ठीक आज से एक साल पहले एक वक्त था जहां देश की चुनावी रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए बसों और ट्रेनों की लाइनें लग जाती थीं। कोई भी रैली हो या धार्मिक कार्यक्रम, सड़कों के किनारे स्टॉल सज जाया करते थे।
किसी मेले का आयोजन कराना हो या भीड़ जुटाकर अपनी ताकत दिखानी हो, हमारा देश इन सब में कभी भी पीछे नहीं रहा है लेकिन आज की परिस्थितियों को देखकर नेताओं को बुरा नहीं लगता है, क्योंकि मज़दूरों की परेशानियों से उन्हें क्या लेना-देना है?
काश आज देश में चुनाव होते
राजनीति और दूसरों के बारे में सोचना उतना ही अलग है जितना सरकार की नीतियों से अलग विपक्ष की विचारधारा। अगर देश में आज भी रैली होती तो ना जाने राज्य के किस-किस कोने से लोगों को बसों में ठूंस-ठूंसकर मैदानों में लाए जाते।
नेताओं के घरों पर टेंट लग जाते। सबके ठहरने के इंतज़ाम बखूबी कर दिए जाते। एक प्रकार से उनकी सारी सेवाओं का ध्यान रखा जाता। उन्हें वापस भेजने के इंतज़ाम भी कर दिए जाते और उन्हें इसके लिए कुछ उचित रकम भी दी जाती ताकि भीड़ वोट में बदल जाए।
अगर इस साल देश में चुनाव होता तो परिस्थितियां बिल्कुल ही अलग होतीं, मज़दूरों को वोट बैंक समझकर हर पार्टी उनको हरसंभव मदद देने के लिए दिन-रात ऐक कर देती लेकिन यह सत्ता का गुरुर ही है जो उन्हें इन कामों को करने से रोक रही है, क्योंकि उन्हें मालूम है अगले 4 सालों में लोग इसे भूल जाएंगे और सत्ता फिर से वापस उनके हाथो में होगी।
लेकिन वे यह भूल रहे हैं कि जो दर्द आज सभी मजबूर मज़दूरों के दिलों में दर्ज़ हो गया है, वह निकलने वाला नहीं है।
बिहार में तो चुनाव आने वाले हैं!
खैर, बिहार में ये बातें मायने नहीं रखती हैं, क्योंकि यहां की सरकार बिल्कुल अलग है। चुनाव का वक्त तो यहां भी आने वाला है लेकिन बिहार सरकार रोज़गार गंवाकर घर आने वाले लोगों का दर्द नहीं समझ रही है या समझकर भी अनदेखा कर रही है।
विपक्ष बिहार में सत्ता पर सवाल कर मज़दूरों के साथ रहने का आश्वासन दे रही है लेकिन ज़मीनी हकीकत हर सरकार के लिए एक समान है। बिहार में वक्त बदल गया है, लोग घर आ चुके हैं। सरकार के लिए अब जाति के आधार पर वोट लेना मुश्किल ना हो जाए, यह डर नीतीश कुमार और तेजस्वी को हर वक्त लगता रहेगा।
आज भी सड़कों पर भूखे चल रहे हैं मज़दूर
ये वही लोग हैं बस वक्त बदल गया है। आज सर पर भगवा टोपी नहीं है, हाथों में कमल का तिरंगा नहीं है, ज़बान पर मोदी-मोदी करने वाले लोग आज भी 2 वक्त की रोटी के लिए उसी मोदी से गुहार लगा रहे हैं लेकिन हां जोश वही है।
उस वक्त दूसरों को समर्थन देने का जोश था और आज आत्मनिर्भर बनकर अपने गाँव और घरों की तरफ जाने का जोश है। इन्हें बसों की राजनीति से ज़रा भी लेना-देना नही है। उन्हें उन ई-पास और कागज़ातों की सच्चाई जानने का ज़रा सा भी मन नहीं है।
सरकार लाख दावों के साथ करोड़ों खर्च कर दे लेकिन आज भी वे सड़कों पर भूखे पेट हज़ारों किलोमीटर अपने घरों की तरफ कूच करने में असहाय हैं। आज खबरों में मज़दूरों की मौत की कम और राजनीतिक बयानों की चर्चा अधिक है।
देश में बयानबाज़ी तो हर वक्त हुआ करती है मगर इन सबके बाद भी चुनाव आएंगे। वहां भी लोग इसी तरह बुलाए जाएंगे लेकिन कोई भी नेता ज़रा सा भी ज़िक्र नहीं करेगा, क्योंकि उन्हें अपनी कुर्सी से ज़्यादा मुहब्बत है।
मज़दूरों के भाग्य के साथ हमेशा खेला ही गया है!
ऐसे लाखों मज़दूर बसों, ट्रकों और ट्रेनों में ठूंस-ठूंसकर चलते आ रहे हैं। ना जाने कितना सफर तय कर लिया है और ना जाने घर से कितने किलोमीटर का फासला अभी भी तय करना होगा।
हमने इन्हें मज़दूरों का भाग्य मान लिया है तभी तो जब हम में से अधिकतर लोग अपने घरों में डर से दुबककर बैठे थे, तब आधे से ज़्यादा हिंदुस्तान को यह पता लगा कि ये मज़दूर कितने मजबूर हैं।
श्रम सैनिक ही है जो हिंदुस्तान बनाता है फिर किसी एक दिन हम तिरंगे से साथ बड़ी आसानी से बोल देते हैं ‘भारत भाग्य विधाता’ और भूल जाते हैं अपने श्रम सैनिकों को। चाहे कितना भी बड़ा नेता क्यों ना हो, कितने भी बड़े-बड़े वादे क्यों ना किए हों, इनके भाग्य के साथ हमेशा खेला ही गया है।