प्रकृति ने सभी को समानता के साथ पैदा किया है। प्रकृति महिला और पुरुष में किसी भी प्रकार का भेद नहीं करती है। वह मनुष्यों के बनाए गए अपने नियमों के अंतर्गत एक विशिष्ट संस्कृति का निर्माण करती है लेकिन प्रकृति निर्मित समानता के सिद्धांत का सही से पालन नहीं हो पाता है। विश्व में उन्नत करते समाज और अति पिछड़े समाजों के बीच मौजूद असमानता इसका एक उदाहरण है।
भारत के संदर्भ में भी यह देखा जा सकता है कि महिलाओं को समानता के सिद्धांत से कम ही जोड़ा गया है जो संविधान के लागू होने के बाद उन्हें मिला है। भारत की विशिष्ट सांस्कृतिक विविधता किसी चौंकाने वाले तथ्य से कम नहीं है। इस विविधता के लिए भारत का भूगोल आधारभूत ढांचा ही असमानता का निर्माण करता है। जिसके अंतर्गत सभी प्रकार की संस्कृतियों का जन्म बड़ी आसानी से हो सकता था।
महिलाओं के शरीर से जुड़ी समस्याओं को धर्म से जोड़कर नज़रअंदाज़ किया गया
उत्तर भारत में पितृतंत्रवादी सोच तथा जनजातीय समाजों में आज भी मातृसत्तात्मक समाज की उपस्थिति दिखाई पड़ती। सदियों से महिला और पुरुष के मध्य गैर-बराबरी का व्यवहार किया गया है। इसमें महिलाओं की समस्याओं को नज़रअंदाज़ कर दिया गया तथा उसका दिव्य स्वरूप निर्मित करके उसे एक पिंजरे में कैद कर दिया। महिलाओं के शरीर से जुड़ी समस्याओं को धर्म से जोड़कर उन पर होने वाली चर्चाओं को ही समाप्त कर दिया गया।
प्रकृति का दिया अनमोल उपहार जिसके अंतर्गत महिला और पुरुष मिलकर अपनी नई संतान पैदा करते हैं उसमें भी महिलाओं के साथ गैर-बराबरी का व्यवहार किया गया है। एक स्वस्थ पुरुष के लिए ज़रूरी है कि वह सभी प्रकार की बीमारियों से दूर रहे। उसी प्रकार महिलाओं के लिए भी यह सत्य है कि उनके स्वस्थ रहने के लिए माहवारी का नियमित अंतराल के पश्चात होना आवश्यक है। सृष्टि के संचालन का नियमित आधार भी वहीं से निर्मित होता है जिसके द्वारा यह संसार और भी सुंदर बनता है।
भारत में महावारी पर खुलकर क्यों नहीं होती?
भारत में अभी भी माहवारी के विषय पर खुलकर चर्चा नहीं होती। कमाल की बात यह है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में प्रवेश के बावजूद भी इस मुद्दे पर खुलकर वार्तालाप नहीं हो पाता। इस विषय पर शिक्षण संस्थानों में खुलकर बहस नहीं हो पाती है। जिसके कारण बहुत सारी समस्याएं जो हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा बन गई हैं, वह आज भी बाहें फैलाकर हमारे सामने खड़ी हैं।
विश्व आर्थिक मंच के ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2020 में भारत 2018 में अपने 108वें स्थान से 112वें स्थान पर फिसल गया। जिसमें 153 अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं।
इस प्रकार यह नज़र आता है कि जितना गैर-बराबरी का व्यवहार रहेगा उतना ही महिला समस्या पर दृष्टिपात करने पर रोके रहेगी। फुल्लू और पैडमैन जैसी फिल्मों में इस समस्या को दिखाया गया और इसने एक सकारात्मक बहस को भी जन्म दिया। जिसके परिणाम स्वरूप सरकार के द्वारा भी कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए गए, सेनेटरी पैड को लेकर।
माहवारी की समस्या अलग-अलग राज्य में भिन्न-भिन्न
महिला माहवारी की समस्या हर राज्य में अलग-अलग दिखाई देती है। आंध्र प्रदेश से भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी कर रहे रघु राम रेड्डी ने बताया कि माहवारी के दौरान वहां की महिलाओं को घर से बाहर रहना पड़ता है। उनका रसोई घर में प्रवेश वर्जित होता है। वह मंदिर नहीं जा सकतीं और अपने पुत्र को भी अपने आप से दूर ही रखती हैं। ऐसा तब तक चलता है जब तक माहवारी का समय खत्म न हो जाए।
माहवारी के दौरान महिलाओं को घरों में अलग-अलग मापदंड
रघु राम रेड्डी ने यह भी बताया कि माहवारी की समस्या को आधुनिक बदलते परिवेश में किस प्रकार एक व्यवस्थित रूप में स्थापित किया गया है। इसके लिए संयुक्त परिवार में महिलाओं के लिए अलग-अलग मापदंड हैं, वहीं एकल परिवार में महिलाओं के लिए अलग-अलग मापदंड स्थापित किए गए हैं।
संयुक्त परिवार में महिला रसोईघर तथा मंदिर को छोड़कर अन्य कार्य कर सकती है लेकिन अपने पति से वह तब तक दूर रहती है जब तक माहवारी का समय अंतराल खत्म ना हो जाए। वहीं एकल परिवार में महिला घर में स्थित मंदिर के सामने पर्दा डालकर सभी कामों को पूरा करती है जो इसके बदलते स्वरूप को भी प्रदर्शित करते हैं।
पैड के इस्तेमाल के बीच इसके निस्तारण की समस्या
सकारात्मक तथा आधुनिकता के परिवेश में प्रवेश के साथ कुछ मामलों में बदलाव भी नज़र आ रहा है। अब महिलाएं, लड़कियां माहवारी के दौरान सेनेटरी पैड का इस्तेमाल कर रही हैं लेकिन इसमें भी एक विकट समस्या इसके निस्तारण की है। जिस विषय पर आज तक बात करते हुए संकोच की भावना मन में पैदा होती रही है वहां सेनेटरी पैड का निस्तारण अपने आप में किसी चुनौती से कम नहीं है।
विश्वविद्यालय में निस्तारण के लिए मशीनें ज़रूर लगा दी गई हैं लेकिन अभी तक उनका सफल संचालन दूर की कौड़ी दिखाई देता है। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में शोधार्थियों ने बताया कि उनके छात्रावास की मशीनें ढंग से काम नहीं कर रही हैं। ज़रूरी है कि इस प्रकार के सेनेटरी पैड का निर्माण किया जाए जो पर्यावरण के दृष्टिकोण से और महिला स्वास्थ्य के लिए कारगर सिद्ध हो।
महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए स्वयं आना होगा आगे
बहरहाल महिलाओं को उन प्रथाओं को त्यागना होगा जिनके द्वारा उन्हें मुख्यधारा से अलग होना पड़ता है। रघु राम रेड्डी ने बताया कि संयुक्त परिवार में महिलाओं को अन्य लोगों के द्वारा सहायता मिलने के कारण कुछ कामों में छूट मिल जाती है। जबकि एकल परिवार में महिलाओं के पास विकल्प के अभाव होते हैं। ऐसे में उन्हें स्वयं काम करना पड़ता है। मतलब साफ है कि अगर एकल परिवार की महिलाओं के पास भी विकल्प हो तो वह स्वयं कार्य नहीं करेंगी, ऐसा क्यों?
धार्मिक रूढ़िवादिता तथा भारतीय संस्कृति की पोंगा-पंथी व्याख्या ने महिला मानसिकता को जकड़ रखा है। उदयगिरि और खंडगिरि की कलाकृतियां हमें इतिहास से महिलाओं की समस्याओं पर बात करने का रास्ता दिखाती हैं जिसे हमने सांस्कृतिक विरासत के स्वरूप ने छुपा दिया है। इसलिए इतिहास का सकारात्मक उपयोग, भारतीय संस्कृति के बदलते स्वरूप तथा उसकी विरासत को तर्कवाद के पैमाने पर नाप कर रखना होगा।