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बेमेल विवाह, घरेलू हिंसा और प्रतिशोध की कहानी है ‘बुलबुल’

फिल्म बुलबुल की कहानी 19वीं सदी के भारत में बाल विवाह, बेमेल विवाह, घरेलू हिंसा, घरेलू नातेदारी, प्रतिशोध और बलात्कार की पीड़ा की कहानी है।

इस दौर में भद्र कहे जाने वाले सभ्य समाज की महिलाओं के पत्र और डायरियों में कई महिलाओं की पीड़ा दर्ज़ है, जो यह बयां करती है कि उस दौर में महिलाओं के पीड़ा का संसार कितना विशाल था और उससे मुक्ति का कोई रास्ता उनके पास नहीं था।

‘बुलबुल’ चुड़ैल के डर, बचपन का प्यार और जीवन की वीभत्स सच्चाई को बयां करती है

नेटफ्लिक्स पर अनुष्का शर्मा के प्रोडक्शन के बैनल तले एक हॉरर सह थ्रिलर फिल्म रिलीज़ हुई है, जिसका नाम है ‘बुलबुल।’ इसमें चुड़ैल के डर के साथ-साथ बचपन का प्यार और जीवन की वीभत्स सच्चाई शामिल है।

कमोबेश ढेड घंटे की यह फिल्म महिलाओं की पीड़ा को अपने केंद्र में रखती है, जिसे लेकर बंगाल के भद्र समाज में ईश्वर चंद्र विधासागर जैसे समाजसुधारकों ने लंबे संघर्ष के बाद कानून बनाए और बाद में महिला आंदोलनों ने उसको निरंतरता दी।

19वीं सदी के भारत में बड़ी हवेली में ही नहीं, बल्कि छोटे घरों में भी महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे़ की थी। बड़े घराने के लोग इसे बड़ी हवेली में बड़े राज़ होते हैं’ कहकर दबाते थे और छोटे घरों में या तो महिला को त्याग देते थे या चरित्रहीन बताकर बदनाम कर देते थे।

‘बुलबुल’ की कहानी

फिल्म बुलबुल का एक दृष्य। फोटो साभार- सोशल मीडिया

बुलबुल की कहानी 19वीं सदी के बंगाल से शुरू होती है, जहां बुलबुल (तृप्ति डिमरी) का बाल विवाह ही नहीं, बल्कि बेमेल विवाह भी हुआ था। जिसकी शादी अपनी उम्र से काफी बड़े ठाकुर महेंद्र (राहुल बोस) से कर दी जाती है।

बुलबुल को यह गलतफहमी हो जाती है कि उसका ब्याह उसके हमउम्र सत्या से हुआ है। इसलिए वह सत्या (अविनाश तिवारी) के साथ अधिक घुली-मिली रहती है।

परिवार में इंद्रनील का मंद बुद्धि भाई महेंद्र और उसकी पत्नी बिनोदिनी भी है, जो बुलबुल से बड़ी है मगर पितृसत्ता की शिकार है। बुलबुल और सत्या का अधिक घुलना-मिलना महेंद्र को खटकता है और वह सत्या को लंदन पढ़ाई करने भेज देता है।

परंतु महेंद्र अपने अंदर शक खत्म नहीं कर पाता और बुलबुल को पीटता है‌ फिर घर छोड़कर चला जाता है। लंबे समय बाद जब सत्या वापस लौटता है, तो हवेली काफी बदली सी लगती है। हवेली पर अब किसी प्रेत का साया है। सत्या को इन सबसे निपटना है।

बुलबुल क्यों देखें?

सत्या जब इससे निपट लेता है और प्रेत को खत्म कर देता है, तो उसे सच का पता चलता है। वह हवेली हमेशा के लिए छोड़कर चला जाता है। बुलबुल में चुडैल कौन है? उसका अंत कैसे होता है?

यह जानने के लिए बुलबुल फिल्म देखना ज़रूरी है। एक संवाद में बड़ी बहू कहती है, “तुम सारे मर्द एक जैसे होते हो।” जिसका उत्तर अंत में सत्या सच्चाई जानने के बाद अपने बड़े भाई को खत में लिखता है कि मैं आप जैसा ही बन गया हूं, हम सब एक जैसे हैं।”

अभिनय‌

फिल्म में हॉरर और सस्पेंस के साथ जिस तरह से बीसवीं सदी के भारत में महिलाओं की समस्याओं को पिरोया गया है, वह कमाल है। तृप्ति डिमरी लीड रोल में हैं और अपने अभिनय से ध्यान खीचने में कामयाब हुई हैं।

राहुल बोस भी कमाल के अभिनय में हैं। अविनाश तिवारी भी अच्छा काम करते नज़र आते हैं मगर प्रभावित नहीं करते। सुदीप (परमब्रत चट्टोपाध्याय) चिकित्सक के रूप में अपने अभिनय के साथ न्याय करते दिखाई देते हैं।

बात निर्देशन की

निर्देशक अन्विता दत्ता अपनी पहली फिल्म में अपने निर्देशन से दर्शकों को बांधने में कामयाब हुईं। एक बार फिल्म शुरू होती है तो वह दर्शक को बांधे रखती है। निर्देशक अन्विता दत्ता ने फिल्म में कई दृश्यों में मिथकीय प्रतीकात्मक सकेतों का प्रयोग किया है, जो लाजवाब है।

मसलन, देवी काली का संदर्भ उनके सबसे डरावने अवतार में है और एक प्रमुख हत्या उस दिन होती है जिस दिन देवता की पूजा की जाती है।

घरेलू हिंसा को बीमार करने के एक दृश्य में, रावण का एक चित्र जो सीता के अपहरण के दौरान जटायु के पंख को काटता है। बुलबुल अन्विता दत्ता की एक अंधेरे, खून से लथपथ, मुक्त-तैरती नारीवादी कल्पना कही जा सकती है।

निर्देशक अन्विता दत्ता की एक छोटी सी फिल्म बुलबुल सिस्टरहुड, नारीवाद और पितृसत्तात्मक सोच से रूबरू कराती है। राक्षस या भूत कोई और नहीं, बल्कि यह समाज है जो महिलाओं के साथ सबसे ज़्यादा बुरा रहा है और आज भी है।

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