माहवारी ने महिलाओं को अपवित्र और गंदा बना दिया! हद तो यह है कि पुरुषों ने इसे सच मान भी लिया। प्रकृति की सारी तार्किकता को किनारे कर लिया गया।
पितृसत्ता में जो पुरुष ने सच मान लिया, बस वही पत्थर की लकीर हो गई, जिसका पालन सबके लिए ज़रूरी था। आखिर माहवारी महिलाओं के लिए अपवित्र हुई कैसे? किसने कहा ऐसा? क्या किसी ने कभी महिलाओं से पूछा कि वे कैसा महसूस करती हैं ऐसा सुनकर?
आखिर महिलाएं ‘उन दिनों’ में अधिक अपवित्र क्यों मानी जाती हैं?
ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे जब हम पाएंगे कि भारत में जहां-जहां धर्म की बातें ज़्यादा हुईं, वहां-वहां महिलाएं ‘उन दिनों’ में और अधिक अपवित्र होती चली गईं।
दक्षिण के मंदिर और उत्तर के पहाड़ को ही देख लीजिए। दक्षिण में माहवारी की उम्र से गुज़र रही महिलाओं का मंदिर में प्रवेश ही निषेध कर दिया गया।
उत्तर भारत में माहवारी के दौरान महिलाओं की स्थिति क्या है?
उत्तर भारत में महिलाओं से कहा गया कि ये पांच दिन घर में नहीं रहकर घर के बाहर खेतो-खलिहानों या माहवारी के लिए विशेष तौर पर बनाई गई झोपड़ियों (उत्तराखंड, नेपाल में इन्हें “छौपदी पर जाना” कहा जाता है) में रहो।
जब उन्हें जीवन साथी के ज़्यादा सहयोग की ज़रूरत थी, उसी समय उन्हें अकेला छोड़ दिया गया।
जब तक वहां आदिवासी समुदाय ज़्यादा संख्या में रहें, तब तक यह थ्योरी वहां नहीं पहुंची। आदिवासी महिलाएं आराम से माहवारी में भी काम करती रहीं, जंगलों में भी जाती रहीं और पुरुषों को भी संभालती रहीं।
धर्म के धंधे ने जैसे ही वहां पैर पसारना शुरू किया, इन चीज़ों का बोलबाला भी बढ़ता चला गया।
कहां से आई यह अपवित्र होने की थ्योरी?
“माहवारी का खून अपवित्र है।” क्या किसी धार्मिक किताब में ऐसा लिखा है ऐसा? क्या कोई महापुरुष या देवता के अवतार कह गए ऐसा? कहां से आई यह अपवित्र होने की थ्योरी?
जबकि धारावाहिकों में दिखाए दृश्यों के इतर हर महापुरुष, अवतार, धरती पर आए ‘ईश्वर’ के रूप या दूत ने किसी कोख से ही जन्म लिया। इसी खून से उसका पोषण हुआ।
किसी भी धर्म की कोई ऐसी पवित्र किताब है, जिसे किसी स्त्री ने लिखा हो?
मुझे माफ़ कीजिएगा मगर क्या कभी खुद से प्रश्न किया है कि किसी भी धर्म की कोई ऐसी पवित्र किताब है, जिसे किसी स्त्री ने लिखा हो? चलिए प्रश्न को और सरल करते हैं। क्या ऐसी कोई धार्मिक किताब है, जो किसी स्त्री के नज़रिये से ही लिखी गई हो?
जिन तथाकथित महापुरुषों ने इन्हें लिखा, क्या वे महिलाओं की पवित्रता-अपवित्रता को साबित करने के लिए किताब के पन्ने रंगने से पहले किसी महिला का पक्ष जानकर आए थे? अगर नहीं, तो उन्हें किसने हक दिया कि वे किसी ‘प्राकृतिक क्रिया’ से इन्सान की पवित्रता को आंकना शुरू कर दें?
सिखों के पवित्र ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में रजस्वला स्त्री को पवित्र कहा गया है
मुझे फिर से माफ कीजिएगा। मैं किसी धर्म पर आक्षेप या तुलना नहीं करना चाहता लेकिन अगर सिखों के पवित्र ग्रन्थ ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’, जो संभवतः वर्तमान में अनुसरण किए जा रहे सभी धर्मों में सबसे नवीन धर्म की पवित्र किताब है, को छोड़ दिया जाए तो किसी भी धर्म में रजस्वला स्त्री को पवित्र नहीं माना गया है।
गुरु ग्रन्थ साहिब में नानक देव जी ज़रूर लिखते हैं, “हे पंडित, गंदी महिलाएं नहीं, गंदी तेरी सोच है जो महिलाओं को (माहवारी के समय) गंदा कहता है।”
प्रकृति ने जिसे ताकत के रूप में बक्शा, उसी को महिलाओं के विरुद्ध हथियार बनाया गया
अगर हम कहें कि प्रकृति ने पुरुषों और महिलाओं में क्या विभेद किया? तो इसका सीधा सा उत्तर है, कुछ नहीं! दोनों को शरीर के एक जैसे तंत्र दिए, जिससे वे एक ही तरीके से सांस लेते हैं, एक ही तरीके से खाना खाते हैं, एक ही तरीके से घूमते-फिरते हैं। यहां तक कि दोनों का दिल भी एक ही गति से धड़कता है।
हड्डी भी बराबर और आंख-नाक-कान-जीभ और तो और फेफड़े- गुर्दे भी बराबर। किसी को कुछ कम नहीं, किसी को कुछ ज़्यादा नहीं। केवल एक तंत्र (प्रजनन तंत्र) को अलग अलग बनाया, ताकि संतति से यह दुनिया आगे बढ़ती रहे।
यह अभिशाप नहीं ईश्वरीय वरदान है
प्रकृति ने इसमें भी स्त्री को दो ताकत ज़्यादा दी। एक बच्चा पैदा करने की और दूजे बच्चे को दूध पिलाने की। आदमी चाहे तो भी ये दो ताकत प्राकृतिक रूप से नहीं पा सकता मगर पितृसत्ता का खेल देखिए, धर्म- संस्कृति की आड़ में महिलाओं को यह एहसास दिलाया कि प्रकृति की दी ये ताकत असल में उनकी कमज़ोरी है।
महिलाओं की ताकत को उसी के विरुद्ध हथियार के रूप में उपयोग किया गया। उसे हीन महसूस करवाया गया, कमज़ोर महसूस करवाया गया। इस तरह से आदमी ने अपना पहला दर्ज़ा हथिया लिया और महिलाओं को दूसरे दर्जे़ पर रहते हुए उस पर (पुरुष पर) निर्भर रहने को मजबूर कर दिया।
कबीले का उत्तराधिकारी खोजने के चक्कर में महिलाएं बंधक बनती चली गईं
मानव जाति की उत्पत्ति की शुरुआत में मानव जंगलों में पशुओं की ही तरह रहता था। धीरे-धीरे हथियार बनाए और शिकार करना सीखा। वन काटे, खेत बनाए और खेती बाड़ी भी सीखी। ज़िंदा रहने के लिए अकेले रहने से बेहतर था कि साथ रहा जाए तो कबीले बनने शुरू हुए।
कबीले बने तो जगह को लेकर आपसी लडाइयां भी हुईं। तब तक पुरुष और महिला दोनों साथ लड़ते रहे। कौन किसका बच्चा, ये कोई फर्क नहीं पड़ता था मगर जब खेतों और कबीलों पर कब्ज़े होने शुरू हुए तो मुखियाओं ने सोचना शुरू किया कि अर्जित संपत्ति किसी अपने को ही दी जाए।
स्त्री को चहारदीवारी में कैद करके उनको यह एहसास कराया गया कि तुम कभी पुरुषों के बराबर नहीं हो सकती
ऐसे में यह पता करना ज़रूरी हो गया कि आखिर मेरा बच्चा कौन? इसके लिए आवश्यक था कि जिसके साथ संभोग किया, वह केवल उसी की रहे। यह तभी संभव था जब महिलाओं को बाकी मर्दों से दूर रखा जाए।
ऐसे में महिलाओं को घर की चहारदीवारी में कैद करना शुरू किया गया। अब यह चहारदीवारी ही महिलाओं के लिए धीरे-धीरे बंधन बनती चली गई, जिससे वे आज तक बाहर नहीं निकल पाईं।
आज भी अलग-अलग सामाजिक-पारिवारिक-धार्मिक-भावनात्मक बंधनों द्वारा महिलाओं को चारदीवारी में कैद रखा जा रहा है। इस कैद को बनाए रखने के लिए उन्हें यह एहसास कराया जाना बहुत ज़रूरी है कि इस पितृसत्ता में तुम कभी बराबर नहीं हो सकती, तुम्हारा दर्ज़ा दूसरा ही होगा। तुम भले ही बाहर आकर कंधे से कंधा मिला लो, घर की उस चाहरदीवारी में तुम्हे कंधा झुकाना ही पड़ेगा।
खून की पाकीज़गी से ज़्यादा ज़रूरी रिश्ते की पाकीज़गी है
अगर हम महिलाओं को बराबर मानेंगे तो दोनों को एक-दूसरे का सम्मान करना बहुत ज़रूरी है। अगर हम कहते हैं कि यह समाज पितृसत्तात्मक है और ज़्यादातर फैसले आज भी मर्दों को लेने का हक है, तो यह फैसला भी हम मर्दों को ही लेना होगा कि माहवारी के समय की इस अपवित्रता से महिलाओं को बाहर निकालने में हम कैसे मददगार बने।
आइए जानते हैं बदलाव के लिए हमको क्या कदम उठाने चाहिए?
हम क्या कर सकते हैं, जिससे हमारे चारों तरफ अलग-अलग रिश्तों में हमारे साथ खड़ी महिलाएं (परिवार की सदस्य से लेकर कार्यालय की सहकर्मी, दोस्त और जीवनसाथी आदि) भी बेहतर महसूस कर सकें। हम हमारे काम, हमारी सोच, हमारे व्यवहार में क्या बदलाव करें, जिससे महिलाएं सहज महसूस कर सकें?
माहवारी जैसी प्राकृतिक क्रिया पर ठीक वैसे सहज होकर बात कर सकें जैसे किसी अन्य प्राकृतिक क्रिया में बातचीत होती है। हम कैसे ऐसा परिवेश तैयार करने में समाज की मदद करें, जहां माहवारी के समय महिलाओं को थोडा आराम मिल सके। वे अपना काम करने के साथ-साथ खुद के स्वास्थ्य को और खुद को समय दे सकें।
यह उनका हक है, जिसे इस पितृसत्तात्मक सोच ने हमेशा दबाया है। वे हमसे आगे नहीं निकलना चाहती हैं। वे पहले दर्जे़ पर भी नहीं आना चाहती हैं। वे बस खुद के लिए सम्मान चाहती हैं। अब हम मर्दों को मर्दानगी की सही परिभाषा को फिर से लिखने का वक्त आ गया है।