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फेयर एंड लवली का अपने नाम से फेयर हटाना क्या एक ढोंग है?

अमेरिका में उठे अश्वेतों के नस्लवाद विरोधी आंदोलन का सोशल मीडिया पर ज़ोरदार समर्थन देखकर भारतीयों को गोरे होने की क्रीम बेचने वाली कंपनी ‘फेयर एंड लवली’ ने एक निर्णय लिया।

यूनिलीवर कंपनी ने अपने सौंदर्य उत्पाद ‘फेयर एंड लवली’ का नाम बदलने की घोषणा अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स पर की। कंपनी ने कहा कि वो अपने ब्रैंड की पैकेंजिंग से फेयर, व्हाइटनिंग और लाइटनिंग जैसे शब्दों को हटा देगी।

इसके अलावा, विज्ञापनों और प्रचार सामग्री में हर रंग की महिलाओं को जगह दी जाएगी। हालांकि ‘फेयर’ की जगह कौन सा रंग लेगा, अभी साफ नहीं है।

रंगभेद नीति को लेकर कंपनियों ने अपने विज्ञापनों में किए बदलाव

यूनिलीवर कंपनी का अपने विज्ञापनों से फेयर, व्हाइट और लाइट जैसी सुंदरता की एकपक्षीय परिभाषा को ज़ाहिर करने वाले शब्दों को हटाने से पहले एक और कंपनी ने यह कदम उठाया था।

हाल ही में शादी डॉट कॉम ने भी एक क्रांतिकारी फैसला लिया कि अब से उनकी वेबसाईट पर ‘रंगभेद नीति’ पर शेड कार्ड के आधार पर लड़की की प्रस्तुति नहीं होगी।

मुख्य सवाल यह भी है कि इतने दिन तक फेयर होने के नाम पर समाज में जो रंगभेद फैलाया गया, उसका क्या? यह नहीं भूलना चाहिए कि कंपनी अब गोरे, सांवले और काले सभी रंगों को ध्यान में रखकर उनके फेयर होने की वकालत करेगी और समाज में रंगों के प्रति वैमस्व को बढ़ावा देकर अपना मुनाफा समेटेगी।

हमारे समाज में रंग को लेकर मानसिक विकार बड़े पैमाने पर है

वैसे इस सच्चाई को भी मान लेना चाहिए कि हमारे समाज में रंगों को लेकर एक मनोग्रंथी शुरू से रही है। गोरा रंग अधिक पसंद किया जाता है और इसी कॉमप्लेक्स को बाज़ार की शक्ल में 1975 में तब मिली, जब बहुराष्ट्रीय कंपनी हिस्दुस्तान लीवर ने भारत में ब्यूटी क्रीम ‘फेयर एंड लवली’ बाज़ार में उतारी।

जिसके विज्ञापन के लिए भी ‘यशोमती मैया से बोले नंदलाला, राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला’ गाने का सहारा लिया गया। यह गीत भी उस मानसिकता को ही प्रतिबिम्बित करता है, जो हमारे समाज में गोरे होने का अर्थ सुदंर, सुदर्शन और श्रेष्ठ होना स्थापित करता है। इसलिए हर किसी को गोरा रंग ही चाहिए और सांवला या काला होना अभिशाप बनकर रह गया।

फेयर एंड लवली के विज्ञापन ने समाज में वैमनस्य लंबे समय से फैलाया है

फेयर एंड लवली क्रीम। फोटो साभार- सोशल मीडिया

यही नहीं, फेयर एंड लवली के विज्ञापन जब रेडियो, सिनेमा, अखबारों या पत्रिकाओं में छपते थे, तो स्पष्ट लिखा होता था ‘फेयर एंड लवली’ लगाने वाली युवतियों को बढ़िया वर मिलेगा।

संदेश था कि अच्छा वर और घर चाहिए तो चेहरे पर फेयर एंड लवली लगाइए। ज़ाहिर है कि इस क्रीम ने समाज में एक तरह की रंगभेदी वैमनस्य फैलाने का काम शुरू से ही किया है और अब नाम में बदलाव करने का ढोंग कर रही है।

मौजूदा सदर्भ में अधिक महत्वपूर्ण सवाल अब यह है कि भारत सहित दुनिया के कई देशों में गोरेपन का शर्तिया कारोबार और रंग में नस्लीय श्रेष्ठता देखने वाली कंपनी अचानक अपने उत्पाद का नाम क्यों बदलने जा रही है?

वह कौन सा दबाव है कि वह अब फेयर को अनफेयर मानने लगा है? नस्लीय भेदभाव तो पूरी दुनिया में लंबे समय से चला आ रहा है। भारत जैसे बहुनस्लीय और बहुजातीय देश में गोरे रंग के साथ उच्च वर्ण, कुलीनता और श्रेष्ठता के आग्रह भी जुड़े हुए हैं।

नस्लीय भेदभाव से लड़ने की यह लड़ाई कहीं भयावह स्वरूप ना ले!

चूंकि कंपनी का अपना एक स्थापित लोकप्रिय उत्पाद है, तो अब वह चेहरे को निखारने का फॉर्मूला बेचेगी और रंगों की वरीयता को अपनी प्राथमिकता से हटा देगी। गोरा, सांवला और काला में बेहतर निखार लाना उनकी प्राथमिकता होगी।

समस्या यही है कि गोरेपन की ललक जगाना आसान है लेकिन नैसर्गिक रंग में सर्वश्रेष्ठ मनवाना बाज़ार के लिए मुश्किल होगा। देखना यह है कि रंगों में निखार लाने की चाह पैदा करने से नई तरह की नस्लीय भेदभाव की शुरुआत ना हो जाए। वैसे भी रंगभेद का मामला केवल ‘फेयर’ शब्दमात्र से नहीं है।

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