लॉकडाउन के दौरान भेदभाव की बहुत सारी खबरें मैंने पढ़ी हैं। उनमें तरह-तरह के भेदभावों का ज़िक्र देखकर मन उदास हो जाता है, क्योंकि मैं दलित समुदाय से आता हूं और एक असुरक्षा की भावना के साथ जी रहा हूं।
मुझे याद आता है साल 2012 का एक वाक्या, जब झारखंड के रानेश्वर प्रखंड के बुद्धुडीह गाँव में मुझे दलित होने के कारण सवर्णों ने आठ घंटे तक बाथरुम में बंद कर दिया था।
यह वो वक्त था जब हम बंगाल से झारखंड आए ही थे। मन में पहले से ही स्थानांतरण को लेकर एक प्रकार की असुरक्षा की भावन थी। इन सबके बीच जब गाँव के सवर्णों ने भेदभाव करना शुरू किया, तो मानसिक तौर पर मुझे और मेरी फैमिली को बहुत पीड़ा पहुंची।
अब सवाल है कि यह सब शुरू कैसे हुआ? सामान शिफ्ट किए महज़ दो ही दिन हुए थे कि मैं किसी काम से तालाब की तरफ जा रहा था। रास्ते में एक दुकानदार को यह कहते सुना कि अब तो हमारे गाँव में चमार भी आ गए हैं। पहली दफा हमें अंदाज़ा हुआ कि अब गाँव में हमारे खिलाफ विरोध के स्वर उठने लगे हैं।
धीरे-धीरे हमें चापाकल से पानी लेने के लिए मना कर दिया गया। हमारा मकान मालिक मुसलमान था, तो उसने हमें कह दिया कि आपलोग चमार हैं इसलिए मुहल्ले वालों को आपत्ति है और वे चाहते हैं कि आप सार्वजनिक चापाकल से पानी ना लें।
मैं (किशन, बदला हुआ नाम), मेरी बहन, दो भाई, माँ और पिता जी के साथ हम उस गाँव में रहते थे। हमें चापाकल से पानी लेने से रोकने वाली घटना के साथ तो जातिगत भेदभाव की महज़ औपचारिक शुरुआत हुई। धीरे-धीरे यह और गहराता चला गया।
हमें गाँव के किसी भी फंक्शन से बायकॉट कर दिया गया। एक रोज़ हमारे घर के सप्लाय वॉटर में कुछ दिक्कत आ गई थी तो माँ ने कहा कि कोई नहीं देख रहा है, मैं जाकर चापाकल से पानी भर लूं।
माँ की बात मानते हुए मैं वहां गया और जाकर एक बाल्टी पानी लेकर घर आ ही रहा था कि ब्राह्मण समाज से एक व्यक्ति आकर मेरी बाल्टी को हाथ से गिराते हुए मुझे पंचायत भवन ले गया।
देखते ही देखते पूरा गाँव वहां इकट्ठा हो गया। मेरे घर के लोगों को भी बुलाया गया और उनके सामने मुझे कई वर्षों से बंद पड़े एक सार्वजनिक शौचालय में बंद कर दिया गया। मेरे घर वाले दरवाज़ा पीटते रहे मगर उनका दिल नहीं पसीजा।
वक्त गुज़रता गया और देखते ही देखते बाथरुम में बंद हुए मुझे आठ घंटे हो गए। यूं लग रहा था जैसे मैं बेहोश होने वाला हूं। आठ घंटे बाद मुझे बाथरुम से निकालकर मेरे घर के बाहर यह हिदायत देते हुए छोड़ दिया गया कि हम आगे से ऐसा कोई भी काम ना करें, जिन्हें करने से ब्राह्मण समाज को आपत्ति है।
इस घटना के बाद हम सहम गए थे। गाँव के सारे फैसले पंचायत में ही होते थे, तो पुलिस की कोई भूमिका नहीं थी। हमने गाँव छोड़कर वापस बंगाल जाने का फैसला किया। अगले महीने हम बंगाल वापस आ गए। जब भी यह घटना मुझे याद आती है, तो ज़हन में एक ही सवाल आता है कि आखिर यह जाति प्रथा कब खत्म होगी?