हमारे देश के जिन महान मनुष्यों की दुनिया भर में ख्याति है, उनमें डॉ. अंबेडकर एक हैं। देश में उन्हें दलित पहचान के साथ अधिक जोड़ा जाता है लेकिन शेष विश्व में उन्हें लोकतंत्र के गंभीर चिंतकों की श्रेणी में देखा-परखा जाता है।
उन्हें पूरी दुनिया में एक ऐसे योद्धा के तौर पर देखा जाता है जिसकी लड़ाई व्यवस्था में परिवर्तन के लिए नहीं, बल्कि व्यवस्था के ही परिवर्तन की रही है।
पूरी दुनिया में असमानता, अस्पृश्यता और गैर-बराबरी पर आधारित शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने और आंदोलन करने वालों में डॉ. अंबेडकर का नाम अग्रणी स्थान पर है।
समानता, स्वतंत्रता और न्याय के पक्षधर थे अंबेडकर
गरीबी, बहिष्करण, लांछन से भरा बचपन मन के एक कोने में दबाए हुए अंबेडकर ने देखा था कि उनके जैसे करोड़ों लोग भारत में किस प्रकार का जीवन जी रहे हैं। उनके जीवन और आत्मा में शिक्षा ही प्रकाश ला सकती है। यही उन्हें उस दास्तान से मुक्त करेगी जिसे समाज, धर्म और दर्शन ने उनके नस-नस में आरोपित कर दिया है।
इस दास्तान को दलितों को अपनी नियति मान लेने को कहा गया था। अंबेडकर इसे तोड़ देना चाहते थे। वो देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन गैर-बराबरी को जीवन मूल्य ना माने। वो आधुनिक विश्व की वैज्ञानिक चेतना के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों के भारत का निर्माण चाहते थे। समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय और विश्वास जैसे अति आधुनिक सामाजिक मूल्यों के अंबेडकर पक्षधर थे।
वह ना सिर्फ एक प्रशिक्षित अर्थशास्त्री थे, बल्कि राजनीति विज्ञान के सैद्धांतिक और व्यवहारिक धुरंधर भी थे। वर्ण व्यवस्था द्वारा संचालित समाज की हिंसा को उस अंबेडकर ने बहुत शिद्दत से सहा था जिसके पास देश और दुनिया का, अर्थव्यवस्था और राजनीति का गहन ज्ञान था।
जाति व्यवस्था और स्त्री असमानता के बीच अंबेडकर
उनके पास अपने समय के बेहतरीन विश्वविद्यालयों की सबसे ऊंची उपाधियां थीं। अंबेडकर, आधुनिकता, लोकतंत्र और न्याय की संतान थे। वह पेशे से वकील भी थे। मनुष्य की गरिमा को बराबरी दिए बिना वह आधुनिकता, लोकतंत्र और न्याय की कल्पना भी नहीं कर सकते थे।
भारत को सच्चे अर्थों में समतामूलक आधुनिक लोकतांत्रिक देश बनाने के लिए वह जाति और लिंग आधारित विषमता के समाजार्थिक और सांस्कृतिक रूपों को समाप्त कर देना चाहते थे। जिनमें जाति व्यवस्था और स्त्री असमानता दो प्रमुख सवाल थे।
इसके लिए संगठित होकर प्रयास करने की उन्होंने प्रेरणा दी। आमूलचूल सामाजिक बदलाव के भगत सिंह या प्रेमचंद जैसे समर्थकों की तरह अंबेडकर भी राष्ट्र निर्माण के लिए जाति और लिंग आधारित विषमता को समाप्त करने के पक्ष में थे।
उनका कहना था कि राजनीतिक तौर पर आज़ादी हमारी पहली प्राथमिकता नहीं है, बल्कि सामाजिक गैर-बराबरी और जाति व्यवस्था का समूल उन्मूलन पहला लक्ष्य है। स्वतंत्र भारत में कोई भी नागरिक जाति या लिंग के आधार पर भेदभाव का शिकार ना हो, ऐसी चेतना पैदा करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
संविधान लागू होने के 70 साल बाद कितने प्रासंगिक हैं अंबेडकर?
यदि हम आज के माहौल को देखें जिसमें बाबा साहेब की थाती संविधान में समानता की बात कही गई है, किसी से किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा ऐसा कहा गया है लेकिन क्या आज यह संविधान लागू होने के 70 साल बाद भी संभव हो पाया है?
इसका जवाब है नहीं! आज भी देश में छुआछूत का बोलबाला है। आज भी हमारे देश में ऊना और भीमा कोरेगाँव जैसी घटनाएं आम हैं। आज भी देश के कई हिस्सों में दलितों को सिर्फ इसलिए घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता है क्योंकि वे दलित हैं। देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में आज भी कई छात्रों को प्रोफेसर सिर्फ इसलिए रिसर्च के लिए लेते नहीं हैं क्योंकि वे दलित हैं।
आज भी हमारे देश में पायल तडवी और रोहित वेमुला जैसे होनहार छात्र जातीय असमानता का दंश झेलते-झेलते आत्महत्या तक कर लेते हैं। रोहित वेमुला की आत्महत्या को यदि हम सिर्फ जातीय आधार पर देखेंगे तो हम शायद संपूर्ण आंकलन पर नहीं पहुंच पाएंगे। हमें रोहित की मौत को सस्ती शिक्षा पर हो रहे हमले के रूप में भी देखना होगा।
हमें यह समझना होगा कि सस्ती शिक्षा की आवश्यकता इसलिए है ताकि समाज के निचले तबके तक, गरीब, पिछड़े, शोषित, वंचित लोगों तक सुलभता से शिक्षा को पहुंचाया जा सके जिससे वे अपना भविष्य बेहतर कर सकें।
लेकिन सवर्ण मानसिकता दलित, पिछड़ों के उत्थान में रूकावट डालने के लिए रोहित और पायल जैसे छात्रों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करके उन्हें आत्महत्या करने पर मजबूर कर रहे हैं ताकि उस समाज के उत्थान की चेन टूट जाए और वह समाज जस का तस बना रहे।
जाति प्रथा और स्त्री की मुक्ति
भारत में जाति प्रथा की उत्पत्ति और विकास पर डॉ. अंबेडकर ने काफी गहनता से विस्तारपूर्वक चर्चा की है। जाति प्रथा के विनाश के लिए अंबेडकर स्त्री की मुक्ति को अनिवार्य मानते थे। उन्होंने सजातीय विवाह का निषेध या ऐसे विवाह का ना पाया जाना ही जातिप्रथा का मूल माना है और सती प्रथा, बालिका विवाह तथा आजीवन विधवा का नारकीय जीवन बिताने जैसी सामाजिक कुरीतियों के उदय की भी पड़ताल की है।
सजातीय विवाह, जो कि जाति प्रथा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, उसका कड़ाई से पालन हो इसके लिए कुछ विशेष व्यवस्थाएं की गई थीं। परिणामस्वरूप सती प्रथा, बालिका विवाह तथा आजीवन वैधव्य के नियमों का कड़ाई से पालन करने, जैसी कुरीतियों का जन्म हुआ।
पिछले दिनों स्त्री स्वधीनता के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने दंड संहिता की धारा ‘497’ को असंवैधानिक घोषित करते हुए जो फैसला सुनाया उससे कानूनी तौर पर भी यह साफ हो जाता है कि स्त्री-पुरुष की संपत्ति नहीं है।
पुरुष की तरह उसकी भी अपनी सत्ता और स्वतंत्र अस्तित्व है। इससे पहले भी समय समय पर कानूनी तौर पर स्त्री को कई अधिकार प्राप्त हुए हैं लेकिन स्त्री को लेकर पुरुष के रवैये में ज़्यादा तब्दीली नही हुई है। सार्वजनिक जगहों में स्त्रियों की आवाजाही बढ़ी है।
शिक्षा तथा नौकरियों में उसने नए मुकाम हासिल किए हैं लेकिन इसके साथ ही शारीरिक और मानसिक शोषण की घटनाएं भी तेज़ी से बढ़ी हैं। बलात्कार की क्रूरतम घटनाएं नृशंसता की सारी सीमाओं को पार कर गई हैं।
कानून को दरकिनार करते हुए स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता को रौंदा जा रहा है। जाति, धर्म, स्थान से परे स्त्री के वजूद को पितृसत्तात्मक समाज एक गुलाम से ज़्यादा कुछ नहीं समझता है। वह स्त्री को आज़ादी भी अपनी शर्तों और अपनी मर्ज़ी से देना चाहता है। लैंगिक बराबरी की बात सुनते ही उनका पागलपन बढ़ जाता है, ये स्थितियां आज भी बनी हुई हैं।
अंबेडकर के कुछ बेहतरीन लेख
स्त्री अधिकारों के लिए जिन विद्वानों ने संघर्ष किया है, उनमें डॉ. अंबेडकर का नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है। डॉ. अम्बेडकर के स्त्री संबंधित विचार कई जगहों पर हैं। पहला ‘भारत में जाति प्रथा’ शीर्षक वाले लेख में जाति प्रथा की सरंचना, उत्पत्ति और विकास पर विचार की बात है।
दूसरा ‘महाबोधि’ नामक पत्रिका के मार्च, 1950 ई. के अंक में प्रकाशित लामा गोविन्द के लेख ‘हिन्दू तथा बौद्ध-धर्मां में नारियों की स्थिति’ की प्रशंसा करते हुए लिखे गए लेख ‘हिन्दू नारी का उत्थान और पतन’।
तीसरा डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर सोर्स मटेरियल पब्लिकेशन कमेटी को प्राप्त हुई लेख की वह प्रति जिस पर ‘द वूमेन एंड द काउंटर-रिवॉल्यूशन’ शीर्षक दिया हुआ है। जिसे ‘नारी और प्रतिक्रांति’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है और चौथा इसी कमेटी को ‘ द रिडिल आफ द वूमेन’ शीर्षक से प्राप्त हुई प्रति जिसे ‘रिडिल्स इन हिन्दूइज़्म’ अर्थात् ‘हिन्दू धर्म की पहेलियां’ नाम से प्रकाशित किया गया। इसके अतिरिक्त हिन्दू कोड बिल व कई अन्य स्थानों पर भी स्त्री संबंधित विचार देखे जा सकते हैं।
‘हिन्दू नारी का उत्थान और पतन’ में डॉ. अंबेडकर ने हिन्दू नारियों के उत्थान और पतन का इतिहास दिखाने का प्रयत्न किया है जिसमें स्त्रियों की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और बौद्धिक पतन का कारण ब्राह्मणी व्यवस्था है, जो मनु महाराज द्वारा लिखी ‘मनुस्मृति’ के नियमों के आधार पर चलती है। इसके साथ ही यह भी दिखाने का प्रयत्न किया है कि भगवान बुद्ध ने स्त्रियों के साथ किसी प्रकार का भेदभाव किए बिना प्रवज्या देकर ज्ञानार्जन और आत्मज्ञान प्राप्त करने की क्षमता वाला अंगीकार किया है।
डॉ. अंबेडकर हिन्दू धर्म, वेद-शास्त्र, मनुस्मृति का बहुत गहराई से अध्ययन कर इसकी पोल खोल देते हैं। इन धर्मग्रन्थों के माध्यम से स्त्री और शूद्रों के लिए जो नियम बनाए गए या आज्ञाएं दी गई हैं वे कितनी अमानवीय तथा निन्दनीय हैं, वे इसकी पड़ताल करते हैं। स्त्रियों की वर्तमान दशा के ज़िम्मेदार कौन हैं? उसे एक गुलाम से भी बदतर ज़िन्दगी देने के पीछे कौन सी व्यवस्था उत्तरदायी है? इसका खुलासा ‘नारी और प्रतिक्रांति’ लेख बखूबी करता है।
इस लेख में डॉ. अंबेडकर मनु की उन घोषणाओं का उल्लेख करते हैं जो स्त्री के प्रति उसकी अनुदारता या घृणा को साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। उन घोषणाओं में से कुछ का जिक्र यहां भी है।
मनु कहते हैं, “कोई किसी की माता, बहन या पुत्री के साथ एकांत में ना बैठे क्योंकि इंद्रियां शक्तिशाली होती हैं और विद्वान को भी अपने वश में कर लेती हैं। स्त्रियां रूप की अपेक्षा नहीं करती, ना उनका ध्यान आयु पर रहता है, यह सोचकर कि वह पुरुष है, सुंदर या कुरुप के साथ संभोग कर बैठती हैं। स्त्रियां उनके परिवारों के पुरुषों द्वारा दिन रात अधीन रखनी चाहिए। स्त्री कभी स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है। लड़की को, नवयुवती को या वृद्धा को भी अपने घर में भी कोई काम स्वतंत्रतापूर्वक नहीं करना चाहिए। स्त्री को अपने पति को छोड़ देने का अधिकार नहीं मिल सकता। बेचने और त्याग देने से कोई स्त्री अपने पति से मुक्त नहीं होती।”
अर्थात् पति द्वारा त्यागी गई या बेची गई स्त्री भी स्वतंत्र ना होकर अपने पूर्व पति के ही अधीन है।
स्त्रियों की दशा पर बाबा साहेब ने क्या लिखा था?
पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों की क्या दशा थी इस पर डॉ. अंबेडकर ने लिखा था, “‘एक हिंदू या तो अकेला खाना खाता है या फिर अपनी बिरादरी के लोगों के साथ खाता है। स्त्रियां पुरूषों के साथ खाना नहीं खा सकती हैं। वे तब तक इंतज़ार करती हैं, जब तक कि उनके पति खाना समाप्त नहीं कर लेते हैं।”
ये कोई गुज़रे दिनों की बातें नहीं हैं। आज भी भारत की बहुसंख्यक आबादी में स्त्रियों की यही दशा है। समाज में पितृसत्ता का स्वरूप ऐसा जटिल और मज़बूत है कि डॉ. अंबेडकर की बातें उतनी ही प्रासंगिक आज भी हैं।
महिलाओं को वस्तु समझने की दूषित मानसिकता आज भी समाज में उतनी ही जीवंत है जितनी यह पहले थी। डॉ. अंबेडकर इस पूरी सामाजिक व्यवस्था को इसका ज़िम्मेदार मानते हैं जिसके मूल में ही असमानता है। डॉ. अंबेडकर कहते थे कि विवाह संस्था ही स्त्रियों के शोषण की संस्था है, जो सामाजिक सुरक्षा और समानता के नाम पर स्त्रियों के अधिकारों का हनन करती है।
यह पति को स्वामी के उच्च स्थान पर बिठाकर स्त्रियों को दासी या गुलाम बना देती है। पुरुष कितना भी अच्छा आदमी क्यों ना हो विवाह संस्था उसे पति अर्थात् मालिक बना ही देती है। एक गुलाम के लिए उसका मालिक बेहतर या बदतर हो सकता है लेकिन मालिक अच्छा नहीं हो सकता है।
आज इतने वर्षों बाद भी स्त्रियां खाना कब, कैसे और किसके साथ खाएं यह मुद्दा बना हुआ है। पति से पहले खाना खा लेने वाली स्त्रियां आज भी अलग से चिन्हित की जाती हैं। हमारे समाज की विडम्बना है कि इन सामाजिक कुरीतियों की प्रशंसा करने और उनका पालन करने वाले लोगों की कमी नहीं है।
रीति रिवाज़ों के बारे में डॉ. अंबेडकर स्पष्ट लिखते हैं कि जहां तक मैं समझता हूं आज तक इन प्रथाओं के उद्भव की कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं आई है लेकिन इन प्रथाओं को सम्मान देने, प्रशंसा करने और इनका पालन करने वाले मिल जाएंगे।
वो कहते हैं, “मेरा मानना है कि इनको सम्मान देने का कारण ही यह है कि इन्हें अपनाया गया। जिस किसी को भी 18वीं शताब्दी के व्यक्तिवाद का थोड़ा सा भी ज्ञान होगा वह मेरे कथन का सार समझ जाएगा। सदा से यह प्रथा रही है कि आंदोलनों का सर्वोपरि महत्व होना है। बाद में उन्हें न्याय-संगत बनाने और उन्हें नैतिक बल देने के लिए उन्हें दार्शनिक सिद्धान्तों का संबल दे दिया जाता है। इसी कारण इन रिवाज़ों की प्रशंसा की गई, क्योंकि इनके चलन को प्रोत्साहन देने के लिए प्रशंसा की ज़रूरत थी। हम जानते हैं कि रिवाज़ कितने क्रूर, कष्टकारी और घातक हैं।”
सामंती व्यवस्था पर अंबेडकर का करारा प्रहार
डॉ. अम्बेडकर अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए हमेशा भूमि के बराबर बंटवारे की बात भी करते थे। उन्हें पता था कि खेती में ही सामंती उत्पीड़न सबसे अधिक होता है इसलिए उसकी रीढ़ तोड़ने के लिए ज़मीन के राष्ट्रीकरण की मांग उठाते हैं। जमींदारी का नाश उन्हें इसी तरह से होता सम्भव लग रहा था।
अपनी इस प्रस्तावित योजना को उन्होंने ‘राजकीय समाजवाद’ कहा था। खूंखार निजी पूंजी पर लगाम लगाने के लिए समाजवाद की क्षमता को वो जानते थे। राजकीय नियंत्रण से अर्थतंत्र को आज़ाद करने को वो जमींदारों को लगान बढ़ाने और पूंजीपतियों को मज़दूरी घटाने की आज़ादी मानते थे।
संविधान की प्रस्तावना में कही गई बातें और आज का भारत
आज जब हम बाबा साहेब की 129वीं जयंती मना रहे हैं तो हमें अपने देश के वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक परिदृश्य को लेकर चिंता भी सता रही है। बाबा साहेब की धरोहर के रूप में जो संविधान हमारे पास है उसकी प्रस्तावना में देश को संपूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के संकल्प की बात कही गई है।
लेकिन यदि हम अपने मौजूदा समय में नज़र डालें तो संविधान की प्रस्तावना में कही गई बातें गलत सी लग रही हैं और संविधान का होना झूठा सा लग रहा है।
समाजवाद की बात तो कही गई है मगर वर्तमान समय में देश नवउदारवाद की नीति से संचालित हो रहा है जिसमें समाजवाद की जगह पूंजीवाद का बोलबाला है, जहां बेरोज़गारी, भुखमरी, अमीरी-गरीबी के बीच खाई दिन-प्रतिदिन और चौड़ी होती जा रही है।
हमारे संविधान में स्वतंत्रता की बात कही गई है जिसके अंतर्गत ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी आती है लेकिन वर्तमान दौर में यह खतरे में दिखाई दे रही है। इसी देश में पढ़ने-लिखने, आवाज़ उठाने के लिए कलबुर्गी, दाभोलकर, पनसारे, गौरी लंकेश जैसे लेखकों, पत्रकारों की हत्या की जा चुकी है। इसी देश में खाने-पहनने के नाम पर लोगों की हत्या कर दी जा रही है। अखलाक, पहलू खान आदि इसके उदाहरण हैं।
अल्पसंख्यकों और दलितों पर बढ़ते अत्याचार
असल में सवाल सत्ता में बैठे लोगों का है, जो विचारधारा भारत में सत्ता में है उसका खुद संविधान और लोकतंत्र पर विश्वास नहीं है। उसका सामाजिक सौहार्द और सामाजिक समानता जैसी चीज़ों से कोई वास्ता नहीं है जिसके मंत्री विधायक जहां-तहां अल्पसंख्यकों और दलितों पर अत्याचार के लिए चिन्हित होते रहते हैं।
देश के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को और खुद बाबा साहेब को दिन-रात गाली देने का प्रोपेगंडा चलाते हों और तो और महात्मा गाँधी के पुतले को गोली मारकर हत्या का जश्न मनाते हों, उनसे संवैधानिक मूल्यों की झंडाबरदारी बेईमानी है। वे समाज में फैली असमानता को कायम रखना चाहते हैं।
बाबा साहेब ने कानून मंत्री के तौर पर अपने पहले ही साक्षात्कार में कहा था,
मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों ना हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों ना हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा।
आज बाबा साहेब की वह बात सही सिद्ध होती दिख रही है। आज आरएसएस जैसी समाज को तोड़ने वाली विचारधारा जब सत्ता पर काबिज़ हो ऐसे में संविधान का श्रीहीन सा हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए।
आज देश में साम्प्रदायिकता अपने चरम पर है। सरकार इस साम्प्रदायिक आग को आगे बढ़ा रही है। धर्म के नाम पर लोगों की सामूहिक हत्या करने वाले लोगों के पीछे जिस तरह सरकार खड़ी है, एक खास धर्म के लोगों को लगातार निशाना बनाने में जिस तरह से सरकार ने अपनी सारी ताकत झोंक दी है, ऐसे में यह बिल्कुल साफ है कि यह सरकार किसी भी तरह संविधान को, बाबा साहेब के आदर्शों को मानने और उन पर चलने के लिए तैयार नहीं है।
दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले नेता भी तो मौन हैं!
आज सरकार को हिन्दू-मुस्लिम से ऊपर उठकर समाज की भलाई पर ध्यान देना चाहिए। बाबा साहेब कहते हैं, “कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं, बाद में हिंदू या मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं है। मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें। भारतीय के अलावा कुछ भी ना हों।”
ऐसा नहीं है कि सारा दोष सत्तारूढ़ विचारधारा का है। बाबा साहेब की विचारधारा के झंडाबरदार होने का दावा करने वाले लोगों ने भी सत्ता पाने के लिए इसी साम्प्रदायिक घोर जातिवादी विचारधारा से समझौते किए हैं। दलितों की राजनीति करने वाली मायावती ने भी उस जातिवादी विचारधारा से गठबंधन करके सत्ता पाई और आज दलितों पर हो रहे अत्याचारों पर मायावती ने मौन साध लिया है।
उन्होंने खुद सत्ता में रहते दलितों की शिक्षा, रोज़गार और समाज में जातीय समानता लाने का कोई दूरगामी बुनियादी काम नहीं किया है। बाबा साहेब ने राज्यसभा में एक बार कहा था कि छोटे समुदायों और छोटे लोगों को यह डर रहता है कि बहुसंख्यक उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं और ब्रितानी संसद इस डर को दबाकर काम करती है।
उन्होंने कहा था, “श्रीमान, मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि मैंने संविधान बनाया है मगर मैं यह कहने के लिए पूरी तरह तैयार हूं कि इसे जलाने वाला मैं पहला व्यक्ति होउंगा। मुझे इसकी ज़रूरत नहीं! यह किसी के लिए अच्छा नहीं है मगर फिर भी यदि हम लोग इसे लेकर आगे बढ़ना चाहें तो हमें याद रखना होगा कि एक तरफ बहुसंख्यक हैं और एक तरफ अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक यह नहीं कह सकते कि ‘नहीं, नहीं, हम अल्पसंख्यकों को महत्व नहीं दे सकते क्योंकि इससे लोकतंत्र को नुकसान होगा।”
मुझे कहना चाहिए कि अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुंचाना सबसे नुकसानदेह होगा। आज अल्पसंख्यकों पर, दलितों पर, महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर मायावती का मौन साधना बाबा साहेब सहित उनको मानने वाले सभी लोगों को बहुत ही अखरता है।
लोकतंत्र को विस्तारित और साकार करने की बात तो दूर, उसकी कब्र खोदने की जोरदार मुहिम के इस दौर में इस क्रांतिकारी अंबेडकर को अपने देश को पूरी तरह से आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाने के लिए प्रकाश स्तम्भ के तौर पर ग्रहण करना लाज़मी काम है।
नोट: इस आर्टिकल को आकाश पांडे और देवेश मिश्रा द्वारा लिखा गया है।