सभी मनुष्य एक ही मिट्टी के बने हुए हैं और उन्हें यह अधिकार भी है कि वे अपने साथ अच्छे व्यवहार की मांग करें- डॉ. अंबेडकर
127 साल पहले इस धरती पर एक ऐसे व्यक्ति ने जन्म लिया था जिनकी बदौलत आज मेरी गिनती इंसानों में होती है। मैं आज पढ़-लिख पा रही हूं, शासन-प्रशासन में अप्रत्यक्ष रूप से हिस्सेदार हूं।
स्वतंत्र रूप से अपनी अभिव्यक्ति ज़ाहिर कर पा रही हूं। अपने अधिकारों को पहचान पाई हूं। मैं अक्सर सोचती हूं कि अगर उस वक्त डॉ. अंबेडकर ना होते तो क्या आज मेरा वजूद होता? जवाब की कल्पना आप कर सकते हैं।
अंबेडकर ने बोया वंचितों में अधिकार के लिए संघर्ष का बीज
डॉ. अंबेडकर 20वीं सदी के ऐसे महानायक थे जिन्होंने करोड़ों लोगों को ना सिर्फ इंसान का दर्जा दिलाया, बल्कि संविधान के रूप में उनको बुनियादी मानवाधिकारों की गारंटी भी दी। 20वीं शताब्दी में पूरी दुनिया में उपनिवेशी शासन से लोगों को मुक्ति मिली। इस सदी में लोगों ने खुद को एक आज़ाद इंसान साबित करने और अपने अधिकारों के लिए ज़बरदस्त संघर्ष किया।
अंग्रेज़ों ने भारतीयों को सिर्फ 200 साल तक गुलाम बनाकर रखा लेकिन इस भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ लोग ऐसे थे जिन्हें हज़ारों सालों तक गुलामी की ऐसी जंज़ीरों में जकड़ कर रखा गया जिसे कोई तोड़ नहीं सका था।
ब्राम्हणवाद के खिलाफ खोला मोर्चा
पढ़ने-लिखने की मनाही, सार्वजनिक कुओं और तालाबों से पानी पीने की मनाही, संपत्ति नहीं रख सकते, बिना मज़दूरी के जीवन भर काम करना, पशुओं से भी बदतर जीवन जीने के लिए मजबूर होना, ब्राह्मणवादियों का मल-मूत्र साफ करना और मरे हुए पशुओं की चमड़ी उधड़वाने जैसे तमाम काम करने वाले शूद्रों को आज़ाद ख्याल का इंसान बनाना क्या आसान बात है? यह काम किसी उपनिवेशी महाशक्ति को हराने से कम नहीं है।
देश की आज़ादी में लाखों-करोड़ों लोग साथ थे लेकिन लाखों-करोड़ों दलितों को वर्ण-व्यवस्था की दास्तान से आज़ादी दिलाने की लड़ाई डॉ. अंबेडकर ने ही लड़ी।
चाहे महाड़ सत्याग्रह के ज़रिए दलितों को तालाब से पानी पीने का अधिकार दिलाने की बात हो या फिर इंग्लैंड में हुए गोलमेज सम्मेलन में भारतीय दलितों के हकों की नुमाइंदगी करने का मामला हो, डॉ. अंबेडकर ने बिना रुके अपने संघर्ष को जारी रखा। तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद खुद पढ़-लिखकर अपने आप को इस काबिल बनाया कि वो बड़े से बड़े विद्वान से तर्क कर सकें।
विद्यार्थियों के लिए आदर्श हैं अंबेडकर
ज़रा सोचिए अपने ही देश में कक्षा के बाहर बैठकर पढ़ने को मजबूर एक छात्र उस वक्त कैसा महसूस कर रहा होगा, जब वो कोलंबिया यूनिवर्सिटी और लंडन स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स की इमारत की सीढ़ियां चढ़ रहा होगा।
एक छात्र के रूप में तमाम कठिनाइयों से लड़ते हुए सफलता के शिखर पर पहुंचने तक डॉ अंबेडकर का जीवन आज के तमाम छात्रों के लिए प्रेरणादायक है।
घर-बार छोड़कर अच्छी शिक्षा और रोज़गार की तलाश में बड़े शहरों की ओर रूख करने वाले तमाम छात्र-छात्राओं को को उनके छात्र जीवन के संघर्ष से प्रेरणा लेनी चाहिए।
वर्ण-व्यवस्था पर की गहरी चोट
डॉ. अंबेडकर ने हिंदू धर्म द्वारा पोषित वर्ण-व्यवस्था की बखिया उधेड़कर रख दी। अपनी पुस्तक ‘जाति का खात्मा’ में डॉ. अंबेडकर लिखते हैं, “मैं हिंदूओं की आलोचना करता हूं, मैं उनकी सत्ता को चुनौती देता हूं इसलिए वो मुझसे नफरत करते हैं। मैं उनके लिए बाग में सांप की तरह हूं।”
शूद्रों को जिन धर्मग्रंथों को पढ़ने की इजाज़त नहीं थी उन्हीं ग्रंथों से स्थापित वर्ण-व्यवस्था और भेदभाव के सिद्धांतों को डॉ. अंबेडकर ने अपने सवालों से धूल चटा दी।
अपनी पुस्तक ‘अछूत कौन थे और वो अछूत कैसे बने’ में डॉ. अंबेडकर लिखते हैं, “सभी मनुष्य एक ही मिट्टी के बने हुए हैं और उन्हें यह अधिकार भी है कि वे अपने साथ अच्छे व्यवहार की मांग करें।”
ऋग्वेद के पुरुषसुक्ता में जिन शूद्रों को ब्रह्मा के पैरों से उत्पन्न हुआ बताया गया है, वहां मानव के प्राकृतिक अधिकारों की बात करना अपने आप में एक क्रांति है।
महिलाओं को मातृत्व अवकाश का अधिकार दिलाने से लेकर भारतीय रिजर्व बैंक की संकल्पना देने तक में डॉ. अंबेडकर की आधुनिक सोच का परिचय मिलता है। उनके जीवन से बहुत कुछ सीखने लायक है।
अघोषित तरीके से क्यों कॉलेजों और विश्वविद्यालयों से खत्म किया जा रहा है आरक्षण?
आरक्षण को अघोषित तरीके से कॉलेजों और विश्वविद्यालयों से खत्म किया जा रहा है। तरह-तरह से फ़ेलोशिप खत्म करके, स्कॉलरशिप की राशि घटाकर, कई गुना फीस बढ़ाकर गरीब, शोषित और वंचित तबके के बच्चों को पढ़ने-लिखने से रोकने की कोशिश हो रही है।
स्कूलों-कॉलेजों से लेकर दफ्तरों तक में जाति का दंश झेलना पड़ता है। बाबा साहब के नाम में ‘रामजी’ पर फोकस करके उनकी विरासत को हथियाने की कोशिश हो रही है। कहीं उनकी मूर्ति को भगवा रंग में रंगा जा रहा है तो कहीं उनकी मूर्तियों को तोड़ा जा रहा है।
ऐसे समय में अंबेडकर का संदेश याद रखना और ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है
अपनी पुस्तक ‘गांधी और अछूतों का उद्धार’ में डॉ. अंबेडकर ने लिखा हैं, “दलित युवाओं को मेरा यह पैगाम है कि एक तो वे शिक्षा और बुद्धि में किसी से कम न रहें, दूसरे ऐशो-आराम में न पड़कर समाज का नेतृत्व करें।
तीसरे, समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी संभाले तथा समाज को जागृत और संगठित कर उसकी सच्ची सेवा करें।”