एक वैश्विक महामारी, देशव्यापी लॉकडाउन, चार घंटे की पूर्व सूचना, भ्रम की स्थिति, पैसों की कमी, भूख, हताशा और पूरे देश की तरह एक शहर में मज़दूरों के जीविका की भी तालाबंदी।
किसी शहर में अव्यवस्था, हताशा और मज़दूरों की स्थिति का ठीक आंकलन आप कैसे करोगे? वहां के मज़दूरों का शहर से अपने गाँव की ओर पैदल प्रवास से?
शहर में अधिकारियों, सामाजिक संगठनों और व्यक्तियों द्वारा किए जा रहे राहत कार्य से? या फिर मज़दूरों की भूख, मानसिक तनाव और परिवार की सहायता ना कर पाने की लाचारी के कारण आत्महत्या से?
जब होनी चाहिए थी व्यवस्थाएं तब चल रहा था मध्य प्रदेश में सत्ता का खेल
जिस समय देश के अन्य शहरों में COVID-19 के नित्य नए मामले आ रहे थे। कई राज्य सरकारें अपने राज्यों में लोगों का आवागमन, कारोबार, लोगों को इकट्ठा होने से रोकने के उपाय ढूंढ रही थी, ठीक उस समय मध्य प्रदेश में दो राष्ट्रीय राजनीतिक दल सत्ता का खेल खेल रहे थे।
सत्ता की उस सनक ने प्रदेश को आज ऐसी हालत में डाल दिया है कि दोनों सरकारें बदल गईं लेकिन कोई भी ज़िम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है।
24 मार्च की रात 8 बजे प्रधानमंत्री ने 21 दिनों के लिए पूर्ण रूप से देशभर में तालाबंदी की घोषणा कर दी। 22 मार्च को देशभर में सुबह 7 बजे से रात 9 बजे तक का जनता कर्फ्यू था लेकिन ताज्जुब देखिए कि 20 मार्च को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को विधानसभा में बहुमत साबित करना था और उसी दिन प्रदेश का मुख्यमंत्री इस्तीफा दे देता है।
राज्य के स्वास्थ्य मंत्री कई विधायकों के साथ बेंगलुरु में होटल में बसे पड़े थे और अचानक अपने पद से इस्तीफा दे देते हैं। 23 मार्च को मध्य प्रदेश को नया मुख्यमंत्री मिलता है।
मतलब देश में बढ़ रहे मामलों के बीच देश के दूसरे सबसे बड़े भौगोलिक क्षेत्र वाले राज्य में जब 22 मार्च को शाम 5 बजे थाली पीटने के बाद भीड़ कोरोना विषाणु का विसर्जन करने के लिए सड़कों पर घूम रही थी, तब राज्य में कोई मुख्यमंत्री ही नहीं था।
जिस समय 24 मार्च को देश में तालाबंदी हुई, उस दिन राज्य में कोई प्रभारी स्वास्थ्य, वित्त, सामाजिक न्याय मंत्री नहीं था। इस दौरान राज्य में कोरोना संक्रमण के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं।
मध्य प्रदेश में बढ़ रहे हैं कोरोना के मामले
यह लेख लिखे जाने तक प्रदेश में 2000 से भी अधिक मामले हैं और 100 से भी अधिक लोगों की मौत की पुष्टि की गई है। सिर्फ भोपाल में प्रदेश के 20% से अधिक मामले हैं और 12 लोगों की अब तक मौत हो चुकी है।
इंदौर तो देश के सबसे संक्रमित शहरों में से एक है, जहां संक्रमण के हज़ार से भी अधिक मामले हैं। संक्रमण से यदि कोई बच भी जाए तो भूख और बदहाली जानलेवा साबित हो रही है।
इंदौर, भोपाल, जबलपुर जैसे बड़े शहर, जहां लाखों की संख्या में मज़दूर रहते हैं। अचानक उनकी जीविका बंद हो गई, अचानक उनके पास आने वाला धन समाप्त हो गया।
लॉकडाउन में अव्यवस्था से हो रही है परेशानी
रातोंरात हुई इस घोषणा में किसी भी तरीके से किसी को भी रियायत नहीं दी गई जिससे जो जहां थे, वहीं थमे रह गए। ना मज़दूर किसी सुरक्षित घर को जा पाएं और ना ही वे अपने ठेकेदारों से अपना वेतन ले पाएं।
21 दिनों के लम्बे समय के लिए वे बिलकुल तैयार नहीं थे। जैसे-तैसे दिन कट भी गए लेकिन 19 दिनों के लिए तालाबंदी फिर से बढ़ा दी गई। इस दौरान भोपाल में संक्रमण के मामले बढ़ते गए, शहर में व्यवस्था सख्त होती गई।
सरकार के अभाव में तरसते लोगों को जो सहयोग सामाजिक संगठनों व व्यक्तिगत माध्यमों से मिल रहा था, वह भी बंद हो गया। इस तरह मज़दूरों की हालत भी बदतर होती चली गई।
इस समय संक्रमण को रोकना और सूबे के मज़दूरों व अन्य गरीबों की देखभाल सरकार की नैतिक और वैधानिक ज़िम्मेदारी है। इसे लेकर सरकार ने देरी से ही सही मगर सतर्कता दिखाई है। इन मामलों को लेकर अब वे भी गंभीर हुए हैं। 20 अप्रैल को राज्य ने अंततः राज्य के अंदर मज़दूरों को आवागमन की अनुमति दे दी है।
भोपाल में कार्यरत निर्माण मजदूरों के अनुभव
पिछले कई वर्षों से भोपाल शहर के माता मंदिर, पी एंड टी चौराहा जैसे इलाकों में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बहुमंज़िला इमारत बनने का काम जारी है।
इसको मध्यप्रदेश के अन्य इलाकों जैसे छिन्दवाड़ा, डिंडौरी, सिवनी, होशंगाबाद और छत्तीसगढ़ के मुंगेली, राजनंद गाँव, कांकेर आदि से ठेके पर लाए गए मज़दूरों द्वारा बनाया जा रहा है, जो मुख्यतः गोंड आदिवासी लोग हैं।
ये लगभग 300 की संख्या में हैं। लॉकडाउन के बाद से गरीबों और वंचितों के रहने के लिए आवास तैयार कर रहे इन मज़दूरों का रहना और खाना मुश्किल हो गया है।
निर्माणरत भवन में रह रही शहदवती बाई का कहना है, “हम लोग जगह-जगह लोगों को अपने नाम की लिस्ट पहुंचा रहे हैं, हमें कहीं से खाने-पीने की मदद नहीं मिल रही है। हम कुछ लोग एक साथ होकर ये लिस्ट लेकर थाने भी गए थे, हमें वहां से भगा दिया गया।”
वो आगे बताती हैं कि सरकार से तो हमें एक मुठ्ठी अनाज की मदद भी नहीं मिली है और ना हमारी हालत देखने यहां कोई आता है।
मज़दूरों का कहना है कि तीन तारीख तक यदि हमारे खाने की कोई व्यवस्था नहीं होती है, तो हम सब पैदल निकल जाएंगे अपने-अपने घरों के लिए।
बच्चे भी सो रहे हैं कई दिनों से भूखे
दिहाड़ी मजदूरों की हालत भी निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों की तरह ही है। मुख्यमंत्री ने घोषणा भी की कि किसी भी फैक्ट्री में जितने भी मज़दूर काम कर रहे हैं, उनको पैसा देना अनिवार्य है।
लेकिन जो फैक्टरियों में काम नहीं करते हैं, उन मज़दूरों का क्या? किसी भी तरह के दिहाड़ी मज़दूर के लिए उन्होंने कोई बात नहीं की और ना ही उन मज़दूरों के लिए जो कहीं फुटपाथ पर तो कहीं ग्राउंड में पड़े हुए हैं।
सरकार कहती तो है कि घरों में रहिए, जिनके पास घर नहीं उनका क्या? ऐसे बेघर लोगों के लिए क्या व्यवस्था है? सरकार के लिए ये वो सवाल हैं जिनका उत्तर दे पाना बहुत ही मुश्किल है।
दिहाड़ी मज़दूरी करने वाली सुनीता मडावी ने बताया कि महिला को 220 रुपये और पुरुषों को 250 रुपये मेहनताना मिलता रहा है। इनमें से कुछ मज़दूर, सुप्रीम कंपनी द्वारा हायर कर लाए गए, बाकी अधिकतर लोग सीधे ठेकेदारों द्वारा लाए गए हैं।
उनका कहना है कि लॉकडाउन शुरू होने के बाद से कंपनी द्वारा लाए गए मज़दूरों को तो शुरू में हर हफ्ते 500 रुपये दिए गए (जो एडवांस के तौर पर दिए गए) लेकिन ठेकेदारों के साथ आए लोगों को सिर्फ एक बार 5 किलो आटा, 1 किलो चावल, 500 ग्राम दाल, 500 ग्राम तेल, 50 ग्राम मिर्च और नमक दिया गया था।
इसके बाद शहर के कुछ समाजसेवियों ने समूह बनाकर अलग-अलग जगहों पर पका हुआ भोजन उपलब्ध करवाना शुरू किया। समाजसेवी भोजन उपलब्ध करवा देते हैं लेकिन रोज़ यह सम्भव नहीं हो सकता है।
फिर मामले बढ़ने के साथ शहर में कड़ी व्यवस्था कर दी गई है जिससे इन समाजसेवियों का भी घर से निकलना बंद हो गया है। यहां रह रहे मज़दूर इस समय भूख-प्यास की जिस मुश्किल से गुज़र रहे हैं, वे चाहते हैं कि उनसे इस बारे में सरकार के कुछ लोग आकर उनकी मुश्किलों को सुनें, उन्हें सहायता पहुंचाएं।
यहां इन मजदूरों के साथ 60 से अधिक बच्चे हैं। इनमें सबसे कम उम्र की बच्ची 4 दिन और सबसे अधिक उम्र वाला 5 वर्ष का बच्चा है। किसी भी बच्चे को दूध का पैकेट तक लाकर नहीं पिला पा रहे हैं। बच्चे कई बार दूध और दूसरी चीज़ों के लिए रोते हैं। एक महीने से जिन बच्चों को टीके लगते थे, पोषण आहार जो मिलता था, वह भी सब बंद है।
ऐसे में कई माँ यही कह रहीं हैं कि नींद से बड़ी भूख है। रात को बच्चे रोते हैं तो चुप करवाकर लांघन (भूखे) ही सुला देते हैं फिर भी कुछ बच्चे पूछते हैं कि क्या हुआ है? अब उन्हें क्या बताया जाए कि क्या हुआ है?
गर्भवती महिलाएं खा रही हैं रोटी और पानी
ऐसे में गर्भवती व प्रसूति महिलाओं की स्थिति भी बहुत दयनीय होती जा रही है। लॉकडाउन के दौरान सविता नाम की महिला ने अपनी पांचवी बच्ची को जन्म दिया है।
उनकी माँ ने बताया, “वो दर्द से तड़प रही थी मगर उसको कहां किस अस्पताल ले जाते?” इस दौड़ भाग में ही सविता के नवजात बच्चे ने जन्म ले लिया। उसकी हालत बहुत नाज़ुक रही।
अगले कई दिनों तक सविता सूखी रोटी और चावल खाकर ही पानी पी लेती है। बच्ची कई दिनों तक बहुत नाज़ुक स्थिति में रही फिर वो संघर्ष करके बच गई।
सूखी रोटी को ठंढे पानी से निगलकर ही वह बच्चे को दूध पिला रही है। सविता को कोई गोली, दवाई, इंजेक्शन कुछ नहीं मिला। वह 5 घंटे डिलेवरी के समय दर्द में कराहती रही।
किसी तरह तालाबंदी के बाद स्थिति सामान्य हो भी जाए लेकिन इस दौरान हुई घटनाओं से मुंह नहीं मोड़ जा सकता है।
क्या आत्महत्या से भी अधिक भयावह कोई हताशा हो सकती है?
पैसों का ना आना, भूख, सामने दिख रही बेरोज़गारी और उससे उपजी अवसाद का सबसे विकराल रूप आत्महत्या है!सबसे दयनीय स्थिति में भी आगे बढ़ना हमारा स्वभाव है लेकिन उसके विपरीत भोपाल में कई लोगों ने या तो आत्महत्या की कोशिश की या फिर आत्महत्या कर अपनी जान गंवा दी।
इस तालाबंदी के दौरान कोरोना संक्रमण के साथ-साथ भूख से मरने वाले व भूख के कारण आत्महत्या करने वाले व्यक्तियों की भी सूची साझा की जानी चाहिए। ताकि प्रभाव का आंकलन सही से हो सके।
भोपाल में बीते दो सप्ताह में दो सबसे दुखद आत्महत्याएं सुनने को मिलीं और ये चिंताजनक स्थिति की तरफ इशारा करती हैं।
इनकी वजह के बारे में इनके परिवार और समुदाय के लोगों से बात करने पर समझ आता है कि इन लोगों को व्यवस्था ने किस तरह विवश किया है। हालांकि आत्महत्या कोई उपाय नहीं है।
जिन दो लोगों ने अपनी जान ली उनमें से एक 15 वर्ष का लड़का है और एक 35 वर्ष का। वैसे भी भोपाल की कई बस्तियों में पिछले कुछ वर्षों से आत्महत्या के कई मामले सुनने को मिले हैं।
कहीं रोज़गार जाने से तो कहीं उनके पारम्परिक जीविका के साधन को गैरकानूनी करार दिए जाने से उनके परिवार पर संकट आया और लोगों ने अपनी जान दे दी।
15 वर्षीय नसीम (नाम बदला हुआ) ने 12 अप्रैल 2020 को सुबह करीब 10-11 बजे के बीच खुद को फांसी पर लटकाकर आत्महत्या कर ली। वह पिछले एक महीने से बोगदापुल के पास अहाता मनकशा में अपने रिश्तेदार के घर पर ठहरा था।
उनके रिश्तेदार ने बताया, “वह दिल्ली का रहने वाला था, यहां हमारे पास रुका हुआ था। उसने सुना कि लॉकडाउन बढ़ गया है। वह घबराने लगा था। अपनी अम्मी और अन्य परिवार के लोगों को बहुत याद करता था। ऐसे में हम उसको दिल्ली कैसे पहुंचा पाते।”
अभी उसकी लाश दिल्ली ले जाने के लिए उसके रिश्तेदारों को एम्बुलेंस देने से भी मना कर दिया है। उसकी मौत के बाद उसके मृत शरीर को समय पर पोस्टमॉर्टम होकर मिलने और उसे उसके माता-पिता के पास पहुंचाने का लंबा संघर्ष रहा।
ऐसे ही गैस राहत कॉलोनी में 16 अप्रैल 2020 को पेशे से पथ विक्रेता सुनील (नाम बदला हुआ) ने भूख और गरीबी से तंग आकर आत्महत्या कर ली।
35 वर्षीय सुनिल अहिरवार अपनी चार और दो वर्षीय बेटियों और पत्नी के साथ रहते थे। उनके पड़ोसियों का कहना है कि ठेला लगाने के बावजूद वो अपने लिए पैसे जुटा पाने में नाकामयाब रहे थे।
चार लोगों का परिवार और उसमें दो छोटी बच्चियों को दूध पीने की उम्र में दो-दो टाइम भूखे सोना पड़ता था। कुछ लोगों द्वारा मदद की भी गई लेकिन पहले से कर्ज़ में डूबे सुनील ने संस्था द्वारा भेजे गए खाने को खाकर उसी शाम फांसी लगा ली।
उनकी पत्नी का कहना है कि तालाबंदी के ठीक बाद उनका ठेला लगाना बंद हो गया। वो ठेला लेकर निकालते भी तो पुलिस उन्हें परेशान करती।
कुछ दबंग उन्हे मोहल्ले में आने से रोकते, ज़्यादा पैसा ना होने के कारण वो सब्ज़ी भी ज़्यादा नहीं खरीद पाते थे। उनके मरने के बाद से उनकी पत्नी अपनी बच्चियों को अकेला छोड़कर सुबह सब्ज़ी बेचने जाती हैं।
हो सकता है कि इन दोनों मामलों में आत्महत्या का कोई एक कारण ना रहा हो, कुछ और भी कारण रहे हों या असली कारण छुपाने के लिए कहानियां बना ली गई हों।
थाना निशातपुरा का तो ऐसा ही कहना है कि पति-पत्नी का विवाद था। यह पुलिस के जांच में पाया गया है। यह पत्नी के बयान हैं, उन्होंने फोन में दिखाते हुए कहा।
पत्नी ने लिखवाया जुआ का आदि था, उस पर कर्ज़ भी था लेकिन क्या यह सत्य नहीं है कि बिना किसी तैयारी के अचानक लॉकडाउन यह दर्शाता है कि व्यवस्था ने देश के बड़े तबके को नज़रअंदाज़ किया?
प्रधानमंत्री के घोषणा के दो घंटे बाद पहला नोटिफिकेशन यह बताने के लिए कि क्या-क्या दुकानें खुली रहेंगी। तीन दिनों के बाद वित्त मंत्री की प्रेस कॉनफ्रेन्स यह बताने के लिए कि राहत के लिए क्या दिया जाएगा।
अलग-अलग राज्यों के लिए राहत पैकेज और जनता रसोई करीब 10-15 दिन बाद लगने शुरू हुए लेकिन सवाल है कि तब तक का क्या? उस वक्त तक की बदहाली का क्या?
धर्म देखकर हो रही है ज़्यादती
इस पूरे तालाबंदी के दौरान, उससे पहले और पिछले कई सालों से एक बात काफी स्पष्ट रूप से दिख रही है कि व्यक्ति सिर्फ अब व्यक्ति ही नहीं रह गया। उसकी धार्मिक पहचान, उसकी जातिगत पहचान उस व्यक्ति के अस्तित्व से अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।
भोपाल में तालाबंदी के दौरान जिन इलाकों के हालात बहुत खराब हैंस उनमें से अधिकांश पुराने भोपाल के इलाक़े हैं। क्या कभी सब्ज़ी और फल खरीदने से पहले आपने ठेले वाले का चेहरा देखा है और उसके चेहरे पर दाढ़ी देखकर लेने से माना किया है?
यदि हां, तो आप भी इसी भीड़ में शामिल हैं और नहीं तो आप सामान्य हैं। अनु नगर में रहने वाले यूसुफ (बदला हुआ नाम) ने बताया कि उनके तरबूज़ को उनका धर्म खाने लायक नहीं छोड़ रहा।
दरअसल देश में हुई कुछ घटनाओं के बाद से बड़े स्तर पर मुस्लिम धर्म के लोगों का बहिष्कार करने की अपील की गई जिसमें उन्हें अपने मोहल्ले में आने से रोकने, उनसे सामान ना खरीदने आदि की घोषणाएं भी हुई।
इसको लेकर नैशनल हॉकर फेडरेशन ने कई संगठनों व संस्थाओं के साथ मिलकर केंद्र सरकार से शिकायत भी की है लेकिन उन शिकायतों का असर ज़मीन पर कितना हुआ यह स्पष्ट नहीं है।
पुलिस भी कर रही है परेशान
इसी तरह अनवर (बदला हुआ नाम) की माँ ने बताया, “चार दिन से हमारे पास ना राशन की कोई व्यवस्था है, ना खाने के लिए रोटी का टुकड़ा, तो मेरे बेटे ने कहा कि बीमारी से तो बाद में मरेंगे पहले भूख से ही मर जाएंगे, मैं कुछ करता हूं।”
इसके बाद वह हाथ ठेला लेकर निकला ताकि कुछ बेचकर शाम को खाना खा पाए। फल बेचते समय उसे पुलिस ने रोका और फल मांगे। जब अनवर ने मुफ्त में फल देने से मना किया तो पुलिस ने उसका मोबाइल और ठेला उठवा लिया।
अनवर जैसे-तैसे अपनी जान बचाकर घर आ गया लेकिन पुलिस ने घर पहुंचकर अनवर को भी हिरासत में ले लिया और थाने में बंद कर दिया। कई घंटों तक लगातार बात करने के बाद रात में करीब 11 बजे उसे छोड़ गया।
यह ज्ञात हो कि 3 अप्रैल को केंद्रीय आवासन एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने यह आदेश जारी किया था कि आवश्यक सामग्री जैसे अन्न-सब्ज़ी-फल बेचने वाले पथ विक्रेताओं को परेशान नहीं किया जाएगा और उनके गली-गली जाकर बेचने पर कोई रोक नहीं लगाई जाएगी।
लेकिन पुलिस इस आदेश की अवमानना तो कर ही रही है और साथ ही में कई बार एक व्यक्ति को उसके जीविका के अधिकार से भी वंचित भी रख रही है।
सामाजिक संस्थाओं को भी आना होगा साथ
तालाबंदी के दौरान सरकार के सहयोग के लिए कई सामाजिक संस्थाएं खड़ी हुईं, कई व्यक्ति सामने आए और तमाम मतभेद को परे रखते हुए कई मज़दूर संगठन भी सरकार के सहयोग के लिए सामने आए हैं।
ऐसा होता है कि सरकार पूरी तरह से ज़ोर लगाने के बाद भी अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने में असफल रह सकती है। इसलिए संस्थाओं व संगठनों की भूमिका अहम हो जाती है।
क्योंकि ये शहरों के मुद्दों पर लगातार काम कर रहे होते हैं और सबसे वंचित समूहों के सबसे अहम मुद्दों पर समझ भी रखते हैं।
तालाबंदी में हर शहर की अपनी समस्याएं हैं, अपने मुद्दे हैं, अपनी प्रणाली और अपना प्रबंधन है लेकिन मध्यप्रदेश में ताज्जुब यह है कि जिस समय सबसे अधिक ध्यान देने की आवश्यकता थी, उसी समय सरकार और सरकारी अफसरों ने ही सबसे ज़्यादा अनदेखी की।
मध्यप्रदेश विधानसभा में 23 मार्च को शपथ ली गई, फिर तालाबंदी के बाद विश्वास मत हासिल किया गया। जीत का जश्न मनाया गया। राज्य की स्वास्थ्य सचिव ने अपने बेटे की यात्रा का इतिहास छिपाया और ऐसे ही बाकी अधिकारी भी अब संक्रमित हैं।
ऐसे राज्य में आने वाले समय में क्या होगा यह सोचना भयावह है, क्योंकि असली मध्यप्रदेश शहरों में नहीं जंगलों और गाँवों में बसता है और वहां पर ना अभी टेस्ट पहुंचे हैं, ना अधिकारी और ना ही कोई राहत।
नोट: YKA यूज़र अंकित, शहरी गरीबों के मुद्दे पर यूथ फॉर यूनिटी एंड वोलंटरी एक्शन (युवा) के साथ काम करते हैं, जिन्होंने आशीष रघुवंशी के साथ मिलकर इस लेख को लिखा है।