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आखिर क्यों भूमिहीन होने को मजबूर हैं झारखंड के आदिवासी किसान?

आज से कुछ साल पहले की बात है, आदिवासी समाज में शादी के रिश्ते के लिए सबसे पहले लड़के वाले लड़की को देखने आते हैं। उसके बाद लड़के और उसके परिवार को देखने और मिलने के लिए बारी आती है लड़की वालों की।

इस दौरान लड़की के पिताजी लड़के से तीन मुख्य सवाल पूछते हैं ताकि यह पुष्टि कर सकें कि लड़का शादी योग्य और सक्षम है या नहीं।

क्या हैं वे तीन सवाल?

पहला सवाल- उरी: को मिना कुवा ची बनो? 

अर्थात क्या आपके पास बैल है या नहीं?

दूसरा सवाल- सिहयू आदानाम ची बानो? 

अर्थात आप हल चलाना जानते हो या नहीं?

तीसरा सवाल- नाइल बाई एतो याम ची बनो? 

अर्थात आप हल बनाना जानते हो या नहीं?

अगर लड़का इन सभी कार्यों को करने में सक्षम है, तो समझ लीजिए कि रिश्ता पक्का। फिर क्या, उसके बाद तो पूरे गाँव में खुशगवार माहौल के बीच एक से एक ट्रेडिशनल पकवान बनने शुरू हो जाते हैं। लोग आदिवासियों की पसंदीदा राईस बियर, जो कि हंडिया में बनती है, उसे भी तैयार करना शुरू कर देते हैं।

 

इस विषय पर हमें बात करने की ज़रूरत क्यों पड़ी?

यह सवाल अपके ज़हन में ज़रूर होगा। दरअसल, ऊपर जो भी ज़िक्र हुआ यह किस्से पुराने दिनों के हैं। रही बात आज की‌ तो अभी समय बदल गया है। हम सब आधुनिक समय में प्रवेश कर गए हैं और लोग आधुनिक रफ्तार के साथ बढ़ते चले जा रहे हैं।

जहां पहले बैलों से पारंपरिक खेती होती थी, आज वहीं लोग ट्रैक्टर के इस्तेमाल के साथ आधुनिक खेती शुरू कर चुके हैं। आज बदलाव आ चुका है, इसलिए वे सवाल भी बदल गए हैं।

माना कि लोग समय के साथ आधुनिक खेती करना शुरू कर रहें हैं मगर आज भी कुछ लोग बचे हुए हैं, जो पारंपरिक खेती कर रहे हैं। इसकी दो वजहें हो सकती हैं, पहली यह कि लोगों के पास पारंपरिक खेती का सही ज्ञान है और वे उसके महत्व को समझते हैं। दूसरी के अनुसार लोग गरीबी के कारण ट्रैक्टर जुटा नहीं पाते हैं, इसलिए मजबूरी में पारंपरिक खेती करते हैं।

पारंपरिक खेती क्या है?

झारखंड के पराऊ बोदरा आज भी पारंपरिक खेती करते हैं।

पारंपरिक खेती में खेत की जुताई घर के पालतू जानवर बैलों द्वारा हल चलाकर करते हैं। इसके बाद सड़े-गले घास-पत्तों एवं गोबर को खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

पहाड़ों और जंगलों से घिरा जो खेत होता है या जो पहाड़ और जंगल के समीप हैं, उनमें खाद डालने की ज़रूरत नहीं होती है क्योंकि सड़े-गले पत्ते जंगलों से अपने आप खेतों में आ जाते हैं और खेतों को उर्वरक बना देते हैं। इसमें कृत्रिम उर्वरक का बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं किया जाता है।

खेत में जो बीज डाला जाता है, उसे भी घर में ही तैयार किया जाता है. बाज़ार से बीजों को नहीं खरीदा जाता है। हर साल बीजों को बहुत ही सुरक्षित तरीके से पोटला यानी पैकिंग बनाया जाता है ताकि किसी भी तरह के कीड़े ना लगें और ये हमेशा नमी से बचे रहें। 

पुरानी खेती की विधि से ज़मीन कभी भी खराब नहीं होती है और हमेशा उपजाऊ बनी रहती है। साथ ही साथ यह उच्च किस्म की फसल पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमें देती रहती है। ट्रैक्टर की तुलना में पारंपरिक खेती खेत को ज़्यादा उपजाऊ बनाती है।

पारंपरिक खेती हमें स्वावलंबी होना सिखाती है

पारंपरिक खेती।

पारंपरिक खेती से हम बाज़ार पर निर्भर नहीं रहते हैं। पारंपरिक खेती हमें आत्म-सम्मान और आज़ादी के साथ जीना सिखाती है, साथ ही यह जीने की राह आसान बनाती है। यदि हम आधुनिक तरीके से खेती करते हैं, तो हमें कभी ना कभी बाज़ार पर निर्भर होना ही पड़ता है।

खेत की जुताई के लिए ट्रैक्टर की ज़रूरत होती है और इंधन बाज़ार से लाना पड़ता है। अधिक-से-अधिक पैदावार पाने के लिए रासायनिक खाद की ज़रूरत भी पड़ती है, जो कि बाज़ार से मिलती है और रही बात बीज की तो‌ यह भी मजबूरन बाज़ार से ही लेना पड़ता है।

आधुनिक खेती कर्ज़दार बना देती है

आधुनिक खेती में ज़रूरत से ज़्यादा व्यापक पैमाने में पैदावार और अधिक मुनाफा कमाने के लिए किसानों को कर्ज़ भी लेना पड़ता है। यदि एक बार किसान कर्ज़ तले दब गया तो कभी नहीं उठ पाता है।

आप आजकल महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार के किसानों का हाल देख सकते हैं। हमारा झारखंड ही ऐसा राज्य है जहां किसान कम आत्महत्या करते हैं लेकिन यहां जिस तरीके से खेती करने की शुरुआत हो चुकी है, इससे यह कहा नहीं जा सकता है कि आगे भी झारखंड का यह स्थान बना रहेगा।

कहीं झारखंड के किसान षड्यंत्र का शिकार तो नहीं बन रहें?

खुद की खेती होने पर आदिवासी बाज़ार पर पूरे तरीके से निर्भर नही रहते।

झारखंड के आदिवासी किसानों को षड्यंत्र के तहत उनकी पारंपरिक खेती को समाप्त किया जा रहा है। उनकी मूल पूंजी ज़मीन एवं उनकी मेहनत खत्म होती दिखाई दे रही है। आदिवासी परिवार अपनी ज़मीनों पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी से खेती के ज़रिये खुशहाल ज़िंदगी जीते आ रहे हैं।

अब उस ज़मीन से विस्थापित होकर वे भूमिहीन हो रहे हैं। जो आदिवासी किसान पूर्ण रूप से विस्थापित और भूमिहीन हो गए हैं, वे अब किसान से गुलाम मज़दूर बन गए हैं।

जब लोगों के पास ज़मीन नहीं, उनकी खेती-बाड़ी नहीं, तब मजबूरन उन्हें नौकरी ढूंढनी पड़ती है। उन्हें एक नौकर बनकर नौकरी करनी पड़ती है जिसमें किसी के नीचे एक गुलाम की तरह काम करना पड़ता है।

जलवायु परिवर्तन और पारंपरिक खेती की कड़ी

आदिवासी जीवन सबसे अधिक खेती पर आधारित है और जिस रफ्तार से पर्यावरण बदल रहा है, उससे पूरा आदिवासी समाज खतरे में हैं।

पारंपरिक खेती पूरी तरह से बारिश के पानी पर निर्भर रहती है। ‌जहां तक मेरी आंखों देखी समझ है, इस साल 2019 में बारिश अच्छी नहीं हुई और इसका सबसे बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन है।

इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करना मानवता की सबसे बड़ी गलती या मूर्खता समझ लीजिए। आखिर यह जलवायु परिवर्तन क्यों हो रहा है, यह हमें सबसे पहले समझना होगा।

आज की आधुनिक ज़िंदगी हमें प्रतियोगिता सिखाती है, आराम की ज़िंदगी कैसे जिएं यह सिखाती है। यही नहीं, हम समय बचाकर तेज़ी से आगे कैसे बढ़ें यह भी हमें आधुनिक ज़िंदगी सिखाती है।

यह बहुत अच्छी बात है, उन खोजकर्ताओं, वैज्ञानिककों और बड़े-बड़े कारखानों के मालिकों के लिए जो हमारे सुख-सुविधा के सामान और यंत्र तैयार करते हैं। उन सभी को मेरा जोहार मगर हम भूल गए हैं कि यह सब हासिल करने के पीछे हमने क्या खोया है और सबसे दुख की बात तो यह है कि हमारे पास उसका हिसाब भी नहीं है।

किसी ने सही कहा है, “कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।” इस कथन पर मेरा सवाल है कि हमने क्या खोया और हमने पाया भी तो क्या पाया? अगर आज हमें समझ भी आ गया तो क्या हम में इतनी हिम्मत है कि हम उन तमाम चीज़ों पर अंकुश लगा सकें? 

मनुष्यों ने हज़ारों साल पहले पारंपरिक खेती की शुरुआत की और उसे आज तक सफलता पूर्ण करते आ रहे हैं। वह भी पर्यावरण को बिना कोई नुकसान पहुंचाए। आधुनिक खेती तो केवल आज से 150 साल पहले शुरू हुई थी और यह पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचाती आ रही है।

साथ ही साथ परिस्थिति इतनी बिगड़ गई है कि आज खेत खेती करने लायक नहीं रहे। जो खेत सही सलामत बचे हुऐ हैं, उनमें बिना बारिश की खेती मुमकिन नहीं है। 

आज के वक्त में सब कुछ लोगों की समझ और सही ज्ञान पर निर्भर करता है कि लोग क्या चयन करेंगे, लंबे समय की दौड़ में कौन सी तकनीक जीतेगी, आधुनिक या पारंपरिक? यह लोगों को चयन करना होगा।

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