हाल ही में एक सर्वेक्षण किया गया। इस सर्वेक्षण का नाम ‘कोविड-19 इंड्यूस्ड लॉकडाउन-हाउ इज़ हिटरलैंड कोपिंग’ है। यानी कोविड-19 की वजह से दूर-दराज़ के इलाकों में लोग किस तरह जीवन-यापन कर रहे हैं इसका सर्वेक्षण किया गया था। यह सर्वेक्षण 47 ज़िलों में किया गया। जिसमें असम, बिहार, छत्तीसगढ, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक,महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल के ज़िलों को शामिल किया गया था।
क्या कहता है सर्वेक्षण
सर्वेक्षण में पाया गया है कि 50 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं, जो पहले जितनी बार भोजन करते थे उसमें उन्होंने कटौती कर दी है। जिससे जितनी भी खाद्य सामाग्री है उतने में ही किसी तरह काम चलाया जा सके, वहीं 68 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिनके खाने की विविधता में कमी आई है। मतलब वे चुनने की स्थिति से बाहर हैं, उनकी थालियों में पकवान कम हो गए हैं।
इसके अलावा 84 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं, जिन्होंने खाद्य वितरण प्रणाली के ज़रिये भोजन हासिल किया और 37 प्रतिशत ऐसे परिवार हैं जिन्हें राशन मिला है। वहीं 24 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जिन्होंने गांव में उधार लिया और 12 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन्हें मुफ्त में राशन मिल पाया है।
वेबिनार में यह सर्वेक्षण जारी किया गया है कि ये परिवार पीडीएस यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर ज्यादा आश्रित हो गए हैं। इन परिवारों ने भोजन की क्षमता को घटा लिया है, वे अब कम भोजन कर रहे हैं। वहीं ये परिवार रबी की फसलों की अपेक्षा खरीफ की फसलों पर ज़्यादा निर्भर करते हैं, तो स्वभाविक है कि इनके खाद्य भण्डार खत्म हो रहे हैं।
साथ ही 2020 में खरीफ की फसल की तैयारी भी अच्छी नहीं हैं। बीज और खाद के लिए इन्हें नकद राशि की ज़रूरत होगी जो कि इनके हाथों में फिलहाल नहीं है। यह अध्ययन नागरिक संगठन प्रदान, एक्शन फॉर सोशल एडवांसमेंट, बीएआईएफ, ट्रांसफॉर्म रूरल इण्डिया फाउंडेशन, ग्रामीण सहारा, साथी उ.प्र. और आगा खां रूरल स्पोर्ट प्रोग्राम ने किया है।
लोगों की थालियों से छिन गया उनका भोजन
लॉकडाउन ने हर वर्ग को प्रभावित किया है जिसमें खासकर मध्यम वर्गीय और गरीब की थालियों से पकवान क्या भोजन भी छिन जाने की स्थितियां बन गयी हैं।
सोचने वाली बात यह है कि पहले लॉकडाउन के ठीक बाद ही वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने 1.7 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज घोषित किया था, जिसमें मनरेगा के तहत मजदूरों को अगले तीन महीने तक मज़दूरो और गरीबों को गेहूं या चावल, महिलाओं को मुफ्त सिलेंडर, किसानों के खातों में पैसे जैसी कितनी ही बातें की गई थीं लेकिन ज़मीन पर इसका कोई खास असर देखने को नहीं मिला।
दूसरी ओर राज्य सरकारें बड़े-बड़े पैकेज और योजनाओं की बातें कर रही हैं। जैसे बिहार ने 100 करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की थी और बताया था कि इस पैसे का उपयोग बिहार से बाहर फंसे मज़दूरों को वापस लाने में किया जाएगा। जबकि हकीकत यह है बिहार सरकार पहले ही अपने मज़दूरों को बुलाने के मामले में हाथ खड़े कर चुकी है।
लगभग 10 करोड़ लोग हैं पीडीएस और राशन कार्ड की लिस्ट से बाहर
देश में कई राज्य सरकारों ने तमाम घोषणाएं की हैं लेकिन उनकी ज़मीनी हकीकत टटोलने कोई जाएगा क्या? भूख से बिलखते चेहरों की तस्वीरें अपने आप ही सब बयां कर रही हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज की बात की हैं, लेकिन यह कहां से आएगा और क्या यह ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंच भी पाएगा? इस पर बात कौन करेगा?
जहां एक ओर राहत पैकेज और राहत कोष की भरमार है, वहीं दूसरी ओर हकीकत यह है कि लॉकडाउन की अवधि को लगभग हो महीने बीत चुके हैं और अगले राहत पैकेज में भी ऐसा कुछ नहीं है जिससे ज़मीनी स्तर पर कुछ बदलता नज़र आए। एक ओर तो राशन सभी को उपलब्ध नहीं हो पा रहा है (क्योंकि आबादी का एक बड़ा हिस्सा पीडीएस और राशन कार्ड दोनों से ही बाहर है लगभग 10करोड़) और जिन्हें निल भी रहा है, तो 5 किलो गेहूं या चावल एक परिवार को कितने ही दिन पोषित कर पायेगा?
वहीं 20 लाख करोड़ का कोई पैकेज घोषित हो भी गया तो उससे राशन पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि वे सारी ही घोषणाएं, घोषणाएं ना होकर अगली किसी भयावह त्रासदी से निपटने की कार्य योजना हैं, जिन्हें लागू होने में ही लम्बा समय लग जाएगा।
रोज़गार हो गया खत्म घरों को लौट रहे हैं लोग
कितने भी करोड़ के राहत पैकेज घोषित कर दिए जाएं आम नागरिक फिर भी अपने भविष्य को लेकर चिंतित ही रहेगा। छोटे-मोटे रेहड़ी वालों के धन्धे पूरी तरह बंद हो चुके हैं, उनकी एक मात्र जीविका छिन चुकी है। लाखों लोग शहरों वापस अपने घर की तरफ लौट रहे हैं।
भारत के घरों में आज भी मुखिया एक ही होता है जिस पर पूरे घर की ज़िम्मेदारी होती है और जब एक तरफ पेंशन, वेतन में भारी कटौती की बात की जा रही हो, वहां परिवार के पास बचत का जरिया कम खाना ही रह जाएगा और वो तो गनीमत है रबी की फसलें खेतों से घरों तक आ चुकी हैं वर्ना तो सर्वेक्षण में आधी आबादी भूखे पेट ही सोई पाई जाती।
ऐसे में सवाल यह है कि इतने लाखों-कोरोड़ों के पैकेज घोषित होकर कहां अटक जाते हैं? क्या वाकई सरकारें चाहती हैं कि खाद्य संकट मिटे? आंकड़े जारी करना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन उन्हें अमली जामा पहनाना मुश्किल बात है। इस वर्ष मार्च में ही लगभग 7.70 करोड़ टन अनाज स्टॉक में है मतलब अब तक का सबसे ज़्यादा स्टॉक, उसके बाबजूद भी स्थिति बेहद गम्भीर है, क्योंकि आम नागरिक तक इसकी आपूर्ति नहीं की जा रही है।
खुल रही है सरकारी योजनाओं की पोल
वैसे भी भारत के हाल पहले भी कुछ खास बेहतर नहीं रहे हैं और यदि कोविड-19 का कहर लम्बे समय तक जारी रहता है तब भूखमरी की स्थिति भी आ सकती है। माना कि यह कोरोना का समय है, संकट की घड़ी है लेकिन फिर भी सरकारें साल-दर-साल गरीबों और किसानों के नाम पर वोट लेकर जिन योजनाओं के सफल होने का डंका पीटती फिरती हैं, उन योजनाओं का क्या हुआ?
वास्तव में यह स्थितियां उन सभी योजनाओं की पोल खोलती नज़र आ रही हैं। भारत का विकास मॉडल बस इतना है कि सड़कें बन गयी हैं उन पर कितने खून सने थके-हारे पैर चल रहे हैं इस पर किसी की कोई नज़र नहीं है।
सर्वेक्षण गुज़रे तीन महीनों की स्थिति ही बता रहा है कि परिवारों ने किस तरह अपने भोजन की आदतों में बदलाव कर लिया। यही सर्वेक्षण अगले 6 महीने बाद होगा तो जाने और कितनी भयावह स्थितियां देखने को मिलेगी, क्योंकि स्थितियां सामान्य होने तक आधी से अधिक छोटी-मंझोली फैक्ट्रियां भी बंद हो चुकी होंगी और लाखों कर्मचारी बेरोज़गार हो चुके होंगे।
छोटे व्यापारियों के पास इतना सामर्थ्य नहीं रह जाएगा कि वे अपने व्यवसाय को सुचारू रूप से शुरू कर पाएं। वक्त रहते सरकारें अपनी नीतियों में बदलाव कर ले तो बेहतर है वर्ना कोविड-19 से हम जीत भी गए तो हमें इससे भी भयानक महामारी भूखमरी से हारना होगा।