पटरी पर पड़ी ये रोटीयां अपने आप में ही सारी कहानियां बयां कर रही हैं। ना करने को काम और ना ही रहने को सर पर छत। हताशा और मजबूरी में ये गरीब अपने घर की और पलायन कर रहे हैं। आज जो तस्वीर महाराष्ट्र के औरंगाबाद से सामने आई है वो बहुत ही भयावह है।
सरकार और प्रशासन से कोई भी मदद ना मिलने के बाद अपने घर को पैदल जा रहे उन 16 मज़दूरों को क्या पता था कि जब वे पटरी पर थोड़ी देर सोने के लिए लेटेंगे तो वह उनका अंतिम सफर होगा। इस लॉकडाउन का सीधा और बुरा असर अगर किसी पर पड़ा है तो वे हैं गरीब दिहाड़ी मज़दूर।
वे मज़दूर जो हर दिन मेहनत से कमाने के बाद ही अपना और अपने परिवार का पेट भर पाते हैं। यह पहली बार नहीं है जब लॉकडाउन के बाद इन गरीबों की मौत हुई हो। इससे पहले भी 900 से 1000 किलोमीटर पैदल सफर तय करने वाले कई सारे मज़दूर भी सड़कों पर अपना दम तोड़ चुके हैं।
गरीब मज़दूरों के पास कोई ऑप्शन नहीं होता है यह सोच पाने के लिए कि अगर सफर के दौरान संक्रमित हो गए तो क्या होगा, वे तो बस दूरी तय करते चले जाते हैं।
सवाल यह नहीं है कि अभी भी इतनी सारी संख्या में मज़दूर पैदल क्यों जा रहे है, बल्कि सवाल यह है कि सरकार के इतने बड़े-बड़े दावे के बावजूद भी ये गरीब अब भी सड़कों पर क्यों हैं? इतनी सारी ट्रेनें और बसें चलाने के बाद भी ये लोग अब भी पैदल अपने शहर जाने को मजबूर क्यों हैं?
सीधा-सीधा यह सरकार की नाकामी को दर्शाता है। सरकार एक तरफ गरीबों के खाते में 1000 रुपये भेज रही है, तो वहीं दूसरी तरफ जो मज़दूर अपने घर जा रहे हैं उनसे किराया भी वसूल रही है।
अब ये गरीब मज़दूर 1000 रुपये में अपना घर चलाएं या ट्रेन का टिकट लें? हालांकि कई सवाल उठने के बाद केन्द्र सरकार ने कहा कि इन मज़दूरों का खर्चा राज्य सरकार उठाएगी फिर भी श्रमिक के टिकट का पैसा केंद्र सरकार देगी या राज्य सरकार, यह स्पष्ट नहीं है।
इन सबके बीच इन गरीबों को कोई और विकल्प ना होने के कारण मजबूरी में अपनी जेब से खर्च उठाना पड़ रहा है।
सीधी बात यह है कि जो गरीब कोरोनो से बच गए वे भूख से नहीं बच पा रहे हैं।
पेट की आग इनको मरने पर मजबूर कर दे रही है और देश में इस मुसीबत के समय भी गरीबों पर नेता अपनी रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं। कटु सच इस देेश का यह है कि राजनीतिक साज़िश के चक्रव्यूह में हमेशा पीसता तो गरीब ही है!