आज यानी 3 मई को हर वर्ष ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे’ के तौर पर मनाया जाता है। यूनेस्को की आम सम्मेलन की सिफारिश के बाद दिसंबर 1993 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस घोषित किया गया था। तब से 3 मई, विंडहोक की घोषणा की सालगिरह को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है।
कैसे होती है मीडिया को दबाने की कोशिश
मीडिया (प्रेस) को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में माना जाता है लेकिन इस स्तंभ पर भी अत्याचार कुछ कम नहीं होते। मीडिया की शक्ति और प्रभावित करने की क्षमता को देखते हुए कई असामाजिक तत्व व अपराधी प्रवृत्ति के लोग इसे अपनी गिरफ्त में ले लेना चाहते हैं। इसके लिए वे तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं।
ऐसे लोग कभी अपनी ताकत व पद का इस्तेमाल कर या कभी अपने जानकारों का इस्तेमाल कर इसे दबाने की कोशिश करते हैं। कई बार खबरें दबाने के लिए रिपोर्टर्स को धमकियां देकर भी डराया जाता है। इस तरह से अभिव्यक्ति की आज़ादी को खत्म कर दिया जाता है।
इसलिए 3 मई का दिवस प्रेस स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है, ताकि लोगों को जागरुक किया जा सके। साथ ही सरकारों का ध्यान भी इस तरफ खींचा जा सके। इस बार इसकी थीम है ‘Journalism Without Fear or Favour.’
ग्रामीण क्षेत्रों में पत्रकारिता बेहद चुनौतीपूर्ण
क्या आज के समय में बिना डर के पत्रकारिता संभव है? क्या आप बिना पक्षपात किए कई महीनों या सालों तक पत्रकारिता कर सकते हैं? जवाब मुश्किल लग रहा हैं ना? वाकई में जवाब मुश्किल है और उन लोगों के लिए तो ज़्यादा मुश्किल है, जो ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहे हैं।
टीवी में हम जिन पत्रकारों को देखते हैं, उन्हें ही पत्रकार मानने लग जाते हैं लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा है कि उस पत्रकार तक खबरें कौन पहुंचा रहा है? स्थानीय पत्रकार! स्थानीय पत्रकार होना एक आम बात है क्या? शायद नहीं?
जब आप पूरी ईमानदारी के साथ पत्रकारिता कर रहे होते हैं तो कई लोग आपके खिलाफ हो जाते हैं और आपके काम में मुश्किलें आने लगती हैं।
बीएचयू में सुरक्षाकर्मियों के ज़रिये मुझे दी गई धमकी
पिछले साल नवंबर महीने की बात है, बीएचयू के प्रोफेसर फिरोज खान की नियुक्ति का मामला तूल पकड़ा हुआ था। फिरोज खान की नियुक्ति संस्कृत धर्म विज्ञान संकाय में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर हुई थी लेकिन यह बात उस संकाय के स्टूडेंट्स को नागवार लगी और वे फिरोज खान के खिलाफ बीएचयू परिसर में मालवीव भवन के अपोज़िट साइड में धरने पर बैठ गए।
मुझे धरने पर बैठे स्टूडेंट्स से बात करनी थी। दोपहर के करीब तीन बजे मैं वहां पहुंची, धरने पर बैठे स्टूडेंट्स मुस्लिमों और फिरोज खान के खिलाफ नारेबाज़ी कर रहे थे।
कुछ देर तक वहां रहने के बाद मैं एक स्टूडेंट से बोली, “मेरा नाम रिज़वाना तबस्सुम है, मैं फ्रीलान्स जर्नलिस्ट हूं, द क्विंट के लिए स्टोरी कर रही हूं, आप लोगों से बात करना चाहती हूं।”
उस स्टूडेंट ने कोई भी जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर के बाद वहां तैनात कुछ महिला सुरक्षाकर्मी मेरे पास आईं और स्टूडेंट्स की तरफ इशारा करते हुए बोलीं,
इन बच्चों ने कहा है कि इस लड़की से कहिए यहां से चली जाए, नहीं तो इसके साथ कुछ हो जाएगा। आप प्लीज़ यहां से चली जाइए, हम नहीं चाहते कोई दिक्कत हो।
सुरक्षाकर्मी से बात करते हुए मैं स्टूडेंट्स की तरफ देख रही थी, वे मुस्लिमों को कटुआ कहकर संबोधित कर रहे थे। मैं हिजाब लगाई हुई थी, मुझ पर मियां जैसे शब्दों के ज़रिये फब्तियां कस रहे थे, मैं वहां अकेली थी और बिना रिपोर्ट किए वापस आ गई।
बगैर रिपोर्ट के खाली हाथ लौटना पड़ा
उस दिन वह रिपोर्ट नहीं कर पाने से मुझे केवल यह दुख नहीं हुआ कि लोग मुस्लिमों को बुरा कह रहे थे और मैं काम नहीं कर पाई या लोगों के मन में कितनी घृणा है, बल्कि यह सोचकर दुख हुआ कि स्टूडेंट्स के मन में कितना जहर भरा हुआ है या भरा गया है।
बीएचयू मेरे घर से करीब 14 किलोमीटर दूर है। वहां जाने में करीब एक घंटे का वक्त लगता है, किराया लगता है उसके बाद अगर आपका काम ना हो तो आप मायूस होते हैं।
एक फ्रीलान्स जर्नलिस्ट को स्टोरी पर ही पैसे मिलते हैं और उसे इतने पैसे नहीं मिलते कि वो एक स्टोरी के लिए जाए और वापस आए फिर दूसरी स्टोरी के लिए जाए और बिना स्टोरी के वापस आए।
एक स्थानीय पत्रकार को हर मोर्चे पर संघर्ष करना पड़ता है। काम के मोर्चे पर, अलग-अलग लोगों से और आर्थिक रूप से सबसे अधिक। इन सबसे अलग जब उसके सामने कोई समस्या आती है तो उसे इसका सामना अकेले ही करना पड़ता है, कोई संस्था पत्रकार का साथ नहीं देती है।