चीन के वुहान शहर से फैली कोरोना महामारी ने विश्व के समक्ष भीषण समस्या का रूप ले लिया है। पूरे विश्व के लिए चुनौती बने इस संकट की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसका भविष्य क्या होगा? इस संकट की अवधि क्या होगी? इसका अनुमान लगाने में विश्व का कोई भी विशेषज्ञ असमर्थ है।
जीवन की सुरक्षा बनी प्राथमिकता
अचानक से आयी इस आपदा ने विश्व-व्यवस्था को जमींदोज कर दिया है। चाहे वह सामाजिक व्यवस्था हो या राजनीतिक या फिर अर्थव्यवस्था हो सबकी चिंता छोड़कर सरकारें जनजीवन की रक्षा का प्रयास कर रही हैं। खुद भारतीय प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित करते हुए कहा कि “जान है तो जहान है।”
इसका सीधा-सा तात्पर्य है कि ऐसी स्थिति में सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता जन-जीवन सुरक्षा है। और तब जबकि इस महामारी का भविष्य क्या होगा? यह महामारी विश्व को कहा तक ले जाएगी? इस संकट की समाप्ति के के बाद राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय संरचना में क्या-क्या परिवर्तन हो जाएंगे?
विकसित देशों के हालात भी हैं बुरे
मानव मस्तिष्क में उपज रहे इन प्रश्नों का उत्तर देने वाला कोई नही हैं, ना ही कोई इस बात का उत्तर दे पा रहा है कि मानव विकास सूचकांक और स्वास्थ्य सुविधाओं की दृष्टि से सिरमौर देशों में कोविद-19 जनित मौतें रुक क्यों नही रहीं हैं ? ऐसी स्थिति में सरकारों की यह प्राथमिकता ही सर्वथा उचित है कि अर्थव्यवस्था की किसी भी कीमत पर जीवन की रक्षा की जाय।
दुनिया भर की भागम-भाग और कारोबारी आपाधापी का मानो विश्रामकाल चल रहा है। इस महामारी का भविष्य क्या होगा? यह अनिश्चित है, लेकिन इतना अवश्य निश्चित है कि इस महामारी ने दुनिया की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को न केवल बदल के रख दिया है बल्कि नीति नियंताओं के समक्ष कई महत्वपूर्ण प्रश्नों को भी रखा हैं।
गाँवों को करना होगा दोबारा ज़िंदा
भारत के सन्दर्भ में यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि इस महामारी संकट से सीख लेते हुए अपने सामाजिक-अर्थिक और विकास प्रतिमान की पुनर्संरचना करें।
इस नई व्यवस्था में हमें इस यथार्थ को स्वीकार करते हुए कि नगरों की जरूरतें गाँवों से ही पूरी होती हैं और गाँव रहेंगे तभी शहरी जीवन सुखमय हो सकता है, गाँवों के यथोचित पुनर्निर्माण पर बल देना होगा।
भारत आज भी गाँवों का देश है और यहां की अधिकांश जनता गाँवों में ही निवास करती है। हम गाँवों के लोगो को गाँवों में ऐसी सुविधाएं प्रदान करने में अभी तक विफल रहे हैं फलस्वरूप ऐसी सुविधाओं के अभाव में और आजीविका के लिए गाँवों से नगरों की ओर वर्षों से होने वाला पलायन आज भी विद्यमान है।
इस महामारी की समाप्ति के बाद ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही है कि पूरा विश्व आर्थिक मंदी की की चपेट में आ सकता है। ऐसी स्थिति में देशभर में बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी और भुखमरी की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
गाँवों में कम हैं कोरोना के मामले
इन सबके अलावा इस संकट काल में हमें कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर ध्यान देना होगा और उस दिशा में एक सकारात्मक एवं ठोस आधार तैयार करना चाहिए।
इस संकटजनित लॉकडाउन में भी स्वास्थ्य सुविधाओ को छोड़कर भारत के गाँवों में शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा आत्मनिर्भरता अधिक दिखाई दे रही है। कोरोना से संक्रमण के अधिकांश मामले शहरी क्षेत्रों में पाए जा रहे हैं। गाँवों में इसका प्रसार अभी भी न के बराबर है। इसके कारणों पर अध्ययन की आवश्यकता है।
आज भी भले ही शहरों को विकास का प्रतिमान बना दिया गया हो लेकिन गाँवों के बिना शहरों के सामने उत्तरजीविता का संकट उत्पन्न हो जायेगा। आजादी के इतने वर्षो के बाद भी हम गाँवों में लोगों को आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध करा पाने में असमर्थ रहे हैं। फलस्वरूप गाँव के लोगों के लिए शहर आज भी रोज़गार एवं आर्थिक उन्नयन की दृष्टि से आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं।
‘रिवर्स माइग्रेशन’ जैसी हो गई है परिस्थिति
अनिश्चय भरी इस त्रासदी के कारण देश में ‘रिवर्स माइग्रेशन’ जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है। इस संकटकाल में ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओं का शहर से वापस लौटना वैसे तो अच्छा नहीं है, लेकिन इसे एक संभावना के रूप में भी देखा जाना चाहिए।
नि:संदेह लोगों का शहरों से गाँवों की ओर लौट आना सरकारों के लिए चुनौती हैं। इसके दूरगामी परिणाम भी होने वाले हैं। अपने-अपने घरों की ओर लौट चुके प्रवासी कामगारों को नए सिरे से काम पर लगाना आसान नहीं होगा, क्योंकि इनमें से ज्यादातर लोग असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले है न कि गारंटीशुदा मज़दूर।
रोज़गार के नए तरीकों पर देना होगा ध्यान
ऐसी स्थिति में जब भविष्य में रोजगार के अवसरों में कमी आने की संभावना है और ऊपर से ‘रिवर्स माइग्रेशन’ के कारण गाँवों में अचानक से एकत्रित हुए लोगों के कारण गाँवों में श्रमाधिक्य की स्थिति उत्पन्न होने वाली है, इस स्थिति में सबसे पहले दो मोर्चों पर काम करना होगा।
प्रथम प्राथमिकता, यह होनी चाहिए की हमें ऐसे अवसरों एवं क्षेत्रों की न केवल खोज करनी होगी जिसमें ऐसे लोगों को रोज़गार दिया जा सके बल्कि ऐसे नये अवसर उत्पन्न करने के लिए नीतियों का निर्माण भी करना होगा। अन्यथा की स्थिति में अधिकांश लोगों की क्रय-शक्ति में ह्रास होने से आर्थिक समस्या के साथ-साथ तमाम तरह की सामाजिक समस्याएं भी उत्पन्न होने का खतरा बना रहेगा।
द्वितीय प्राथमिकता, के तौर पर हमें मूलभूत आवश्यकता वाली वस्तुओं के उत्पादन पर विशेष ध्यान देना होगा। इसके लिए ग्रामीण कच्चे मालों एवं उत्पादों पर आधारित गृह उद्योगों और कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करना होगा।
इस महामारी के कारण शहरों से वापस आने वाले लोगों में से अधिकांश किसी न किसी उत्पादक इकाइयों में निपुण (स्किल्ड) श्रमिक के रूप में कार्य करने का अनुभव रखते हैं। ऐसे में उनके इस कौशल और अनुभव का सकारात्मक उपयोग किया जा सकता है।
महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा जो ग्रामीण परिवारों को स्थानीय स्तर पर 100 दिवस प्रति वर्ष रोज़गार प्रदान करने करने की गारंटी देता है, उसका प्रमुख लक्ष्य गावों के लोगों की क्रय-शक्ति में वृद्धि कर उनका शहरों में होने वाले पलायन को रोकना है।
इस योजना के आयाम में वृद्धि करने का यह सर्वोत्तम अवसर है। इस योजना को क्रियान्वित करने वाले इसके परंपरागत क्षेत्रों यथा भूमि-सुधार, जल-संरक्षण आदि में विस्तार कर इसमें स्थानीय स्तर पर कृषि कार्यों, ग्रामीण कुटीर उद्योगों, डेयरी उद्योग आदि को जोड़ देना चाहिए।
यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि ग्रामीण व्यवस्था की यह पुनर्संरचना कोविड-19 जनित अवश्य है लेकिन इसे दीर्घकालिक और स्थायी बनाना होगा। ऐसा करना न केवल भारतीय गाँवों के हित में होगा बल्कि उसके साथ- साथ कई प्रकार की राष्ट्रीय समस्याएं खुद ही हल हो जाएंगी। इस दिशा में ठोस और प्रभावकारी कदम उठाए जाने की बहुत ज़रूरत है।