लॉकडाउन से पहले केंद्र सरकार ने ना कोई तैयारी की और ना तो राज्य सरकारों से इस बारे में कोई विचार-विमर्श किया। सरकार ने अपने हर नाकाम फैसले की तरह इसे भी लागू कर दिया। जैसे सरकार ने बिना सोचे समझे, बिना विचार विमर्श किए जल्दीबाज़ी और हड़बड़ी में नोटबंदी और जीएसटी जैसे घातक फैसले लिए थे, ठीक उसी प्रकार केंद्र सरकार ने जल्दबाजी और हड़बड़ी में लॉकडाउन का फैसला ले लिया।
बदइंतज़ामी का ज़िम्मेदार कौन?
इस फैसले का असर देशभर में फैली बदइंतज़ामी से लगाया जा सकता है। सड़कों पर मज़दूर पैदल चलने को मजबूर हैं। दो महीनों के बाद भी ऐसा लग रहा है कि सरकार की अपरिपक्व नीतियों के कारण लॉकडाउन का फैसला फेल होता दिख रहा है। क्योंकि जब लगभग 500 कोरोना मरीज़ थे तब सरकार ने पूरे देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया था और अब जब एक लाख से अधिक कोरोना मरीज़ होने पर लॉकडाउन को खोलने की बात कही जा रही है, लोगों को आने-जाने दिया जा रहा है।
अगर एक लाख से अधिक कोरोना मरीज़ होने पर सरकार लॉकडाउन खोलने और आवागमन शुरू करने की बात कर रही है, तो 500 मरीज़ होने पर लॉकडाउन क्यों लगाया गया? उस समय लोगों के आने-जाने पर रोक क्यों लगाई गई? जबकि उस समय तो खतरा कम था, संक्रमण अब के मुकाबल कम फैल रहा था। जो लोग सड़कों पर सड़कों पर पैदल चलकर अपने घर जाने को मजबूर हैं, उनको इतनी दुर्दशा और प्रताड़ना भी नहीं झेलनी पड़ती।
अब ऐसे में सवाल यह है कि 500 से भी कम मरीज़ होने के बावजूद सरकार ने लॉकडाउन घोषित कर दिया था लेकिन अब कोरोना मरीज़ों की संख्या लाख से भी अधिक हैं और अब संक्रमण तेज़ी से बढ़ने का खतरा भी है सरकार लॉकडाउन क्यों खोल रही है? ऐसा भी तब किया जा रहा है जब पूरी दुनिया के पास इस बिमारी का कोई इलाज़ नही है। अगर लॉकडाउन में सरकार से स्थिति संभल नहीं रही तो खुलने के बाद कैसे सम्भलेगी?
लॉकडाउन लगाने से पहले राज्यों से क्यों नहीं किया विचार-विमर्श?
लॉकडाउन लगाने से पहले केंद्र सरकार ने राज्यों से कोई खास बातचीत नहीं की और ना ही उनको बहुत ज़्यादा निर्णायक शक्तियां दीं। सब कुछ केंद्र ने अपने हाथ में ले लिया था लेकिन जब महीने भर के लॉकडाउन के बाद कोरोना मरीजों की बढ़ती हुई संख्या पर काबू नहीं किया जा पा रहा है, तो केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को निर्णय लेने को क्यों कहा?
जैसे कोरोना जोन और लॉकडाउन के निर्णय का फैसला अब राज्य सरकारें खुद लेंगी, अगर केंद्र सरकार ने यही काम शुरू से राज्य सरकारों के हाथ में दिया होता तो स्तिथि शायद इतनी ख़राब नहीं होती।
भारत के कुछ राज्य ऐसे थे जहां कोरोना के एक भी मरीज नहीं थे। तब भी वहां लॉकडाउन लगा दिया गया जबकि अगर राज्य सरकारों के पास पावर होता तो जिन राज्य में कोरोना था वहां लॉकडाउन लगा दिया जाता और जहां नही था उस राज्य की सीमा बंद कर दी जाती। बाकी आतंरिक गतिविधियां चालू रहती तो देश को इतने बड़े आर्थिक संकट से भी नहीं नहीं जूझना पड़ता।
संक्रमितों की संख्या बढ़ती ही जा रही है
दो महीने के लॉकडाउन के बाद भी सरकार कोरोना मरीजों की संख्या में कमी लाने में कोई सफलता नहीं हासिल कर सकी है। जिसका नतीजा दो महीने के लॉकडाउन के बाद भी 500 से एक लाख मरीज़ होने के रूप में सामने है। पूरे लॉकडाउन में सरकार कोरोना रैंडम टेस्ट में भी तेज़ी नहीं ले आ पाई। जिसका नतीजा सामने हैं मरीजों की संख्या रोज़ बढ़ती जा रही है।
दो महीने के लॉकडाउन में सरकार अब तक कोरोना से निपटने के लिए कोई ठोस कार्यवाई नहीं कर सकी है। ना ही लॉकडाउन के बाद भी पर्याप्त पीपीई किट्स और स्वास्थ्य उपकरण ही उपलब्ध करा पा रही है।
सरकार राहत पैकेज के नाम पर कर रही है धोखा
सरकारें राहत पैकेज का ऐलान करती रहीं लेकिन मजदूरों को खाने-पीने और रहने की सुविधा मुहैया नहीं करा पाई। ऐसे में महीने भर इंतज़ार करने के बाद मज़दूर अपने परिवारों के साथ सैकड़ो किलोमीटर पैदल चलकर घर जाने को मजबूर हो गए। इसके बावजूद सरकारें घर जाते मजदूरों को उनके घर लौटने तक का साधन भी नहीं दे पा रही हैं।
सरकारों के सभी दावों की पोल मजदूरों की सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा खोल रही है। क्योंकि अगर किसी को जहां वह है वहीं रहने-खाने की सुविधा मिलेगी तो कोई इस तपती धूप में पावों में छाले लिए, बिलखते भूखे बच्चों, बूढ़ों और गर्भवती महिलाओं से साथ सैकड़ों किलोमीटर पैदल क्यों चलेगा? एक बार आप खुद सोचिए आप सैकड़ों किलोमीटर इस कड़कती धूप में पैदल जाने को कब मजबूर होंगे?
सरकार की अपरिपक्व नीतियों के कारण लॉकडाउन में कोरोना संक्रमितों की संख्या लाख के पार पहुंच गई है। सरकार की दूरदर्शिता की कमी ने लॉकडाउन को विफल कर दिया। जैसे शराब की दुकानों को खोलने का आदेश देना सरकार की एक अपरिपक्व और दूरदर्शिता की कमी को साफ-साफ दिखाती है।
किन लोगों तक पहुंची सुविधाएं?
सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का जिक्र करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जी ने कहा, “जहां ज़रूरत थी, उनको सीधी मदद मिल गई है।” अगर जरूरतमंदों को मदद मिल गई है तो सड़कों पर चलने वाले ये कौन लोग हैं?
क्या आपको सोशल मीडिया पर आ रही बेबस मज़दूरों की वीडियो देखकर लगता है कि जिनको ज़रूरत है उनको मदद मिल रही है? ना जाने ऐसे कितने लाखों असहाय लोग सरकार की बदइंतज़ामी के कारण आज बिलख रहे हैं, भूखों मर रहे हैं या दुर्घटना के शिकार हो जा रहे हैं लेकिन सरकार कागजी दावे करने में व्यस्त है। इसके ऊपर से जो बेबस और लाचार प्रवासी मज़दूर पैदल अपने गृहराज्य जा रहे हैं, तो सरकारें सीमा बंद उन्हें परेशान अलग कर रही है।
सरकारों के दावे गुलाबी और कागजी हैं, जबकि उसकी हकीकत एक काली कहानी है। इसकी हकीकत दरअसल महानगरों से निकलने वाले हाइवे और रेलवे ट्रैकों पर बेबस मजदूरों की मौतों के बाद हमें दिखाई दे रही है। मज़दूर दुर्घटना का शिकार हो जाता है तो सरकारें लाशों की कीमत लगा कर जवाबदेही से बचने के लिए गरीबों को मुआवजा देकर संवेदना व्यक्त कर देती हैं।
सरकार अपना रही है दोहरा रवैया
सरकार विदेशों से लोगों विमानों के ज़रिए भी ला सकती है, लेकिन मज़दूरों को एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश नही पहुंचा सकती है। मज़दूर पैदल जाने को बेबस क्यों हुए? मजदूरों के साथ हो रही घटनाओं का ज़िम्मेदार कौन है? इन मजबूर मज़दूरों पर पुलिसिया अत्याचार क्यों किया जा रहा है?
दो महीने से लगातार मज़दूर सरकारी प्रताड़ना झेल रहे हैं लेकिन श्रम मंत्रालय कहां है? पिछले दो महीनों में आप ने श्रम मंत्री का कोई बयान सुना है मजदूरों को लेकर? क्या आप अपने श्रम मंत्री का नाम जानते हैं? मैं दावे के साथ कह सकता हूं 95% भारतीय अपने अपने श्रम मंत्री का नाम भी नहीं जानते होंगे जबकि इस संकट की घड़ी में उनकों मज़दूरों के साथ कदम-कदम पर होना चाहिए लेकिन वे गायब हैं। सरकार के इस असंवेदनशील रवैये पर जीतनी भी लानत भेजी जाए कम ही है।
नहीं है सरकार के पास जनता के सवालों के जवाब
मजदूरों के इस हालात पर सरकार से सवाल पूछे जा रहे हैं। इस पर सरकार को जबाब नहीं सूझ रहा है तो सरकार विपक्ष पर मज़दूरों के ऊपर राजनीति करने का आरोप लगा रही है लेकिन सरकार को यह बात समझ नहीं आ रही है कि विपक्ष या कुछ मीडिया सरकार से मज़दूरों की बदहाली और बेबसी पर सवाल कर रही है क्योंकि वह सत्ता में हैं और देश की अव्यवस्थाओं के लिए वह ज़िम्मेदार है। अगर मजदूरों की स्तिथि दयनीय नहीं होती तो सरकार से कोई प्रश्न क्यों करता?
अगर सरकार को विपक्ष द्वारा सरकार से मजदूरों की बदहाली और बेबसी पर सवाल करना राजनीती लगता है तो विपक्ष राजनीति ही करेगा क्योंकि विपक्ष या किसी को भी ये मजदूरों की बदहाली और बेबसी नहीं देखी जा रही है।
नेता मज़दूरों को बता रहे हैं डकैत
योगी जी के मंत्री उदय भान सिंह प्रवासी मज़दूरों को डकैत कह रहे हैं। इसके बाद अब प्रतापगढ़ के बीजेपी सांसद संगमलाल गुप्ता ने मज़दूरों पर बेतुका बयान देते हुए कहा, “मजदूर तो अपने घर जा चुके हैं जो लोग अपने परिवार के साथ सड़क पर हैं ये वो लोग हैं जो गर्मी की छुट्टियां मनाने आये थे।” बीजेपी के नेता मजदूरों की मदद तो कर नहीं रहे लेकिन उनका मजाक ज़रूर बना रहे हैं।
पैकेज के नाम पर कर्ज़ लेने की बात कर रही है सरकार
मोदी जी ने एक बार फिर राहत पैकेज के नाम पर जनता से क्रूर मज़ाक किया और 21 लाख करोड़ के राहत पैकेज में सरकार की जेब से सिर्फ डेढ लाख करोड़ ही खर्च होंगे। बाकी रिजर्व बैंक की लिक्विडिटी, कर्ज गारंटी जैसी घोषणाएं कर दी गई हैं।
इस महामारी में कर्ज कौन लेने की हिम्मत बनाएगा। अगर किसी ने कर्ज़ लिया भी तो प्रधानमंत्री मुद्रा योजना की तरह इसमें भी लोग कर्ज़ लेकर जमा ही नहीं कर पाएंगे और बैंकों का एनपीए बढ़ जाएगा। अभी तो हम करोना संकट के साथ आर्थिक संकट से जूझ ही रहे हैं लेकिन ये कर्ज़ जो सरकार के राहत पैकेज के नाम पर दिया जा रहा है वो एक बार फिर अर्थव्यवस्था के लिये संकट बनेगा।
आसान भाषा मे यह जान लीजिए कि राहत पैकेज मतलब हुआ कर्ज़ लेकर काम करो। सरकार ने घोषणा किया, मीडिया ने ढोल बजाया, आप को क्या मिला इसका आकलन आप खुद ही कर लीजिए?
आत्मनिर्भर भारत के नाम पर कर्ज़निर्भर भारत बनाया जा रहा है और एक बार फिर सरकार के द्वारा आत्मनिर्भर भारत के नाम पर सरकारी कंपनियों और संपत्तियों को बेचने का काम दोबारा शुरू किया गया है। जैसे कोयले का कमर्शियल खनन, कोयले से गैस बनाना, एयरपोर्ट प्राइवेटाइजेशन, एयरक्राफ्ट मेंटेनेंस हब, एयरस्पेस खोलना और रक्षा मामलों में एफडीआई को 74% तक कर देना। सीधे तौर पर आत्मनिर्भरता के नाम सरकारी सम्पति को बेचना हो गया है।