने ‘आखिरी पन्ना’ कॉलम लिखकर जमा किया था।
कई शानदार फिल्मों का किया लेखन
अनहोनी की कहानी लिखने के बीच अब्बास साहब ने हिन्दुस्तानी सिनेमा व राजकपूर की किस्मत बदल देनी वाली फिल्म ‘आवारा’ लिखी। इसकी जडे़ं चैपलीन के मशहूर ट्रांप में ज़रूर रहीं लेकिन नेहरू का दिया समाजवाद व समानता का नारा भी इसकी जड़ों में था। गरीब ने कभी ख्वाब देखा नहीं वो बस बेहतर दिनों की दुआ भर कर सकते हैं और मुफलिस नौजवान अमीर राजकुमारी के प्यार को नई रोशनी में रखा गया। इसे सामाजिक बराबरी व इंसाफ का एक दस्तावेज बनाया गया।
कहानी में शायरी-गानों के नायाब नमूने जोड़कर राजकपूर ने इसे काफी दिलचस्प बना दिया था। ब्लैक एंड वाइट फीचर फिल्म में कैमरा का काम उस जमाने के मकबूल कामों की बराबरी करता नज़र आया। शायरी का जादुई असर इंसानी ज़ज्बातों को असर कर जाता है। मशहूर ‘आवारा हूं’ हिन्दुस्तान से लेकर रूस, ताशकंत और लंदन की गलियों तक सुना गया। राजकपूर की ज़िंदगी में ‘आवारा’ किस्मत बदलने का मुकाम बन कर आई।
बहुत से मामलों में आवारा ने अपने किस्म की फिल्में, जिनमें बाहरी खूबसूरती और स्टीरियोटाइप सीखें नहीं मिलती, को कामयाब बनाया। फिल्म से राजकपूर और अब्बास साहब के बीच मज़बूत रिश्तों को वजह मिली।
दोस्ती ने उनके ख्वाबों को पूरा किया क्योंकि राज साहब से मिले पैसों को उन्होंने अपनी फिल्मों पर खर्च किया। एक इंसान नवाज़ ने जब उनसे यह जानना चाहा कि धरती के लाल और आवारा किस्म की महान फिल्मों के बाद उन्होंने ‘बॉबी’ जैसी कहानी क्यों लिखी? तो उसे जवाब मिला कि इसलिए ताकि दो बूंद पानी, सात हिन्दुस्तानी और नक्सलाइट जैसी फिल्मों के लिए पैसे जुटा लूं।
वे आवारा की कामयाबी को श्री 420 में दोहराने में बहुत हद तक कामयाब हुए। इस फिल्म में भी राजकपूर के लिए ट्रांप किस्म का किरदार लिखा गया। ट्रांप के किरदार की एक शक्ल बॉबी में भी मौजूद थी। अब्बास साहब की पहल को फिल्मों में बहुत बार दोहराया गया। ट्रांप की शख्सियत को पूरी हिम्मत से जीने के लिए अपनी कंपनी ‘नया संसार’ के बैनर तले एक फिल्म बना दी।
विरासत या माहौल किसने अब्बास की शख्सियत को गढ़ा?
जन्म से ही सामाजिक उसूलों पर मिटने वाले इंसान के बारे में अंदाज़ा लगाना आसान है। अब्बास साहब सफर में मुल्क राज आनंद की कहानी पर बनी फिल्म कड़वी यादें जुड़ गई। अंग्रेज़ी हुक्मरानों के कब्जे में चलने वाले चाय बागानों की हकीकत को बयान करने वाली कहानी में बलराज साहनी, देव आनंद, नलिनी जयवंत को लिया गया था। इंग्लिश फिल्मकारों से बदला लेने की ज़िद में बलराज को अंग्रेज़ डॉक्टर का किरदार दिया।
मालूम हो कि फिल्मकार अंग्रेज़ कलाकारों को भारतीय किरदार देकर इंसाफ नहीं कर रहे थे। ब्रिटेन में इस फिल्म पर रोक लगा दी गई। देश में बाल फिल्मों का चलन लाने वाली ‘मुन्ना’ को अब्बास साहब अपने बेहतरीन कामों में शुमार करते हैं। जब पेरिस के सिनेमाघरों ने बेवजह के नाच गानों से परेशान होकर भारत की फिल्मों को ठुकरा दिया था। बिना गानों वाली मुन्ना ने देश के सिनेमा की इज़्जत में चार चांद लगा दिए।
हालांकि देशभक्ति व सेक्युलरवाद को लेकर चली ‘सात हिन्दुस्तानी’ अमिताभ की पहली फिल्म होकर काफी मशहूर हुई। अब्बास साहब की फिल्म ‘शहर और सपना’ इस मामले में काफी महान रही क्योंकि पहली मर्तबा ही शायद उस जमाने के ज्वलंत सवालों की फिक्र में एक बड़ी फिल्म बनी थी।
सिनेमा के बाहरी दिखावों से आज़ाद यह फिल्म बेवजह की सिनेमाई आतिशबाजी में नहीं फंसी। देहात व शहर के दरम्यान की बहसों पर रोशनी डालने वाली यह कहानी बडे़ शहरों में अशियाना व आबुदाना की मुश्किलों और तकलीफों की बात कह गई। यही नहीं झुग्गियों के शोषित माहौल में जीने की चाह, भारतीय मानसिकता के हौसले की तालाश थी।
सिनेमा समाज को अब्बास साहब के काम ने किया समृद्ध
‘शहर और सपना’ के नायाब असर को स्मिता पाटिल की फिल्म चक्र में दुहराने की कोशिश हुई। फिर भी अब्बास साहब की बराबरी नहीं हो सकी। हड़बड़ी में अमीर बनने के नए चलन पर रोशनी डालती फिल्म ‘बंबई रात की बाहों में’ महानगर की अमानवीय हकीकतों को बयान करने में सफल हुई।
आसमान महल के बाद अब्बास साहब की तरफ से फिल्में बहुत कम आने लगीं। सात हिन्दुतानी और फासला फिर नक्सलाइट देश के सिनेमा में राजनीतिक फिल्मों की पहल के दिनों की याद दिलाती हैं। इस किस्म की फिल्मों से सिनेमा को अब्बास साहब के लफ्ज़ों से संवरी हुई एक नई ज़ुबान मिली। अहिस्ता अहिस्ता तकनीक का ज़माना बढ़ने से अब्बास साहब की फिल्में बेजान-सी होने लगीं।
हालांकि अब्बास साहब का किया हुआ काम अपने आप में नायाब है। इसने सिनेमा समाज को समृद्ध करने में अपनी एक अहम भूमिका अदा की है।