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गाँवों में कोराना से लड़ने वाली आंगनबाड़ी और आशा बहनों को सुरक्षा किट क्यों नहीं दिया जा रहा है?

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गाँव का स्वास्थ्य केन्द्र

कोरोना महामारी आज संपूर्ण दुनिया के लिए तो चुनौती बन चुका है। भारत जैसे विशाल देश के लिए यह और भी चुनौती का विषय है। क्योंकि भारत कोरोना के खिलाफ अपनी लड़ाई स्वास्थ्यकर्मियों के कमी के साथ लड़ रहा है।

भारत जैसे देश में पहले से ही चौपट स्वास्थ्य व्यवस्था ने एक बड़ा संकट संपूर्ण भारतवासियों के सामने लाकर खड़ा किया है। भारत की 80 फीसदी आबादी गांव में बसती है और गांव के अंदर स्वास्थ्य व्यवस्था के नाम पर स्वास्थ्य केंद्र कम बूचड़खाना अधिक बना हुआ है। अगर कोरोना संक्रमण को गंभीरता से देखा जाए तो सबसे बड़ा हमला ग्रामीण भारत पर ही है जिसको कोरोना संक्रमण से बचाए रखना एक बहुत बड़ी चुनौती है।

संसाधनों के अभाव में कोरोना से लड़ रहे हैं गाँव के स्वास्थ्य केंद्र

रूरल हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर (ग्रामीण स्वास्थ्य संरचना) की बात करें तो ग्रामीण हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर कोविड-19 महामारी को संभालने के लिए संसाधनों के इतंजार में बैठे थे। पहले से ही गांव के प्राथमिक अस्पतालों में डाक्टर और अन्य सुविधाओं का घोर अभाव हैं। ऐसे में अपर्याप्त सुरक्षा संसाधनो के बीच आशा कर्मी और आंगनबाड़ी सेविका सबसे आगे खड़े होकर कोरोना महामारी के खिलाफ जंग लड़ रही है।

भारतीय गाँवों में बुनियादी स्वास्थ्य कि देखभाल का काम भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कर्मचारी आशा कार्यकर्ता और आंगनबाड़ी सेविका करती हैं। यह गाँव के सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का एक प्रमुख गर्भनाल है जो ग्रामीण महिलाओं और बच्चों को स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं प्रदान कराने में अपनी अहम भूमिका निभाती हैं।

शुरू से ही इनकी सबसे बड़ी समस्या इनके मानदेय को लेकर रहीं है जो ना तो उचित है और ना ही इन्हें समय पर नहीं मिलती है। इनके मेहनताना को लेकर कई बार सवाल उठे लेकिन इनका सुध लेने वाला कोई नहीं है। ग्रामीण स्वास्थ्य ढ़ाचे को लेकर और वहां काम करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों को लेकर कमोबेश हर राज्य सरकारों में उदासीनता बनी रही है।

ग्रामीण स्वास्थ्य कर्मियों की सुरक्षा का क्या?

ग्रामीण स्वास्थकर्मी कार्यकर्ताओं में ज्यादातर जरूरत मंद, गरीब तबके की महिलाएं काम करती है। जिसमें से ज्यादातर महिला विधवा, विकलांग, परित्यक्ता, तलाकशुदा, बीपीएल श्रेणी में आती हैं। यही या तो आशा कर्मी या आंगनबाड़ी सेविका के रूप में ग्रामीण समाज के निर्माण में प्राथमिक भूमिका का निर्वहन करती है।

आज जब पूरा देश महामारी से लड़ रहा हैं तो महिला सशक्तिकरण का ढोल पीटने वाली सरकारों के तरफ से आदेश आता है। जिसमें न तो सुरक्षा संसाधनों के उपलब्धता की बात है ना ही काम करने के दौरान संक्रमण के खतरे को रोकने के लिए आवश्यक दिशा-निर्देश हैं। सीधे-सीधे इनको अपने क्षेत्र में काम पर लगा दिया जाता है।

बिना वेतन सिर्फ प्रोत्साहन राशि के बदले लिया जा रहा है काम

आशा और आंगनबाड़ी सेविका को बिना उचित सुविधा के कोरोना जैसी महामारी से लड़ने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा ज़िम्मेदारी सौप दी गई है। जिसकी भुगतान राशि बिहार में हर दिन के हिसाब से मात्र 200 रुपया और कहीं-कहीं तो इससे से भी कम रखा गया है। आशा कार्यकर्ताओं को तो वेतन ही नहीं मिलता है। सरकार काम के बदले सिर्फ इन्हें प्रोत्साहन राशि देती रही है जबकि आज यह समाज सेवी संगठन ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की प्रकिया में सबसे आगे खड़े होकर अपनी अहम भूमिका निभा रही हैं।

इन महिलाओं को इस जोखिम में बिना उचित सुविधा और सुरक्षा के फरमान जारी किया गया है कि घर-घर जाकर सर्वे करना है। इनको उन क्षेत्रों में भी जाना हैं जिस एरिया को कोरोना के चलते पूरी तरह सील कर दिया गया है। सुरक्षा के नाम पर इनको किसी तरह की कोई सुविधा नहीं दी गई है। मुश्किल से एक-एक मास्क और दस्ताने दिए गए हैं। सैनेटाइजर और पीपीई किट इन स्वास्थ्यकर्मियों को उपलब्ध नहीं कराये गए है।

फरमान जारी किया गया है कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के साथ सभी आशा कार्यकर्ताओं को अपने-अपने क्षेत्र में ऐसे लोगों की सूची बनानी है जिन्हें खांसी-ज़ुकाम जैसे कोई लक्षण हों, जो विदेश या दूसरे राज्यों से लौटे हों, जो किसी जमात से लौटे हों।

इस दौरान जो लोग क्वारंटीन किए गए हैं, उनकी मॉनीटरिंग की ज़िम्मेदारी भी आशा कार्यकर्ताओं की ही है। वे क्वारंटीन नियमों का पालन कर रहे हैं या नहीं। इस दौरान उनकी तबीयत कैसी रही? इसके अलावा लोगों को कोरोना से बचाव के लिए जागरुक करना भी उनकी ज़िम्मेदारी में शामिल है।”

सरकार अपना रही है गैर-ज़िम्मेदाराना रवैया

एक तरफ इनको भगवान कहा जा रहा है तो दूसरी तरफ इन पर हमले हो रहे हैं। क्षेत्र में काम कर रहे स्वास्थ्य कर्मचारी के साथ-साथ इन स्वास्थ्यकर्मियों के खिलाफ भी हिंसक हमले लगातार देखने को मिल रहे हैं। इसके बाद भी ये लोग सुविधाओं के अभाव में भी सहयोग के साथ इस महामारी के खिलाफ जंग में डटी हुई हैं।

ऐसे में सवाल उठता है कि आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं को यदि कोरोना जैसी बीमारी होती है तो इनका जिम्मेदारी कौन लेगा? खबरों में लगातार स्वास्थ्यकर्मियों और प्रशासन के लोगों में संक्रमण की बातें सामने आ रही हैं। इस स्थिति में आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं के संदर्भ में घोर लापरवाही बरती जा रही है।

ज़ाहिर है कि सरकारी लापरवाही अपने चरम पर है, इन आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं के माध्यम से ही अगर ग्रामीण भारत में कोरोना संक्रमण फैल गया तब मृत शरीर को कंधा देते-देते सरकारी कंधा छील जाएगा।

ज़रूरत इस बात की है कि इन आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं को भी उसी तरह का सरकारी संरक्षण दिया जाए जो डाक्टरों और प्रशासनकर्मियों को दिया जा रहा है। साथ ही साथ यह अपनी सेवा में डटी रहे इसके लिए इनको पर्याप्त सुरक्षा संसाधन भी उपलब्ध कराया जाए।

ग्रामीण भारत में संक्रमण को रोकने के लिए इन आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं का हेल्थ चेकअप और मानिटरिंग भी किया जाए जिससे संक्रमण का सही समय पर पता चले और इसे रोका जा सके। इन को भगवान के दर्जे़ की नहीं, बल्कि मूलभूत सुविधाओं की सख्त ज़रूरत है ताकि यह खुद के साथ-साथ औरों की भी मदद कर सके।

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