मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का स्टूडेंट हूं। विश्वविद्यालय के दूसरे स्टूडेंट्स की तरह मैं भी मार्च में मिड सेम ब्रेक पर घर आ गया था। मेरा घर यूपी के गोरखपुर जिले के ग्रामीण क्षेत्र में पड़ता है। देशव्यापी लॉकडाउन के कारण मै गांव में ही फंसा रह गया। मुझे उम्मीद थी कि कुछ दिन में सब नार्मल हो जाएगा लेकिन लॉकडाउन बढ़ता ही गया।
इस बीच यूनिवर्सिटी ने पठन-पाठन की सारी गतिविधियों को ऑनलाइन कर दिया। विडियो कान्फ्रेसिंग के ज़रिए कक्षाएं संचालित होने लगीं। इस तरह की ऑनलाइन कक्षाओं के लिए हाईस्पीड इंटरनेट की उपलब्धता और बेहतर तकनीकी संसाधन मूलभूत आवश्यकताएं हैं।
गाँव में संभव नहीं है ऑनलाइन क्लास कर पाना
गाँव में इंटरनेट स्पीड का आलम यह है कि मैं रात के बारह बजे के बाद ही अपना फोन इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए खोलता हूं, क्योंकि रात में ही गांव में इंटरनेट स्पीड थोड़ी ठीक रहती है।
रात में ही मैं दिनभर कालेज ग्रुप में भेजे गए स्टडी मैटीरियल डाउनलोड कर पाता हूं। ऐसे हालात में मेरे लिए दिन में संचालित होने वाली ऑनलाइन कक्षाओं में उपस्थित हो पाना असम्भव रहा जिसके कारण मैं किसी भी ऑनलाइन कक्षा में भाग नहीं ले पाया।
इस सेमेस्टर की शुरुआत में जनवरी में ही यूनिवर्सिटी के नाॅन टीचिंग स्टाफ की हड़ताल की वजह से कॉलेज की लाइब्रेरी और कम्प्यूटर लैब बंद रहे। यह हड़ताल फरवरी महीने के अंत तक चला। इसी बीच दिल्ली में दंगा हो गया।
मेरा कालेज नार्थ ईस्ट दिल्ली में पड़ता है जो दंगे से सबसे ज़्यादा प्रभावित इलाकों में था। दंगे के कारण कॉलेज लगभग दस दिन तक बंद रहा। मार्च मे फिर से कालेज खुला तो चार दिन बाद मिड सेम ब्रेक हो गया और फिर देशव्यापी लाकडाउन।
‘ऑनलाइन ओपन बुक एग्जाम’ ने मानसिक तनाव को बढ़ा दिया है
सामान्यत: एक सेमेस्टर में एक विषय की लगभग 75 से 80 कक्षाएं लगती हैं लेकिन इस सेमेस्टर मे केवल एक तिहाई कक्षाएं ही लगी।
शुरुआत के कुछ दिनों को छोड़कर इस पूरे सेमेस्टर में लाइब्रेरी और कम्प्यूटर लैब बंद पड़े रहे।
मेरे जैसे आर्थिक रूप से कमज़ोर स्टूडेंट्स के तकनीकी संसाधनों की आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए कालेज का कम्प्यूटर लैब और किताबों की आपूर्ति के लिए कालेज लाइब्रेरी एक मात्र विकल्प होते हैं।
लाइब्रेरी और कम्प्यूटर लैब बंद होने के कारण मेरी पढ़ाई पर व्यापक असर पड़ा। गाँव में फंसे होने के कारण मैं किसी दोस्त से किताबें उधार मांगकर भी नहीं पढ़ सकता था। इन सब परिस्थितियों से गुज़रते हुए मेरा मानसिक तनाव बढ़ गया है।
उधर यूनिवर्सिटी प्रशासन द्वारा ऑनलाइन ओपन बुक एग्जाम कराने के निर्णय ने मेरे जैसे तमाम स्टूडेंट्स के मानसिक तनाव को बढ़ा दिया है। बेहतर इंटरनेट और किताबों के अभाव में परीक्षा देने की चुनौती और भविष्य व कैरियर की चिंता मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही है।
क्या दिल्ली विश्वविद्यालय को गरीब स्टूडेंट्स की चिंता है?
ऐसा लग रहा है, जैसे यूनिवर्सिटी प्रशासन हमारी प्रतिभा, लगन और मेहनत को ‘तकनीकी संसाधनों की उपलब्धता’ के आधार पर परख रही है। तकनीकी संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर स्टूडेंट्स की योग्यता को परखने की नीति मेरे जैसे आर्थिक रुप से कमज़ोर स्टूडेंट्स को तकनीकी समृद्ध प्रिविलेज स्टूडेंट्स के पीछे ढकेल देगी।
इस नीति से उन स्टूडेंट्स को फायदा होगा जो तकनीक और आर्थिक रुप से प्रिविलेज्ड हैं। यह नीति समावेशी ना होकर भेदभाव से भरी हुई है, जो उन स्टूडेंट्स के बारे में नहीं सोचती जिनके पास तकनीकी संसाधनों का अभाव है, जो अपनी तकनीकी ज़रूरतों के लिए पूरी तरह से कालेज के कम्प्यूटर लैब पर निर्भर रहते हैं। यह नीति गरीब विरोधी है।
काॅलेज में सभी विषय के नोट्स लगभग 200 रुपए में मिल जाते थे जबकि यहां गाँव में एक पेपर प्रिंट करवाने का पांच रुपये लगता है। इस हिसाब से सभी विषय के 400-500 पेज प्रिंट करवाने का खर्चा दो से ढाई हज़ार रूपये आएगा।
जहां एक तरफ लाॅकडाउन ने परिवार की आर्थिक व्यवस्था को तबाह कर दिया है, परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति मुश्किल हो गई है। ऐसी परिस्थिति में परिवार पर दो- ढाई हज़ार रुपये का अतिरिक्त भार डालना परिवार के मुश्किलों को बढ़ावा देना है।
क्या मानसिक समस्याएं भी प्रिविलेज्ड होती हैं?
मैं मीडिया का स्टूडेंट हूं। मीडिया का स्टूडेंट होने के नाते इस साल किसी मीडिया संस्थान में इंटर्नशिप करना मेरे कैरियर के लिए बेहद ज़रूरी था, जो नहीं हो सका। सोचा था कि इंटर्नशिप के बाद किसी मीडिया संस्थान में नौकरी कर लूंगा।
इससे परिवार की भी मदद कर पाऊंगा लेकिन देशव्यापी लाकडाउन के कारण अन्य क्षेत्रों की तरह मीडिया संस्थानों में भी हुई छंटनी के कारण बहुत सारे अनुभवी मीडियाकर्मियों की नौकरी चली गई। जिससे नौकरी मिलने की उम्मीद टूट गई है। अगर ऐसे में कहीं कोई इंटर्नशिप या नौकरी का मौका मिले भी तो तकनीकी संसाधनों और इंटरनेट के अभाव में मैं इससे भी वंचित ही रह जाऊंगा।
अभिनेता सुशांत सिंह की आत्महत्या की खबर ने लोगों को झकझोर दिया है। लोग डिप्रेशन और मानसिक तनाव पर विमर्श कर रहे हैं लेकिन दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले मेरे जैसे ग्रामीण और आर्थिक रुप से कमज़ोर बैकग्राउंड वाले हज़ारों स्टूडेंट्स की मानसिक स्थिति पर कोई चर्चा नहीं कर रहा है। हमारी मानसिक समस्याओं को सुनने वाला कोई नहीं है। क्या मानसिक समस्याएं भी प्रिविलेज्ड होती हैं?
अनमोल प्रितम