कोरोना संकट की वजह से दुनिया के सभी देशों की अर्थव्यवस्था की वाट लगी पड़ी है। सभी देश अपने-अपने तरीकों से अपने देश की अर्थव्यवस्था को दोबारा से पटरी पर लाने की जद्दोजहद में जुटी हुई है। कोरोना संकट के कारण दुनिया के सभी लोगों पर इसका प्रभाव पड़ा है।
ऐसे में उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्रीमंडल ने हाल ही में प्रदेश की आर्थिक गतिविधियों को तेज़ करने के लिए एक अध्यादेश लागू किया। संक्षित में बताया जाए तो 3 सालों के लिए उत्तर प्रदेश में केवल 3 श्रम कानूनों को छोड़कर सभी श्रम कानूनों को निरस्त कर दिया गया है।
उत्तर प्रदेश सरकार का यह निर्णय बेशक चंद मुट्ठी भर पैसे वाले, अमीरों के लिए जीवन दान साबित होगा मगर मज़दूरों के लिए बेहद ही खतरनाक साबित होगा।
कोरोना के कारण समाज में फैलती अस्थिरता
कोरोना के कारण भारत में लोगों की ज़िंदगियों में इतना प्रभाव पड़ा है कि हर दिन अखबारों में, टीवी चैनलों में इस पर नीचे दौड़ती हुई खबरें देखने को मिल जाएंगी। बच्चे भूख के कारण घास खाने को मजबूर हैं. शहरों में फंसे मज़दूर, बस और ट्रेन ना चलने पर, पैदल ही अपने घरों को चलने को मजबूर हैं। प्रत्येक व्यक्ति इससे त्रस्त है, परेशान है।
देश में गरीब मज़दूर की स्थिति से शायद ही कोई अछूता हो मगर फिलहाल देश में फैलती हुई अस्थिरता का मुख्य कारण सरकार का देश के गरीब मज़दूर के साथ भेदभाव भरा रुख अपनाना है।
एक तरफ तो विदेशों से फंसे हुए भारतीयों को रेस्क्यू किया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ देश के शहरों में फंसे प्रवासी मज़दूरों के लिए किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं दी जा रही है जिससे कि वे अपने घर वापस जा सकें।
ऐसे में उत्तर प्रदेश सरकार ने श्रम कानूनों को 3 सालों के लिए निरस्त करके अपने प्रदेश की जनता पर एक और बिजली गिरा दी है। जी हां, अब उत्तर प्रदेश में स्थित कम्पनियां कभी भी, किसी भी समय, अपने मज़दूरों को हायर एंड फायर कर सकती है और अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ मजदूर शिकायत भी नहीं कर सकते हैं।
यूपी सरकार का 3 सालों के लिए श्रम कानूनों पर रोक बेहद खतरनाक कदम
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 8 मई 2020 को यह ऐलान कर दिया गया कि प्रदेश में आर्थिक गतिविधियों को तेज़ करने के लिए सरकार ने 3 कानूनों को छोड़कर सभी श्रम कानून आने वाले 3 सालों के लिए लागू नहीं होंगे।
एक तो पहले से ही गरीब मज़दूरों की स्थिति बेहद खराब है। ऊपर से सोचिए कि जब भारत में लॉकडाउन खुलेगा तो जो मजदूर अपने अपने घर पहुंच चुके हैं, वे अपने ही राज्य में सबसे पहले काम तलाशने की कोशिश करेंगे।
जब उत्तर प्रदेश के स्थानीय निवासी अपने इलाकों में काम करना शुरू कर देंगे तो उनके ना तो काम करने के घंटों का कोई हिसाब होगा और ना ही वेतन का कोई ठिकाना। यदि मालिक किसी कर्मचारी को निकलना चाहे तो वह कभी भी निकाल सकता है, वो भी बिना किसी नोटिस के।
बाकी सभी सामाजिक सुरक्षा के बारे में तो सोचना भी बेकार है। सामाजिक सुरक्षा में मज़दूरों का पी. एफ, इलाज के लिए इ.एस.आई.सी और मज़दूरों का पेंशन आता है जिसके बारे में अभी तक सरकार ने कोई भी स्पष्टीकरण नहीं दिया है।
सरकार का यह कदम साफ-साफ दिखाता है कि भाजपा को मज़दूरों के हितों से कोई मतलब नहीं है। चंद मुट्ठी भर उद्योगपतियों के मुनाफे के लिए सरकार ने प्रदेश के सभी गरीब-मज़दूरों के हितों को रौंदने में एक पल के लिए सोचा तक नहीं!
ऐसे में सरकार का यह कदम, मज़दूरों के लिए ना सिर्फ शोषण से भरा है बल्कि इतना खतरनाक भी है कि एक बहुसंख्यक आबादी पर इसका असर सीधा देखने को मिलेगा।
असंगठित क्षेत्रों में श्रम कानून पहले से ही लागू नहीं होते
वैसे तो योगी सरकार द्वारा लागू किया गया यह अस्थाई अध्यादेश है मगर यह भी सच्चाई है कि जिन श्रम कानूनों के निरस्त होने की हम चर्चा कर रहे हैं, वे असंगठित क्षेत्रों में पहले से ही लागू नहीं होते हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के कुल कार्यबल का 93% हिस्सा अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र से जुड़ा हुआ है और जब हम बात करते हैं असंगठित क्षेत्र के कार्यबल की तो सभी मुख्य समस्याओं की जड़ ही असंगठित क्षेत्र में आपको मिल जाएंगी।
इस क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के ना तो काम के घंटों का कोई हिसाब होता है और ना ही वेतन का। कम से कम वेतन पर मालिक इनसे ज़्यादा से ज़्यादा काम निकलवा लेना चाहता है और इन्हें मजबूरन लोगों को काम करना पड़ता है, क्योंकि काम नहीं करेंगे तो भूखे मरने की नौबत आ सकती है और इसी का फायदा मालिक उठाते भी हैं।
इस क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के लिए, श्रम कानून जैसी चीज़े उनके फैक्ट्री के गेट पर ही रुक जाती है। 2-2 कमरों के मकान में फैक्ट्री खुली हुई होती है, जहां पर मोबाइल के चार्जर से लेकर मोटरसाइकिल के पुर्ज़े बनकर तैयार किए जाते हैं। ऐसे में वे फैक्टरियां ना तो सरकार के खातों में रजिस्टर होती हैं और ना ही उनके अस्तित्व का कोई ठिकाना होता है।
इन जैसे इलाकों में काम कर रहे लोगों का शोषण अपार होता है मगर इन लोगों के शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने वाला कोई भी नहीं होता। यदि काम के दौरान किसी मज़दूर के साथ कोई दुर्घटना हो जाए तो कोई मुआवज़ा नहीं मिलता है। पेंशन जैसी कोई सुविधा का लाभ भी नहीं है। यदि लोग बीमार पड़ जाएं तो छुट्टी ज़रूर मिल जाती है मगर उसका पैसा काटा जाता है।
अब आप खुद सोचिए कि जो फैक्ट्री सरकार के खातों में रजिस्टर ही नहीं है, वहां पर कैसे कोई श्रम कानून लागू हो सकते हैं? जब कोई कानून वहां पहले से मौजूद ही नहीं हो, तो उनका निरस्त होना या फिर ना होने से फर्क ही क्या पड़ने वाला है?
फर्क पड़ता है, बिलकुल फर्क पड़ता है। वह इस तरह से कि जहां पर पहले मज़दूरों का शोषण करने पर एक पल के लिए मालिक को डर था, अब वहां उसे डरने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। यानी कि सीधी बात करें तो अब मालिकों को मज़दूरों के शोषण करने का पूरा लाइसेंस मिल गया है।
मज़दूरों के शोषण का लाइसेंस है यह कदम
कोरोना संकट के कारण सरकार के अनियोजित (बिना किसी प्लानिंग के) लॉकडाउन से पहले से ही देश की आवाम कई समस्याओं से घिरी हुई थी। अब उत्तर प्रदेश सरकार का यह फैसला लॉकडाउन खुलने के बाद भी गरीब मज़दूर का पीछा नहीं छोड़ने वाली है।
हैरान करने वाली बात यह है कि सरकार की कैबिनेट ने मिलकर यह फैसला लिया है। इस फैसले से इस सरकार का मज़दूर विरोधी चरित्र साफ दिखाई देता है। जब से कोरोना संकट की वजह से देश में लॉकडाउन लगाया गया है तभी से मौजूदा केंद्र सरकार का भी चरित्र लोगों के सामने दिखाई देने लगा है।
ज़ाहिर सी बात है कि इस फैसले से आने वाले समय में उत्तर प्रदेश में मज़दूरों की स्थिति खराब होने वाली है। सरकार का यह फैसला, मानवाधिकारों का भी हनन करता है मगर कोई भी इस पर बोलने के लिए आगे नहीं आ रहा है। ऐसे मज़दूर विरोधी लाइसेंस के खिलाफ मज़दूरों को ही अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी।
आखिर सरकार कब मज़दूरों की सुध लेगी?
वैसे तो यह सरकार जब से सत्ता में आई है, तब से उन्होंने केवल उद्योगपतियों के हितों में ही नीतियों का निर्माण किया है> चाहे बड़े-बड़े पूंजीपतियों का कर्ज़ माफ करना हो या फिर चोरों को देश से बाहर भेजना। सारे काम पूंजीपतियों के पक्ष में किए हैं।
वहीं दूसरी ओर यदि आप गरीब मज़दूर के लिए नीतियों के निर्माण की बात करेंगे तो आपको पता चलेगा इन 6 सालों में सरकार ने लोगों को सिर्फ बेवकूफ ही बनाने का काम किया है।
कोरोना संकट के बीच जब लोग दो वक्त की रोटी के संघर्ष कर रहे थे तो यह सरकार विदेशों में फंसे भारतीयों को रेस्क्यू करने का काम कर रही थी। यहां विदेशों से लाए जाने वाले भारतीयों पर कोई सवाल नहीं है मगर खुद के देश में वे लोग जो इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हैं, उन पर इस सरकार की ज़रा सी भी संवेदना नहीं है।
ऐसे में हमें अपने आप से सवाल करना बेहद ज़रूरी हो जाता है कि जब इस देश के गरीब-मज़दूरों के खिलाफ सरकारें नियम-कानून बना रही थीं, उस समय हम क्या सोए हुए थे? क्या हमने सरकार के इस मज़दूर विरोधी कदम के खिलाफ आवाज़ उठाई?